सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मसले की सुनवाई फ़िलहाल जनवरी तक के लिए टाल दी है। यानी अयोध्या में राम मन्दिर विवाद पर कोई निर्णय अब 2019 चुनाव के पहले नहीं आएगा। तो क्या ये कह सकते हैं कि देश फ़िलहाल राहत की साँस ले सकता है क्योंकि अब अयोध्या मसले पर कोई राजनीति नहीं होगी?मुझे नहीं लगताकि हम लोग इतने नासमझ हैं कि हम आश्वस्त हो कर बैठ जाएँ? अब कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं होगी? कहीं भड़काऊ भाषणबाज़ी नहीं होगी? सब बेसब्री के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करेंगे और नाराज़गी के बाद भी सब्र से काम लेंगे? कहीं दंगे नहीं होंगे? आदि आदि।
बाबरी विध्वंस के समय यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और यह सहमति बनी कि दोनों पक्ष अदालत का फ़ैसला मानें। बीच में रह-रह कर आवाज़ें उठती रहीं कि राम मंदिर निर्माण में देरी हो रही है। पर किसी ने इसको एक सीमा के बाद तूल नहीं दिया। पिछले छह महीने से इस मसले को नये सिरे से गरमाने की कोशिश की जा रही है। यह भी कहा गया कि अदालत इस बार फ़ास्ट ट्रैक कर जल्द-से-जल्द फ़ैसला सुनाए। बीच में यह लगने भी लगा था कि शायद लोकसभा चुनाव के पहले फ़ैसला आ जाए। आज के कोर्ट के बाद अब ऐसा होता दीखता नहीं है।
हिंदुत्ववादी ताक़तों की तरफ़ से इस बार माहौल गरमाने की कोशिश की गई। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में अयोध्या मसले पर पत्रकार हेमन्त शर्मा की किताब के विमोचन के समय कहा कि अयोध्या में हर हाल में राम मन्दिर बनना चाहिए और यह काम जल्द-से-जल्द शुरू हो। फिर विजया दशमी के अपने वार्षिक भाषण में उन्होंने यह कह कर सबको चौंका दिया कि मंदिर निर्माण के लिए सरकार कानून बनाए। ये संघ के स्टैंड में बदलाव था। संघ बाबरी विध्वंस के पहले कहता था कि राम मन्दिर का मामला आस्था से जुड़ा है। लिहाज़ा अदालतें इस पर फ़ैसला नहीं कर सकतीं। पर बाबरी विध्वंस के बाद ये कमोवेश कहा जाने लगा कि अगर दोनों पक्ष मिल-बैठ कर हल निकाल ले तो अच्छा है नहीं तो जो अदालत तय करें, वह सब मान लें। ऐसे में भागवत का यह कहना कि सरकार क़ानून बना कर मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे, यह क्या दर्शाता है?
बीजेपी का 'प्लान बी'
एक, यह इस बात का प्रमाण है कि अब संघ परिवार को मोदी के करिश्मे पर यक़ीन नहीं रह गया है कि वह बीजेपी की सरकार बनवा सकते हैं। यानी चुनाव जिताने की उनकी क्षमता में भारी कमी आई है। ऐसे में संघ को प्लान बी पर काम करना पड़ेगा। दूसरे मुद्दे तलाशने पड़ेंगे। राम मन्दिर पर तीखी आवाज़ों का उठना यही दर्शाता है।दो, मोदी सरकार की विफलता भी यह मुद्दा रेखांकित करता है। 2014 के समय जितने भी बड़े वायदे किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए। फिर चाहे वह काले धन का सवाल हो या रोज़गार का या महँगाई का या फिर महिलाओं को सुरक्षा देने का। असफलता साफ प्रतीत होती है। आज सरकार के परफार्मेंस से लोग ख़ुश नहीं हैं। यह बात हर ओपिनियन पोल में साफ़ नज़र आ रही है। लोगों का ध्यान सरकार के कामकाज से हटाने के लिए भी अयोध्या का इस्तेमाल किया जा रहा है। तीन, रफ़ाल के बारे में राहुल गाँधी के तेवर आक्रामक हैं। वह लगातार मोदी पर तीखे हमले कर रहे हैं। यह मसला सरकार की साख पर बट्टा लगा रहा है। रफ़ाल मोदी और बीजेपी के लिए बोफ़ोर्स न बन जाए इसके लिए ज़रूरी है कि अयोध्या जैसे भावनात्मक मुद्दे को उभारा जाए।अयोध्या का मसला पूरी तरह से राजनीतिक है। धर्म की आड़ में संघ परिवार ने राजनीतिक तीर चलाए और राम के नाम का बीजेपी को फ़ायदा भी हुआ। वरना बीजेपी 1984 में दो सांसदों की पार्टी बन कर रह गई थी। राम मन्दिर के आंदोलन ने उसे सत्ता के दरवाज़े तक पहुँचाया। उसके पक्ष में एक हिंदू वोट बैंक तैयार हुआ। मोदी ने इस वोट बैंक में विकास बैंक भी जोड़ दिया। बीजेपी अपने बल पर बहुमत तक पहुँच गई। पर विकास नहीं हुआ तो यह बैंक छिटक रहा है। ऐसे में राजनीति यह कहती है कि फिर से भावनाओं को भड़काओ और वोट की रोटी सेंको।
इसलिये चुनाव तक भड़काऊ बयानबाज़ियाँ होंगी। धार्मिक अखाड़ों, हिंदू साधु-संतों और धर्म संसद के बहाने माहौल गरमाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं बख़्शा जायेगा जैसे सबरीमला के मामले में हो रहा है। ऐसे में जो यह सोच रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जनवरी तक मामला टालने से राहत की साँस लेनी चाहिए, वे या तो संघ परिवार की फ़ितरत से वाक़िफ़ नहीं हैं या फिर वे राजनीति का क-ख-ग भी नहीं समझते! इतने मासूम मत बनिए। चुनाव का मौसम है। ख़ूब तीर चलेंगे। पटाखे फूटेंगे। भावनाएँ आहत होंगी। ज़रूरत पड़ी तो दंगे भी होंगे। लोगों के सिर भी फटेंगे और पेट भी।