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कांग्रेस-आप आँख-मिचौली... तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई

कांग्रेस-आप आँख-मिचौली... तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई

वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाली आम आदमी पार्टी क्या ख़ुद को बचाने के लिए उस कांग्रेस से हाथ मिलाएगी जिसके ख़िलाफ़ उसने आंदोलन चलाया था?

आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस में मार मची है। दोनों ऐसे दिखा रहे हैं जैसे एक-दूसरे के जानी दुश्मन हों। एक-दूसरे को छू देंगे तो भस्म हो जाएँगे। ख़ूब जम कर गाली-गलौच हो रही है। दोनों ही पार्टियाँ यह साबित करने में लगी हैं कि वे कभी एक-दूसरे के साथ नहीं जाएँगी। पूरब-पश्चिम एक हो सकते हैं; सूरज रात में निकल सकता है पर ये दोनों कभी एक-दूसरे के साथ नही हो सकते। ऐसे में सवाल यह उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं, यह मुहब्बत की पहली सीढ़ी हो जहाँ पहले एक-दूसरे के प्रति नफ़रत होती है लेकिन यह नफ़रत कब मुहब्बत में बदल जाती है, पता नहीं चलता। अब यह देखना है कि लोकसभा चुनाव तक यह नफ़रत यूँ ही बनी रहेगी या फिर प्रेम के बोल भी बोले जाएँगे!

यह सच है कि दिल्ली में आप कांग्रेस को ख़त्म करके ही सत्ता में आई। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार ने पंद्रह साल राज किया। शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहीं। बीजेपी हर पाँच साल बाद जमकर मेहनत करती थी और हर बार उसे मात मिलती थी। पर 2011 में अन्ना के आंदोलन से जो कांग्रेसविरोधी लहर चली, उसमें 2013 में कांग्रेस दिल्ली में उड़ गई। वह महज़ 8 सीट पर सिमट गई। एक नई पार्टी जिसकी कोई ज़मीन नहीं थी, वह 28 सीट लेकर आई। उसकी वजह से न तो बीजेपी की सरकार बनी और न ही कांग्रेस की। सरकार बनी कांग्रेस के समर्थन से आप की। यह एक नया इतिहास था, जिसके बारे में टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा यह किसी क्रांति से कम नहीं। पर यह सरकार चली सिर्फ 49 दिन। अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफ़ा दे दिया। सरकार गिर गई। नई सरकार नहीं बन पाई। नए विधानसभा चुनाव हुए। आप ने फिर इतिहास रच दिया। 70 में से जीतीं 67 सीटें। इस बार कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला। उसके सारे उम्मीदवार हार गए। कोई कैसे यक़ीन करे इस दिल्ली में कभी कांग्रेस का डंका बजता था पर ऐसा हुआ। इसका सिर्फ़ एक कारण हैं - आम आदमी पार्टी। 

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आप कांग्रेस के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर राजनीति में आई थी। उसने दिल्ली और देश के लोगों से यह वादा किया था कि वह राजनीति करने नहीं, राजनीति बदलने आई है। वह देश को एक नया विकल्प देगी। वह विकल्प जो न धर्म की राजनीति करेगा और न जाति की। वह न धनबल का इस्तेमाल करेगा और न बाहुबल का। वह चुनाव में न तो पैसे बाँटेगा और न ही शराब की नदियाँ बहाएगा। वह आम आदमी के बुनियादी मुद्दों रोटी, कपड़ा, मकान, रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य की राजनीति करेगा। वह हिन्दू-मुसलमान की बात नहीं करेगा। वह ब्राह्मण, बनिया और दलित वोटों की बात नही करेगा।

आप ने एक ऐसे विकल्प की बात की थी, जो आम आदमी की बात करेगा। उसके हितों की लडाई लड़ेगा। एक ऐसे भारत का सपना देखेगा जो भ्रष्टाचार-मुक्त होगा। इसकी नज़र में सारी पार्टियाँ एक जैसी हैं। नाम भले ही बीजेपी, कांग्रेस, एसपी, बीएसपी, सीपीएम हो पर हैं सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। सबका एक ही स्वभाव है।

इसलिये वह अपना रास्ता बनाएगा। किसी से गठबंधन नहीं करेगा। 

क्या हुआ वैकल्पिक राजनीति का

लोगों ने इन बातों को सुना तो उन्हें लगा कि ये नये तरह के लोग हैं। लीक से हटकर चलना चाहते हैं। लोगों ने झारोझार वोट दिया। देश भर में उसके समर्थकों की भीड़ इकट्ठा हो गई। आप आदमी पार्टी को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा। लोग यह शर्त लगाने लगे कि आप कांग्रेस को ख़त्म कर देगी। 2015 में इंडिया टुडे के सर्वे में अरविंद केजरीवाल मोदी के बाद देश के सबसे लोकप्रिय नेता थे। राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी की लोकप्रियता उनके आधे से भी कम थी। सबको लगता था आप पंजाब में भारी बहुमत से जीतेगी। उसे दो-तिहाई सीटें मिलेंगी। पर उसे मिली बुरी हार और रही-सही कसर दिल्ली के एमसीडी चुनावों ने पूरी कर दी। आप औंधे मुँह गिरी। अब वह बडी मुश्किल से खड़ी हो रही है। देश में विकल्प बनने का सपना चकनाचूर हो गया। अगर 2015 वाली हैसियत होती तो आज वह कांग्रेस से गठबंधन की आस नहीं करती। वह सातों सीट जीतती। लेकिन आज पहले वाली हालत नहीं है। अब वह एक राजनीतिक दल है। जैसे दूसरे दल हैं। ऐसी हालत क्यों हुई, इस पर फिर कभी चर्चा की जाएगी। फ़िलहाल महत्वपूर्ण यह है कि अगर वह दिल्ली में कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाती है तो क्या वह लोकसभा की कुछ सीटें जीत पाएगी 

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कांग्रेस का 'हाथ'-आप के साथ

यह सच है कि आप में होता वही है जो अरविंद केजरीवाल चाहते हैं। और होगा भी वही जो वे चाहेंगे। वह फ़िलहाल चाहते हैं कि कांग्रेस से गठबंधन हो। पिछले एक साल से इनकी तरफ से कांग्रेस को संदेश भी दिए गए। कुछ दूसरे दलों ने दोनों के बीच पुल का भी काम करने की कोशिश की। पर बात नहीं बनी क्योंकि कांग्रेस की दिल्ली इकाई ने खूँटा गाड़ रखा है। उसका तर्क है अगर आप से गठबंधन हुआ तो कांग्रेस दिल्ली में कभी नहीं उठ पाएगी। यह तर्क आधारहीन नहीं है। वह अगर आप से दोस्ती करेगी तो आप की 'बी' टीम कहलाएगी। कांग्रेस की यह दुविधा जायज़ है। उसका और आप का वोट बैंक लगभग एक है। ग़रीब, पिछड़े, झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले लोग। मुस्लिम तबक़ा और दलित आप के बडे समर्थक हैं। यही वोट पहले कांग्रेस के पास था, जिसकी बदौलत तीन बार उसकी सरकार बनी। यह वोट खिसक के आप के पास चला गया तो कांग्रेस हीरो से ज़ीरो हो गई।

दिल्ली में अगर कांग्रेस को खड़ा होना है तो उसे आप से उसका वोट बैंक छीनना होगा। इसके लिए उसे यह साबित करना होगा कि आप की सरकार ने गरीब, पिछड़े, दलित, मुसलमानों, झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वालों के लिए कुछ नहीं किया। लोकसभा चुनावों में हाथ मिलाते ही कांग्रेस यह भाषा नहीं बोल पाएगी।

बीजेपी के ख़िलाफ़

तीन राज्यों के चुनावों में जीत के बाद यह माहौल बनने लगा है कि कांग्रेस बीजेपी को हरा सकती है। मोदी के सामने राहुल एक मज़बूत उम्मीदवार हो सकते है। यूपी के चुनावों के बाद अगर कोई यह बात कहता तो लोग हँसते।आज राजनीति बदली-बदली सी है। कांग्रेस को भी यह मालूम है कि अगर मोदी दुबारा प्रधानमंत्री बने तो कांग्रेस से ज्यादा राहुल गाँधी का राजनीतिक करियर ख़तरे में पड जाएगा। ज़िंदगी मुक़दमों में उलझ कर रह जाएगी और संभव है कि उनका हाल भी लालू यादव जैसा हो जाए। नेहरू-गांधी परिवार को राजनीति से हटाना, यह मोदी का भी मक़सद है और आरएसएस का भी। इस मसले पर दोनों में एक राय है। ऐसे में राहुल के लिए भी यह ज़रूरी है कि वे हर हाल में मोदी को हराने की रणनीति पर काम करें। एक-एक सीट जो वे जीत सकते हैं या मोदी को हरा सकते हैं, उसका हिसाब करना चाहिए। दिल्ली में आप से हाथ मिलाते ही सातों सीट पर जीत पक्की हो सकती है। हाथ न मिलाने पर मोदी के खातें में सातों सीटें जा सकती हैं। 

जब संघर्ष जीवन-मरण का हो तो विकल्प कम ही होते हैं। दिल्ली में अगर हाथ मिला तो पंजाब में भी गठबंधन का रास्ता साफ़ हो जाएगा। यानी दिल्ली की 7 और पंजाब की 13 मिलाकर कुल 20 की 20 सीटों पर ऐंटी-बीजेपी पक्ष का पलड़ा भारी होगा। नहीं होने पर कांग्रेस को काफ़ी सीटों पर नुक़सान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में समझ तो यह कहती है कि कांग्रेस को अहं छोड़ आप का हाथ थाम लेना चाहिए। पर क्या वह यह करेगी 

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मुश्किल फ़ैसला

फ़ैसला आप के लिए भी आसान नहीं है। अगर उसने दोस्ती की तो उसका यह दावा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा कि वह दूसरी पार्टियों से अलग है, वैकल्पिक राजनीति करती है। राजनीति करने नहीं, राजनीति बदलने आई है। पार्टी का एक तबक़ा इस गठबंधन के सख़्त खिलाफ है। पर वह कब तक आवाज बुलंद कर पाएगा दूसरा ख़तरा यह भी है कि गठबंधन करते ही कांग्रेस और आप में लोगों के लिए फ़र्क़ करना मुश्किल हो जाएगा। जो सीटें कांग्रेस लोकसभा की जीतेगी या चुनाव लड़ेगी, वहाँ आप का प्रभाव ख़त्म होने का गंभीर ख़तरा पैदा हो जाएगा। आप का ज़मीनी कार्यकर्ता इन इलाक़ों में कांग्रेस में भी जा सकता है। आप के लिये ख़तरा बडा है। ऐसे में यह सवाल भी उठेगा कि जो पार्टी एक समय में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर उठ रही थी, वह कांग्रेस से दोस्ती को क्यों मुहताज हो गई! वह अपने बल पर दिल्ली की सातों सीटों पर जीतने की स्थिति में क्यों नहीं है इसके लिए कौन ज़िम्मेदार हैं 

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