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क्या कोरोना की वजह से शाकाहारी हो जाएगा अमेरिका?

क्या कोरोना की वजह से शाकाहारी हो जाएगा अमेरिका?

कोरोना संक्रमण ने मांसाहार पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। यह बहस उस अमेरिका में सबसे तीखी है, जहाँ मांसाहार लोगों के खाने-पीने का तरीका ही नहीं, जीवन शैली है, संस्कृति है।

कोरोना संक्रमण ने मांसाहार पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। यह बहस उस अमेरिका में सबसे तीखी है, जहाँ मांसाहार लोगों के खाने-पीने का तरीका ही नहीं, जीवन शैली है, संस्कृति है और पहचान व अस्मिता से जुड़ा हुआ है।

न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक लेख में यह विस्तार से बताया गया है कि किस तरह कोरोना संकट की वजह से इस मांसाहारी देश में अब शाकाहार को बढ़ावा देने की बात कही जा रही है। 

मांसाहार पर बहस

अमेरिका में यह बहस कोरोना के समय तेज़ और तीखी इसलिए हुई है कि कोरोना संकट जिन जगहों पर सबसे भयानक रूप में है, वे मोटे तौर पर मांस उद्योग के बड़े केंद्र हैं। 

इसकी शुरुआत राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उस फ़ैसले से हुई, जिसमें कुछ ऐसे जगहों को खोलने का आदेश दिया गया था, जो कोरोना के सबसे बड़े हॉटस्पॉट में एक तो हैं ही, सूअर पालने, मांस प्रसंस्करण, पैकेजिंग वगैरह के भी सबसे बड़े केंद्र हैं। उन्होंने इन इलाक़ों के क़त्लखानों को खोलने की अनुमति दे दी।

सूअर फ़ॉर्म

इससे यह सवाल उठा कि उन स्लॉटर हाउस में काम करने वाले कर्मचारियों की सुरक्षा क्या अहम नहीं है। ट्रंप ने जिन 10 काउंटीज (इसे हम ज़िला कह सकते हैं) को खोलने की अनुमति दी, उनमें से 6 वे हैं, जहाँ ये क़त्लखाने बने हुए हैं। 

इसे समझने के लिए हम कुछ उदाहरण लेते हैं। दक्षिण डकोटा राज्य के शू फ़ॉल्स स्थित स्मिथफ़ील्ड पोर्क प्लांट का इलाक़ा सबसे बड़े हॉटस्पॉट में एक है। आयोवा राज्य के टाइसन प्लांट के 60 प्रतिशत कर्मचारी यानी 730 लोगों को कोरोना संक्रमण हो गया। आयोवा के ही वॉटरलू के पोर्क प्लांट के 1301 कर्मचारी कोरोना से संक्रमित हो गए, यहाँ 2,800 कर्मचारी काम करते हैं। 

सूअरों का क़त्ल

कर्मचारियों की कमी के कारण इन प्लांटों को चलाना मुश्किल हो गया तो कुछ सूअरों को गोली मार दी गई, मादा सूअरों को इंजेक्शन देकर गर्भपात करा दिया गया। 

इन स्थितियों के बीच यह सवाल उठ रहा है कि मांसाहार को क्यों अपरिहार्य माना जाए। बड़ी संख्या में लोग इस पर विचार करने लगे हैं कि इसमें बदलाव ज़रूरी है और वह समय आ गया है। 

मांस उद्योग और उससे जुड़े पशुपालन को ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा कारण माना जा रहा है। मशहूर पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने एक सर्वे में पाया है कि 25 से 34 साल की उम्र के एक चौथाई अमेरिकियों ने कहा है कि वे शाकाहारी ‘वेगन’ हैं।

‘वेगन’ उन लोगों को कहा जाता है जो पशुओं से प्राप्त किसी तरह के उत्पाद का इस्तेमाल नहीं करते, वे अंडे या दूध या दूध-उत्पाद का प्रयोग नहीं करते। ऐसे लोग चीज़, मलाई, दही, आइसक्रीम तक नहीं लेते। 

एनिमल फ़ार्म!

एनिमल एग्रीकल्चर यानी मांस, या डेरी के लिए किए जाने वाले पशुपालन का अब विरोध होने लगा है। यह माना जा रहा है कि मांसाहार पर चलते हुए पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता है। अमेरिका में गोमांस से बने स्टेक्स बहुत लोकप्रिय हैं, पर अब लोग इस पर चिंतित हैं कि इस वजह से ग्रीनहाउस गैस बहुत बड़ी मात्रा में निकलती है। 

मांसाहार के पक्ष में एक सवाल यह उठता है कि क्या लोगों को पशुओं से मिलने वाले प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है इसका जवाब है, नहीं, पशुओं से मिलने वाला प्रोटीन ज़रूरी नहीं है। 

अमेरिका में एक अध्ययन में पाया गया है कि वहाँ लोग वैसे भी बहुत बड़ी मात्रा में प्रोटीन लेते हैं। एक औसत अमेरिकी ज़रूरत का दोगुना प्रोटीन लेता है। अमेरिका में प्रोटीन की अधिकता के कारण हृदय से जुड़े रोग हो रहे हैं।

प्रोटीन की अधिकता से किडनी से जुड़ा रोग भी हो सकता है और मधुमेह यानी डायबिटीज़ में भी दिक्क़त होती है। 

बेरोज़गारी 

एक सवाल यह उठता है कि क्या इस तरह के फ़ॉर्म फैक्ट्री के बंद होने से बेरोज़गारी नहीं बढ़ेगी। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सिस्टम नहीं रहा तो जो इसका वैकल्पिक सिस्टम उभरेगा, उसमें ज़्यादा लोगों को नौकरी मिलेगी।

इसकी बड़ी वजह यह है कि इस तरह के एनिमल फ़ार्म के कामकाज बड़े पैमाने पर ऑटोमेटेड होते हैं, उनका बिज़नेस मॉडल ही वैसा है। लेकिन यदि इसके बदले खेती बाड़ी की जाय तो उसमें ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिलेगा। 

एनिमल फ़ार्म का सच

इस रोज़गार का दूसरा पहलू यह है कि अमेरिका के इन फ़ार्म्स में काम करने वाले लोगों का शोषण होता है, वे कम वेतन पर काम करते हैं और कामकाज की स्थितियाँ कठिन होती हैं।

इस तरह के फार्म के मालिक भले श्वेत हों, उनके कर्मचारी बड़ी संख्या में लैटिन मूल के लोग और अश्वेत हैं। ये लोग समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदाय के हैं।

और उस पर हाल यह है कि अमेरिकी प्रशासन हर साल पैकेज के तहत इस सेक्टर को मोटी रकम में मदद देती है। इस साल यह पैकेज 38 अरब डॉलर का है। 

पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिकी खान-पान और जीवन शैली में यकायक परिवर्तन लाना मुश्किल होगा। इसलिए यह भी हो सकता है कि कोरोना संकट टलने के बाद यह मामला एक बार फिर ढंडे बस्ते में चला जाए। लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका में शकाहार बढ़ रहा है और कोरोना ने इसे मजबूती से लागू करने का मौका भी दिया है और कारण भी।

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