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ब्रिटेन के चुनाव नतीजों से क्या वहाँ अलगाववाद को बल मिलेगा?

ब्रिटेन के चुनाव नतीजों से क्या वहाँ अलगाववाद को बल मिलेगा?

ब्रिटेन के आम चुनावों के नतीजों से यह सवाल उठने लगा है कि क्या इससे वहाँ अलगावावदी ताक़तों को बल मिलेगा? क्या पहले स्कॉटलैंड और उसके बाद वेल्स और उत्तरी आयरलैंड अलग हो जाएंगे?

ब्रिटेन के संसदीय चुनावों में  मौजूदा प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन की अगुवाई वाली  कंजर्वेटिव पार्टी को भारी बहुमत मिलने के बाद 28 देशों के यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के आगामी जनवरी अंत तक निकल जाने (ब्रेक्ज़िट) का रास्ता साफ़ हो गया है। लेकिन इसके साथ ही चुनाव नतीजे ब्रिटेन की प्रादेशिक एकता  को भी प्रभावित करने के संकेत दे रहे हैं।

बोरिस जॉन्सन ने भले ही कंजर्वेटिव पार्टी को बहुमत दिलाकर ब्रिटिश मतदाताओं से ब्रेक्ज़िट की नीति पर मुहर लगवा ली है, लेकिन चुनाव नतीजे यह भी दिखाते हैं कि पूरा ब्रिटेन उनकी ब्रेक्जिट नीति के साथ खड़ा नहीं है।

क्या हुआ स्कॉटलैंड में

कंजर्वेटिव पार्टी को 364 और लेबर पार्टी को 203 सीटों वाले चुनाव नतीजों से लगता है कि ब्रेक्ज़िट को लेकर बोरिस जॉन्सन को भारी जनादेश मिला है। लेकिन इसे  पूरे देश की आमराय नहीं कहा जा सकता। ब्रिटेन के एक बडे प्रांत स्कॉटलैंड में जिस तरह कंजर्वेटिव विरोधी स्कॉटिश नैशनल पार्टी (एसएनपी) ने अपना वोट प्रतिशत  हिस्सा 8 प्रतिशत बढ़ाते हुए 59 में से 48 सीटों पर कब्जा जमाया है। वह इन सम्भावनाओं को बल देता है कि स्कॉटलैंड में ब्रिटेन से आज़ादी हासिल करने की मांग ज़ोर पकड़ेगी।

पिछली बार 2015 में स्कॉटलैंड में आज़ादी को लेकर जनमत संग्रह हुआ था, जिसमें मामूली वोटों से एकता चाहने वालों को बढ़त मिली थी। लेकिन इस बार स्कॉटलैड नैशनल पार्टी को 8 प्रतिशत अधिक वोटों की बदौलत पिछली बार से 11 सीटें अधिक मिली हैं।

इन नतीजों से प्रोत्साहित होकर स्कॉटलैंड की एसएनपी की नेता निकोला स्टर्जन ने स्कॉटलैंड में फिर जनमतसंग्रह करवाने की माँग कर दी है। स्कॉटलैंड के लोग यूरोपीय संघ में बने रहना चाहते हैं।

स्कॉटलैंड माँगे आज़ादी!

अब 12 दिसंबर को हुए चुनावों के बाद ब्रिटेन से आज़ादी और यूरोपीय संघ में बने रहने  की इच्छा पालने वाले स्कॉटिश लोग अपना बेहतर भविष्य ब्रिटेन से अलग होने में ही देखने लगे हैं। पिछले जनमतसंग्रह के दौरान ब्रिटेन में ब्रेक्जिट को लेकर कोई राष्ट्रीय आम राय नहीं थी। लेकिन 2016 में  ब्रेक्जिट को लेकर जो जनमतसंग्रह हुआ और जिस तरह ब्रेक्जिट का प्रस्ताव मामूली बहुमत से जीता उसके बाद स्कॉटलैंड के लोगों में ब्रिटेन से अलग होने और यूरोपीय संघ में बने रहने की मांग पहले से अधिक ज़ोर पकड़ी है।

सत्ता सम्भालने के बाद बोरिस जॉन्सन को यदि स्कॉटलैंड में जनमतसंग्रह की माँग के आगे झुकना पडा तो वह उत्तरी आयरलैंड में भी जनमतसंग्रह की माँग को दबा नहीं सकते। पिछली मई में बेलफास्ट में करवाए गए एक ओपीनियन पाल में 51 प्रतिशत लोगों ने मुख्य आयरलैंड में विलय के पक्ष में राय दी थी।

कार्यकाल पूरा कर पाएंगे जॉन्सन

ब्रेक्जिट को लेकर जिस तरह पिछले तीन सालों से पूरी ब्रिटिश राजनीति घोर विवाद में  उलझी हुई थी। इसके मद्देनज़र बोरिस जॉन्सन को भारी बहुमत मिलना हैरान करने वाला है। हालाँकि बोरिस जॉन्सन को 5 साल तक सत्ता सम्भालने का जनादेश मिल चुका है। लेकिन वह कार्यकाल पूरा कर सकेंगे, इस पर शक है, क्योंकि ब्रिटिश लोगों को यह भी पता है कि बोरिस जॉन्सन ब्रेक्जिट नीति की वजह से ब्रिटिश की एकता पर भी गहरी आँच डाल रहे हैं।

जॉन्सन ने चुनाव जीतने के बाद खुशी में कहा कि ये नतीजे ब्रिटेन में राजनीतिक भूकम्प की तरह हैं। लेकिन वह अपनी जीत में यह ग़म भी छुपा रहे हैं कि यह राजनीतिक भूकम्प भौगोलिक भूकम्प भी साबित होगा।

चार भिन्न प्रांतीय इलाकों वाला यूनाइटेड किंग्डम (यूके) नाम का ब्रिटेन इंगलैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड को मिलाकर बना है, जिसमें ब्रेक्ज़िट के भूकम्पीय असर की वजह से नहीं पाटने लायक दरारें प़ड़ सकती है।

कैसा होगा दूसरे यूरोपीय देशों से रिश्ता

ब्रेक्ज़िट के लिये जनादेश हासिल करने के बाद बोरिस जॉन्सन के सामने सबसे बड़ी चुनौती ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ भविष्य के रिश्तों की दिशा और संरचना तय करने की होगी। यूरोपीय संघ के सदस्य होने के नाते ब्रिटेन को कई आर्थिक लाभ मिल रहे थे। अब ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग होने प सोचना होगा कि दुनिया की बड़ी व्यापारिक कम्पनियाँ ब्रिटेन को ही यूरोप की आर्थिक राजधानी समझें। लेकिन यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स से निकट का सम्पर्क बनाए रखने के लिये ब्रसेल्स या अन्य यूरोपीय राजधानियों को अपना मुख्यालय बनाना होगा।

भारत पर असर

भारत जैसे कई देशों की  कम्पनियों ने लंदन को ही यूरोपीय संघ के प्रवेश द्वार के तौर पर अपना मुख्य गढ़ बना लिया था। उन्हें अब अपने मुख्यालयों को लंदन से हटाकर किसी अन्य यूरोपीय शहर में ले जाना होगा। ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के सभी साझेदार देशों के साथ अलग से व्यापार समझौते करने होगें। इसमें ब्रिटेन कितनी ताकत से सौदेबाजी अपने फ़ायदे के लिये कर पाएगा, इसमें पर्यवेक्षकों को संदेह है।

वोट बैंक की राजनीति के मद्देनज़र पाकिस्तानी समुदाय का वोट हासिल करने की कोशिश करने वाली जेरेमी कोर्बिन की अगुवाई वाली लेबर पार्टी के चुनाव हार जाना  हालाँकि भारत के लिये राहत का संदेश ले कर आया है, लेकिन इन चुनावों के बाद भारत को यूरोपीय संघ औऱ ब्रिटेन से अपने रिश्तों का नया खाका खींचना होगा।

भारत ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक देश है। यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद भारतीय निवेश लंदन से यूरोपीय शहरों की ओर कितना खिसकेगा, इसे लेकर पहले से ही ब्रिटेन में शंका जाहिर की जाने लगी है।

इन्हीं वजहों से ब्रिटेन के युवा  लोगों में ब्रेक्ज़िट को लेकर शंकाएं  रही हैं कि उनके रोज़गार के मौके कम हो सकते हैं। लेकिन ब्रिटेन के रुढिवादी विचारों वाले लोगों को हमेशा यह बात  खटकती रही है कि वे लंदन के बर्मिंघम पैलेस से शासित नहीं हो रहे हैं बल्कि बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स के यूरोपीय संघ मुख्यालय से मिले निर्देशों को पालन उन्हें करना  होता है। ब्रेक्जिट का फ़ैसला ब्रिटेन को अगले कुछ सालों के भीतर यदि समृद्धि की राह पर ले जाएगा तो बोरिस जॉन्सन ब्रिटेन के महानायक साबित होंगे। लेकिन यूरोपीय संघ से अलग  होने के नुक़सान वह झेल नहीं पाए तो ब्रिटेन के लोग उन्हें नहीं बख्शेंगे।

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