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कांग्रेस में कब तक चलेगी वंशवाद की राजनीति?

कांग्रेस में कब तक चलेगी वंशवाद की राजनीति?

प्रियंका का कांग्रेस महासचिव बनना कोई अचरज की बात नहीं, पर इससे यह सवाल भी उठता है कि कांग्रेस आख़िर क्यों वंशवाद की राजनीति से बाहर नहीं निकल पा रही है। 

प्रियंका गाँधी के कांग्रेस महासचिव बनने से पार्टी ही नहीं बाहर के लोगों को भी ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि यह बिल्कुल ही अनपेक्षित नहीं था। बीच-बीच में भाई राहुल की मदद करती हुई प्रियंका भले ही राजनीति के हाशिए पर खड़ी थीं, पर वह उचित समय पर पार्टी में ऊंचे पद पर आ जाएँगी, यह साफ़ था और बस सही समय का इंतज़ार था। लेकिन इससे कई सवाल भी उठते हैं। आख़िर सवा सौ साल पुरानी पार्टी एक ही परिवार पर निर्भर है, स्वतंत्रता आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाने वाली पार्टी को क्यों एक परिवार से बाहर नेतृत्व देने लायक कोई नेता नहीं मिलता है, यह सवाल लाज़िमी है। 

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ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने परिवार से बाहर निकलने की कोशिश नहीं की है। समय-समय पर पार्टी के कुछ दिग्गजों ने परिवारवाद को चुनौती दी, पर घूम फिर कर पार्टी फिर अपने पुराने रास्ते पर लौट आई है। इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद पार्टी में सबसे वरिष्ठ नेताओं में एक प्रणव मुखर्जी ने दबी ज़ुबान से ही सही, अपनी दावेदारी पेश करने की कोशिश की थी। इसका नतीजा यह हुआ कि मुखर्जी धीरे-धीरे पार्टी में हाशिए पर धकेले जाते रहे और उन्होंने 1986 में कांग्रेस छोड़ कर राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी बना डाली। पर यह पार्टी चल नहीं पाई, प्रणव बाबू कांग्रेस से बड़ी तादाद में लोग तोड़ कर नहीं ला पाए, अपने गृह राज्य पश्चिम बंगाल में भी वह पार्टी मजबूती से खड़ी नहीं कर पाए। उन्होंने 1989 में अपनी पार्टी भंग कर दी और कांग्रेस में लौट आए। वह 1991 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाए गए और 1995 में वित्त मंत्री। उस समय यह सवाल उठा था कि आख़िर क्यों पार्टी एक परिवार से बाहर नहीं निकल पाई। मुखर्जी कभी बड़े जनाधार के नेता नहीं रहे, वे लंबे समय तक राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे। वे ख़ुद को राजीव गाँधी के विकल्प के रूप में लोगों पेश नहीं कर पाए।

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लेकिन बड़े जनाधार वाले नेताओं ने भी कांग्रेस छोड़ कर अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश बीच बीच में की। पी चिदंबरम ने कांग्रेस छोड़ तमिल मणीला कांग्रेस बनाई, लौट कर वापस आ गए। पी. ए. संगमा ने पार्टी छोड़ी, कुछ ख़ास नहीं कर पाए, उनके बच्चों ने कांग्रेस में ही अपना भविष्य देखा। सीताराम केसरी ने सोनिया गाँधी के नेतृत्व को चुनौती दी, कुछ दिन टिक पाए, फिर बेआबरू होकर पद से हटे। नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने और कुछ दिन टिके रहे तो सिर्फ इसलिए कि सोनिया गाँधी राजनीति से दूर रहना चाहती थीं। जब उनकी दिलचस्पी जगी, राव किनारे कर दिए गए। मनमोहन सिंह ने पूरी कोशिश की कि वे कभी गाँधी परिवार को चुुनौती न दें और अपना कोई समानांतर राजनीतिक आकार न बनने दें, तो वह दो बार प्रधानमंत्री बनाए गए। लेकिन सत्ता की बागडोर सोनिया के हाथों ही रही। उनके मीडिया सचिव रहे संजय बारू के मुताबिक़, जब उन्होंने मनमोहन की छवि गढ़ने की कोशिश की तो सिंह ने उन्हें बुलाकर डाँटा और कहा कि वे किसी फ़ैसले का श्रेय लेना नहीं चाहते। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होकर भी पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता नहीं बन पाए, पार्टी की बागडोर संभालना तो दूर की बात है।

कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि कांग्रेस में कभी भी दूसरी लाइन की लीडरशिप विकसित नहीं होने दी गई। छोटे-छोटे क्षत्रप अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों या राज्यों में तो रहे, पर किसी का राष्ट्रीय स्तर पर कोई आकार नहीं बनने दिया गया, किसी की राष्ट्रीय स्तर पर छवि नहीं बनने दी गई, किसी का जनाधार नहीं बनने दिया गया।

जिन लोगों ने पार्टी छोड़ी वे कांग्रेस से अलग नीतियाँ या सिद्धाँत लेकर जनता के बीच नहीं गए। वे कांग्रेस की नीतियों को ही लेकर गए, ऐसे में उनके पास देने को कुछ नया नहीं था और जनता ने उन्हें खारिज कर दिया। जिन्होंने पार्टी के अंदर अपना स्थान बनाने की कोशिश की, समय रहते उनके पर कतर दिए गए, भले ही वे अर्जुन सिंह जैसे क़द्दावर नेता ही क्यों न हों। कमलापति त्रिपाठी और एन. डी. तिवारी जैसे बड़े जनाधार वाले नेता की भी हैसियत नहीं बन पाई, उन्होंने कोशिश तो दरकिनार कर दिए गए। 

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पी. ए. संगमा

एक ही परिवार में सिमटी होने और उसी पर पूरी तरह निर्भर रहने का नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस में नए विचार नहीं आए, पार्टी समय के मुताबिक अपने को बदल नहीं पाई। उसने राष्ट्रीय स्तर पर कोई आंदोलन नहीं चलाया, वह आम जनता के बीच जाकर ख़ुद को लोगों से जोड़ नहीं  पाई, उसके पास कोई कार्यक्रम नहीं था। परिवार को खुश रखने और उस हिसाब से जुगाड़ फ़िट करने में सारे लोग लग गए, नीचे से ऊपर तक एक श्रृंखला बन गई। नतीजा यह हुआ कि सबसे बड़ी पार्टी अंदर ही अंदर खोखली होती गई। 

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पिछले चुनाव के समय पार्टी भले ही सत्ता में थी, वह अंदर ही अंदर खोखली हो चुकी थी और जनाधार से कट चुकी थी। ऐसे में उसका नेतृत्व सोनिया गाँधी कर रही थीं, जिनका लोगों से प्रभाव ख़त्म हो रहा था। उनके बाद सीधे राहुल गाँधी थे, जो न अच्छे वक्ता थे न अच्छे रणनीतिकार या भारत को समझने वाले। जनता से सीधे पार्टी को कनेक्ट करने वाला या उसकी नब्ज़ पर हाथ रखने वाला कोई नहीं था, राहुल तो बिल्कुल नहीं। वे नरेंद्र मोदी के सामने टिक नहीं सकते थे, नहीं टिक पाए। 

पिछले लोकसभा चुनाव में जब पार्टी भ्रष्टाचार, कुशासन और कई तरह के आरोपों से घिरी हुई थी और बीजेपी आक्रामक हिन्दुत्व के साथ नरेंद्र मोदी को लेकर आ गई, पार्टी ने गाँधी परिवार से बाहर किसी के नाम पर सोचा तक नहीं। पार्टी 50 सीट भी नहीं जीत पाई।

कांग्रेस की बुरी हार के बाद भी किसी ने गाँधी परिवार से बाहर नहीं सोचा। राहुल गाँधी के नेतृत्व में पार्टी एक के बाद दूसरा चुनाव हारती रही, सिमटती रही, भारतीय जनता पार्टी को लगभग हर जगह आसान जीत मिलती रही, कांग्रेस पीछे हटती रही। बुरी तरह टूटी, बिखरी, पस्त पार्टी को बीजेपी की नाकामी से एक बार फिर बल मिल रहा है तो लोग इसे भी राहुल की कामयाबी मानने लगे हैं। कांग्रेस पार्टी में जो नया संचार दिख रहा है और तीन राज्यों में जीत मिली है, वह बीजेपी के प्रति लोगों की नाराज़गी और उसके वायदों का पूरा नहीं होने की वजह से है। हिन्दुत्ववाद की राजनीति का एक सीमा से आगे नही निकल पाने की वजह से लोग कांग्रेस की ओर लौट रहे हैं। 

प्रियंका गाँधी को ज़िम्मेदारी देना पार्टी का मास्टर स्ट्रोक हो सकता है। वह युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकती हैं, कार्यकर्ताओं में नया उत्साह भर सकती हैं। पर यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि वह कांग्रेस का कायाकल्प कर देंगी। उनके आने के बाद भी पार्टी ज़्यादातर राज्यों में स्थानीय दलों के साथ ही चल पाएगी, मोलभाव में किसी तरह अपनी क़ीमत थोड़ा बढ़ा लेगी या जोड़तोड़ कुछ अधिक कर लेगी। लेकिन इससे पार्टी को एक बार फिर लंबे समय में नुक़सान हो सकता है। यह बात एक बार फिर स्थापित हो जाएगी कि गाँधी परिवार ही कांग्रेस पार्टी का तारणहार है। पार्टी इससे बाहर नहीं निकल पाएगी। 

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