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राज्यसभा में भी बीजेपी को बहुमत से क्या फ़र्क पड़ेगा?

राज्यसभा में भी बीजेपी को बहुमत से क्या फ़र्क पड़ेगा?

बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को राज्यसभा में पहली बार बहुमत मिला है तो क्या इसका वह बड़ा फायदा उठा पाएगी? लोकसभा में भी तो बहुमत होने बाद भी एक के बाद एक बिल वापस क्यों लेने पड़ रहे हैं?

यह विडंबना ही है कि जब शासन और संसदीय कामकाज में भाजपा और नरेंद्र मोदी के इक़बाल को चुनौतियाँ मिलनी शुरू हुई हैं तब राज्यसभा में भाजपा को पहली बार बहुमत मिलने का दावा किया जाने लगा है। लोकसभा चुनाव में (ज्यादातर) राज्यसभा सदस्यों द्वारा जीत हासिल करने से खाली हुई 12 जगहों के उप चुनाव में भाजपा ने नौ जीते हैं और एनडीए के साथियों ने दो स्थान जीते हैं। 

हम जानते हैं कि राज्य सभा सदस्यों का चुनाव विधायक करते हैं और अभी ज्यादातर राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकार है। 245 सदस्यों वाले सदन में अब भाजपा के 96 सदस्य हो गए हैं और एनडीए के उसके सहयोगी दलों के सदस्यों, दो निर्दलीय और छह मनोनीत सदस्यों को लेकर अब उसके खेमे में 119 सदस्य गिने जा सकते हैं। अभी भी मनोनित सदस्यों की चार जगहें और जम्मू-कश्मीर के चार स्थान खाली हैं और बैठे-ठाले गणित लगाने वालों का अनुमान है कि भाजपा का खेमा 125 तक पहुँच सकता है। और अगर जम्मू-कश्मीर वाली गिनती को फिलहाल छोड़ भी दें तो 241 सदस्यों में भाजपा खेमा आराम से 123 तक पहुँच जाएगा। आजकल मनोनीत का मतलब भी शासक दल का सदस्य ही हो गया है। भाजपा के लिए यह स्थिति 2014 के बाद पहली बार बनी है।

अब यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मोदी का प्रताप गिरने की शुरुआत होने पर इस स्थिति के आने का भी बहुत मतलब है। लेकिन जिस विधायी कामकाज के लिए राज्यसभा में बहुमत होना ज़रूरी होता है उसमें नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा के एजेंडे वाले काफी काम पहले अटके भी हैं। सबसे पहला झटका तो भूमि अधिग्रहण क़ानून और श्रम क़ानूनों में बदलाव के समय ही लगा और हारकर केंद्र ने इसे राज्यों के हवाले कर दिया कि वे अपनी-अपनी मर्जी से और अपनी ज़रूरत के हिसाब से क़ानून बनाए। कृषि से संबंधित तीन क़ानून पास भी हुए, और उसमें ‘न्यूट्रल’ दलों का समर्थन लिया गया पर उस पर किसान आंदोलन और फिर उत्तर प्रदेश चुनाव की ज़रूरत ने पानी फेर दिया। बीजद और वाइएसआर कांग्रेस के साथ कई बार तेलंगाना राज्य समिति भी अपने ‘न्यूट्रल’ स्टैंड को छोड़कर भाजपा को समर्थन देती रही है। कई और दल भी खास रणनीति से सदन से गायब होकर बिल पास कराने में मदद करते थे। अब तेलंगाना राज्य से भारत देशम बने चंद्रशेखर राव की पार्टी का तो अस्तित्व संकट में है लेकिन बीजद और वाइएसआर कांग्रेस विरोध में आ गए हैं, भले उनकी शक्ति कम हुई हो।

दूसरी ओर कई बार ‘धोखा’ खाने के बाद नामी वकील अभिषेक मनु सिंघवी तेलंगाना से राज्यसभा में पहुंचे हैं। कांग्रेस को वैसे तो यह एकमात्र सीट मिली है लेकिन इसने राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 27 तक पहुंचा दी है। इससे उनका राजनैतिक पुनर्वास तो हुआ ही है, कांग्रेस अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे सदन में विपक्ष का नेता पद पर निश्चिंत हो गए हैं। 

अभी तक कांग्रेस के 26 सदस्य ही थे और विपक्ष का नेता बनने के लिए 25 सीटों की ज़रूरत होती है। जिस रफ्तार से भाजपा दल बदल और तोड़-फोड़ करती रही है उसमें खड़गे जी की कुर्सी छीनना बहुत मुश्किल न था। पिछली लोकसभा में जिस तरह राहुल गांधी और महुआ मोइत्रा की सदस्यता छीनी गई और डेढ़ सौ से ज्यादा सांसदों को निलंबित किया गया उसमें यह ख़तरा रोज मंडरा रहा था।

लेकिन यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस दिन भाजपा को राज्यसभा में मोदी-युग का सबसे बड़ा आंकड़ा हासिल हुआ उससे दो दिन पहले एनडीए में और सरकार में साझीदार लोक जन शक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग कर दी।

इस बात की चर्चा एकमात्र सांसद वाले दल के नेता जीतन राम मांझी जैसे लोग भी हल्के फुल्के ढंग से उठाते रहे थे लेकिन चिराग के कहने का तत्काल बड़ा असर हुआ। 

कांग्रेस के नेता राहुल गांधी द्वारा इस सवाल को राजनीति के केंद्र में ला देने के बाद भी अभी तक भाजपा इसके पक्ष में नहीं दिखती है। वह इसे राहुल के पिच पर खेलना मानती है। लेकिन चिराग जैसे सहयोगियों और महाराष्ट्र (जहाँ जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं) के अपने नेताओं की मांग को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा। पार्टी ने ऐसे ही दबाव में (जिसमें मुख्य दबाव राहुल का था तो एनडीए के साथियों की तरफ से भी बयानबाजी शुरू हुई) बड़े सरकारी पदों पर सीधी भर्ती का अपना विज्ञापन वापस लेना पड़ा। अब सरकारी पक्ष जो कहे लेकिन इसका राजनैतिक श्रेय राहुल और इंडिया गठबंधन के नेता ही ले रहे हैं। सरकार ने इसी तरह कैबिनेट की आपात बैठक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर बनाने और उसका श्रेणीकरण करने संबंधी फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करने का फ़ैसला किया। यह सवाल दलित समूहों में तो सुगबुगाहट ला रहा था लेकिन राहुल या किसी बड़ी विरोधी नेता ने अदालती फ़ैसले को ग़लत नहीं कहा था। उलटे तेलंगाना के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी तो इसके पक्ष में बोलते दिखे। राहुल के सलाहकारों में एक योगेंद्र यादव ने भी खुलकर आदालती फ़ैसले का समर्थन किया।

पर इनसे बड़े-बड़े मामलों में सरकार थर्राती और कांपती दिख रही है। ब्रॉडकास्ट विधेयक तो बड़ी तैयारी से लाया गया था, अब उसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। कांग्रेसी सैम पित्रोदा द्वारा वेल्थ टैक्स का सवाल उठाने का विरोध करने के बाद सरकार ने बजट में लगभग वही कर ला दिया। पर जैसे ही विरोध हुआ, उसमें बदलाव कर दिया गया। ओल्ड पेंशन स्कीम को नए नाम से वापस लाया गया है। सबसे चर्चित मामला वक्फ बोर्ड संबंधी कानून का था जिसे काफी तैयारी से लाया गया था और जो भाजपा की राजनीति के अनुकूल माना जाता था। पर जैसे ही चर्चा चली जदयू और तेलुगु देशम पार्टी समेत की तरफ से दबाव आने लगे और यह बिल भी लटका दिया गया। 

बजट पर मोदी सरकार को समर्थन दे रहे दो दलों की राज्य सरकारों पर धन की बरसात करना भी राजनैतिक मुद्दा बना। पर मुश्किल यह है कि तीसरे टर्म की शुरुआत में नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, एकनाथ शिंदे जैसे सहयोगियों के बल पर जिस तरह भाजपा को भी जेब में रखा दिखाया (उनको भाजपा संसदीय दल का नेता चुनने की जगह एनडीए का नेता ही चुना गया) अब वही सहयोगी आँख दिखाने लगे हैं। ऐसे में लोकसभा के साथ राज्यसभा में भी बहुमत आ जाए तो क्या फर्क पड़ेगा!

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