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बिहार चुनाव: तेजस्वी क्या नीतीश का तंबू उखाड़ पायेंगे!

बिहार चुनाव: तेजस्वी क्या नीतीश का तंबू उखाड़ पायेंगे!

तेजस्वी यादव एक नए हुंकार के साथ खड़े हुए हैं। चुनाव की बिसात पर वो अपने पिता लालू यादव के आरंभिक दिनों की तरह एक चतुर खिलाड़ी के जैसे आत्मविश्वास से भरे दिखाई दे रहे हैं। क्या नीतीश को हरा पाएँगे?

तेजस्वी यादव एक नए हुंकार के साथ खड़े हुए हैं। चुनाव की बिसात पर वो अपने पिता लालू यादव के आरंभिक दिनों की तरह एक चतुर खिलाड़ी के जैसे आत्मविश्वास से भरे दिखाई दे रहे हैं। उनकी सभाओं में गर्जना के साथ उभरती भीड़ नब्बे के दशक में लालू की सभाओं की याद दिला रही है। लालू यादव सामाजिक न्याय के प्रचंड योद्धा की तरह उभरे थे लेकिन 2005 में पतन के पूर्व वो भ्रष्टाचार और बेलगाम अपराध के सिरमौर बन गए।

तेजस्वी के निशाने पर हैं बिहार की राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो क़रीब पंद्रह साल की सरकार से उपजी जनता के क्षोभ की उन्मादी लहरों से ख़ुद को बचाने के लिए लालू युग की अराजकता की याद दिलाकर एक बार फिर सत्ता में वापसी की व्यूह रचना कर रहे हैं। 

नीतीश ख़ुद भी सामाजिक न्याय के संघर्ष की उपज हैं। नब्बे के दशक में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान की त्रिमूर्ति ने बिहार की राजनीति से सवर्ण वर्चस्व को धुआँ में उड़ा दिया। सत्ता का एक नया समीकरण बना जिसका मुकुट यादव और मुसलमानों के सिर पर था। आज़ादी के बाद से कांग्रेस पार्टी ब्राह्मण, दलित और मुसलमान के समागम से एकछत्र राज चला रही थी। कहना नहीं होगा कि कांग्रेस के ब्राह्मण नेतृत्व में राजपूत, भूमिहार, कायस्थ और वैश्य जैसी सवर्ण जातियाँ भी एकजुट थीं।

लालू के सामाजिक न्याय के युद्ध ने ब्राह्मण नेतृत्व को हासिए पर पहुँचा दिया। लेकिन जल्दी ही 80% पिछड़ों और दलितों का सामाजिक न्याय युद्ध यादव और मुसलमान सत्ता केंद्र बन कर रह गया। इसे लालू के एम-वाई फ़ैक्टर यानी यादव-मुसलमान गठजोड़ का नाम दिया गया। ये गठजोड़ जैसे-जैसे मज़बूत होता गया वैसे-वैसे ग़ैर यादव पिछड़े और दलित सामाजिक न्याय की लड़ाई से बेदख़ल होते गए। लालू ख़ुद भ्रष्टाचार के दलदल में फँसते गए और सत्ता में बने रहने के लिए बाहुबलियों पर निर्भर होते गए।

बाहुबलियों ने लालू को समर्थन देने के साथ-साथ प्रदेश में अपराध का जाल बिछा दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार इसी जंगल राज की याद दिला रहे हैं और इसी आधार पर प्रधानमंत्री ने तेजस्वी को ‘जंगलराज का युवराज’ बता दिया।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि नीतीश ने 15 सालों में भ्रष्टाचार और अपराध दोनों को काफ़ी हद तक क़ाबू में किया लेकिन उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य का ढाँचा खड़ा करने के मामले में वो काफ़ी पीछे रह गए। खेती का आधुनिकीकरण नहीं हुआ। नतीजा बिहार का छात्र पढ़ने के लिए दूसरे राज्यों की तरफ़ भाग रहा है। इलाज के लिए लोग दिल्ली का रूख करते हैं। रोज़गार के मामले मे फिसड्डी राज्यों में बिहार शुमार है। नीतीश के पास इसका जवाब नहीं है इसलिए वो अपने कर्मों से ज़्यादा लालू के कुकर्मों को याद दिला रहे हैं।

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बिहार के मतदाता के मन में एक दुविधा यह है कि क्या तेजस्वी में अपराध रोकने की इच्छा शक्ति है। कुछ लोग याद दिलाते हैं कि 2015 से 2017 तक जब नीतीश के नेतृत्व में तेजस्वी उप मुख्यमंत्री थे तब बिहार में अपराध का ग्राफ़ ऊपर जाने लगा था। लेकिन तेजस्वी के कट्टर वोटर को उन पर विश्वास है।

भँवर में फँसे नीतीश!

नीतीश ख़ुद एक अलग भँवर में फँसे दिखाई दे रहे हैं। पिता रामविलास पासवान की मौत की सहानुभूति लहर पर सवार होकर चिराग़ पासवान नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदख़ल करने के लिए बेताब दिखाई दे रहे हैं। उनके सामने अपने पिता की नज़ीर भी है। 2005 के विधानसभा चुनावों में रामविलास पासवान ने तब 15 सालों से सत्ता पर क़ाबिज़ लालू यादव को ऐसी ही चुनौती दी। रामविलास की पार्टी को विधानसभा में कुल जमा 23 सीटें मिलीं। लेकिन लालू सत्ता से बाहर हो गए। रामविलास राष्ट्रीय राजनीति में ऐसे जमे कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी और प्रधानमंत्री बदलते रहे लेकिन वो  सदाबहार मंत्री बने रहे।

चिराग़ अपने पिता की सफलता को दुहराना चाहते हैं। वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन का ढोल पीट रहे हैं और नीतीश कुमार पर अग्निबाण छोड़ रहे हैं।

नीतीश के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ चिराग़ ने अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं और राजनीतिक पंडित मानते हैं कि चिराग़ कुछ न कुछ नीतीश का नुक़सान करेंगे। चिराग़ अपने पहले लक्ष्य को प्राप्त करें या नहीं करें, बिहार में एक बात धुएँ की तरह फैल गई है कि चिराग़ की बग़ावत के पीछे बीजेपी का हाथ है। बीजेपी के बाग़ी भी चिराग़ की शरण में हैं। चर्चा है कि बीजेपी चाहती है कि नीतीश की सीटें घट जाएँ। और इस तरह बीजेपी को नीतीश पर हावी होने का मौक़ा मिल जाए।

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सबसे बड़ा सवाल यह है कि बिहार की जनता तेजस्वी पर भरोसा करेगी या नहीं। लालू जब सत्ता में थे तब तेजस्वी नाबालिग थे इसलिए लालू राज के अच्छे-बुरे कर्मों के लिए तेजस्वी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। मुसलिम यादव गठजोड़ से बाहर निकलने के सबूत के तौर पर उन्होंने उम्मीदवार बनाने में सवर्णों को भी महत्व दिया है। वो साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो लालू के उत्तराधिकारी तो हैं लेकिन लालू के कर्मों के उत्तरदायी नहीं हैं।

वीडियो में देखिए, तेजस्वी के जाल में फँसे मोदी

तेजस्वी को अपना वजूद साबित करने का खुला मौक़ा मिला है। 2015 के चुनाव में वो नीतीश के साये में थे। इस बार उन्होंने उन सभी लोगों से किनारा कर लिया है जो उनका बिग बॉस बनने कि कोशिश कर रहे थे। नीतीश तीन तरफ़ से चक्रव्यूह में फ़ंसे हैं। प्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी उनके साथ है लेकिन मतदाताओं में बात फैल गई है कि बीजेपी उनका क़द छोटा करना चाहती है। चिराग़ उनका आशियाँ जला डालना चाहते हैं। 15 साल के शासन से उपजी नाराज़गी का डंक भी है। तेजस्वी के लिए यह एक बड़ा मौक़ा माना जा रहा है।

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