उपचुनाव नहीं हुए तो कैसे बचेगी ममता बनर्जी की कुर्सी?
क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 3 नवंबर को इस्तीफ़ा दे देंगी? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि बग़ैर विधानसभा का सदस्य बने मुख्यमंत्री पद पर उनका छह महीना उस दिन पूरा हो जाएगा।
फ़िलहाल ममता बनर्जी के पास तीन विकल्प हैं-
- ममता बनर्जी 3 नवंबर तक विधानसभा की सदस्य चुनी जाएं।
- वे अपने पद से इस्तीफ़ा देकर फिर से उसी पद का शपथ ले लें और उसके छह महीने के अदर हर हाल में सदस्य बन जाएं।
- पश्चिम बंगाल विधान परिषद को फिर से बहाल किया जाए और वे उसका सदस्य बन जाएं।
इन तीनों में कोई विकल्प पूरा नहीं होने पर उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना होगा और मुख्यमंत्री पद किसी और को सौंपनी होगी।
राज्यसभा सदस्य और पार्टी के वरिष्ठ नेता सौगत राय ने कहा है,
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यदि उपचुनाव नहीं कराए गए तो ममता बनर्जी छह महीने का समय पूरा होने के दो दिन पहले पद से इस्तीफ़ा दे दे सकती हैं और फिर से मुख्यमंत्री पद का शपथ ले सकती हैं।
सौगत राय, नेता, तृणमूल कांग्रेस
संविधान के प्रावधान?
संविधान के प्रावधानों के अनुसार, किसी सदन का सदस्य नहीं होने की स्थिति में अधिकतम छह महीने तक मंत्री रहा जा सकता है, ऐसा एक बार फिर किया जा सकता है। यानी अधिकतम एक साल तक कोई व्यक्ति बग़ैर किसी सदन का सदस्य बने मंत्री पद पर रह सकता है। उसके बाद उसे हर हाल में पद से हटना ही होगा।
ममता बनर्जी नंदीग्राम से विधासभा चुनाव हार गईं, वे विधायक नहीं है। इसके बावजूद उन्होंने 4 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और 3 नवंबर को उसके छह महीने पूरे हो जाएंगे।
क्या करेगा चुनाव आयोग?
पर्यवेक्षकों ने यह आशंका जताई है कि चुनाव आयोग कोरोना महामारी को आधार बना कर उपचुनाव कराने से इनकार कर सकता है। अभी तक चुनाव आयोग ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है, लेकिन उसकी निष्पक्षता पर विपक्षी दलों ने कई बार उंगली उठाई है, इसलिए इस आशंका को बल मिलता है।
उत्तराखंड में जो राजनीतिक ड्रामा हुआ और मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को इस्तीफ़ा देने के लिए जिस तरह बीजेपी ने बाध्य किया, उससे भी कुछ पर्यवेक्षकों ने कहा था कि यह सब इसलिए किया जा रहा है कि उपचुनाव नहीं कराए जाएं और उसकी चपेट में ममता बनर्जी भी आएं।
लेकिन इसमें एक पेच यह है कि उत्तराखंड में विधानसभा का कार्यकाल एक साल भी नहीं बचा है और इसलिए वहाँ उपचुनाव नहीं कराया जा सकता, पश्चिम बंगाल के साथ ऐसा नहीं है। वहाँ चार सीटें हैं, जहाँ विधानसभा चुनाव नहीं कराए गए थे। शोभन देव चट्टोपाध्याय के इस्तीफ़े की वजह से कोलकाता स्थित भवानीपुर सीट खाली हो गई, जिस पर उपचुनाव कराए जाने हैं। यह ममता बनर्जी की पुरानी सीट है। इन पाँच सीटों पर उपचुनाव होने चाहिए।
लेकिन यदि चुनाव आयोग यदि कोरोना संकट का हवाला देकर कहीं उपचुनाव न कराए तो मामला फँस सकता है।
पश्चिम बंगाल समेत पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव जिस समय कराए गए थे, उस समय कोरोना संकट ख़त्म नहीं हुआ था। तो जब पाँच विधानसभाओं के चुनाव कोरोना के बीच हो सकते हैं तो कुछ सीटों पर उपचुनाव क्यों नहीं हो सकते?
चुनाव आयोग को पड़ी थी फटकार
लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि इन चुनावों के बाद ही कोरोना संक्रमण तेज़ी से फैला था। चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना दिशा- निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाई गई थीं, जिसे लेकर चेन्नई हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को काफ़ी खरी- खोटी सुनाई थी। चुनाव आयोग इसका हवाला देते हुए भी उपचुनाव टाल सकता है।
तीसरा विकल्प!
ममता बनर्जी के पास एक तीसरा विकल्प है- विधान परिषद की बहाली। पश्चिम बंगाल में विधान परिषद 1969 में ख़त्म कर दिया गया और उसके बाद उसे बहाल करने पर कोई चर्चा कभी नहीं हुई।
ममता बनर्जी के विधानसभा चुनाव हारने के बाद इस पर चर्चा शुरू हुई। पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के पास दो तिहाई बहुमत है, लिहाज़ा, उसे इससे जुड़ा विधेयक पारित कराने में कोई दिक्क़त नहीं होगी।
लेकिन यह विधेयक उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजना होगा। वहाँ बीजेपी की सरकार इस पर जानबूझ कर देर कर सकती है और तब तक ममता बनर्जी के चुने जाने का समय ख़त्म हो जाएगा।
ऐसे में यदि उपचुनाव नहीं हुए तो ममता बनर्जी के पास एक ही विकल्प है और वह है इस्तीफ़ा देकर एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना। उसके बाद वे इस पद पर अधिकतम छह महीने रह सकेंगे। उसके अंदर भी यदि वे किसी सदन का सदस्य नहीं बनीं तो उन्हें हर हाल में पद से हटना होगा।
सौगत राय ने इसका संकेत दे दिया है। यदि ऐसा हुआ तो पश्चिम बंगाल में ऐसा पहली बार होगा। यह ममता बनर्जी की गरिमा व प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं होगा, पर ममता के पास कोई विकल्प नहीं है।
सबसे बड़ी बात यह है कि तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी में जिस तरह ठनी हुई है और राज्यपाल जगदीप धनखड़ जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं और उनकी निष्पक्षता पर सवाल जिस तरह उठ रहे हैं, उससे ममता को ख़ासी दिक्क़त हो सकती है।
यदि विधान परिषद के गठन से जुड़े विधेयक पर राज्यपाल लंबे समय तक कुंडली मार कर बैठे रह गए तो क्या होगा? यह केंद्र के पास जाए और वह इसे जानबूझ कर लटका दे और राष्ट्रपति के पास भेजे ही नहीं तो क्या होगा?
ये बातें लोकतांत्रिक परंपरा के अनुकूल भले न हों, पर जिस तरह का व्यवहार राज्यपाल कर रहे हैं, इस आशंका को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।