म्यांमार: सू ची से निराश, दुखी है अंतरराष्ट्रीय समुदाय
एमनेस्टी इन्टरनेशनल ने म्यांमार की नेता आंग सान सू ची को दिया हुआ ‘इन्टरनेशनल अम्बेसडर ऑफ कॉनशंस’ पुरस्कार वापस ले उनके मौजूदा कामकाज पर कड़ी टिप्पणी की है। उनकी सरकार की ओर से लगातार किया जा रहा मानवाधिकार उल्लंघन और उस पर उनकी चुप्पी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उन्हें पूरी तरह अलग थलग कर दिया है। लोग उनसे निराश और दुखी हैं। यह सवाल भी उठाया जाने लगा है कि क्या उनसे नोबेल का शांति पुरस्कार भी ले लिया जाएगा।
एमनेस्टी के महासचिव कूमी नायडू ने सू ची को लिखी एक कड़ी चिट्ठी में कहा है कि ‘जिन सिद्धातों के लिए उन्हें यह पुरस्कार दिया गया था, उन्होेंने उनसे मुंह मोड़ लिया है।'
नायडू ने यह भी कहा कि ऐसे में उनके साथ इस पुरस्कार का बने रहना पुरस्कार का मजाक उड़ाना तो है ही, उनका भी अपमान जिन्होंने मानवाधिकारों के लिए अपना जीवन क़ुर्बान कर दिया। नायडू की चिट्ठी आप यहां पढ़ सकते हैं।
पत्रकारों को जेल
एमनेस्टी के इस फ़ैसले की तात्कालिक वजह है रॉयटर्स के दो संवाददाताओं वा लोन और क्यॉ सू ऊ को दस साल की सज़ा और उस पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित इस नेता की चुप्पी।दोनों पत्रकारों ने ख़बर दी थी कि सेना ने अराकान की पहाड़ियों की तलहटी में बसे इन डिन गांव में रोहिंग्या समुदाय के दस पुरुषों और बच्चों की हत्या कर दी थी। सेना ने दस लोगों के मारे जाने की बात तो मान ली, पर उसकी ख़बर देने वालों को दोषी क़रार दिया। सू ची ने इस पर सेना का बचाव किया था।नरसंहार
सू ची रोहिंग्या नरसंहार पर अपनी सरकार और सेना का लगातार बचाव करती रही हैं, जिससे तमाम लोग चकित हैं। अराकान की पहाड़ियों की तलहटी में बसे राज्य रखाइन के बांग्ला भाषी मुसलमान रोहिंग्या जनजाति के लगभग सात लाख लोग वहां से भाग कर बांग्लादेश में शरण लिए हुए हैं। अलग देश के लिए हथियारबंद लड़ाई लड़ने वाले अराकान सैल्वेशन आर्मी ने एक सैनिक छावनी पर हमला कर कुछ सैनिकों को मार गिराया था। उसके बाद म्यांमार सेना ने आतंकवाद को कुचलने के नाम पर पूरे रखाइन प्रांत में ज़बरदस्त सैनिक कार्रवाइयां की, जिसके शिकार निहत्थे लोग हुए।युद्ध अपराध
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने ही इस सैनिक कार्रवाई को ‘नरसंहार’ बताया था और विश्व समुदाय से रोहिंग्या मुसलमानों की मदद की अपील की थी। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने इस मामले का अध्ययन किया था और म्यांमार सरकार व सेना की तीखी आलोचना की थी। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ क्राइम ने इसे युद्ध अपराध माना। आंग सान सू ची ने तमाम आरोपों को सिरे से ख़ारिज़ करते हुए पूरे मामले को ही झूठा प्रचार क़रार दिया था और कहा था कि उनकी सेना आतंकवाद से जूझ रही है।निराश है विश्व समुदाय
विश्व समुदाय इस पर दुखी और चकित है। आख़िर क्या वजह है कि वे ऐसा कह और कर रही हैं। वे खुद तीन साल की थीं जब सेना ने 19 जुलाई 1947 को विद्रोह कर उनके पिता और लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमंत्री आंग सान को मौत के घाट उतार कर सत्ता हथिया ली थी। विदेशों में पढ़ कर जब वापस अपने देश गईं तो पाया कि सेना की तानाशाही बरक़रार है। उन्होंने चुनावों की मांग की तो 15 साल जेल में रहीं। उनके देश पर सेना का शासन 50 साल से अधिक समय तक रहा।सेना की पकड़ मज़बूत
कुछ लोगों का कहना है कि एक वजह म्यांमार का 2008 का संविधान हो सकता है, जिसमें सेना की ओर से नामित तीन चौथाई लोग संसद में होंगे। कोई भी संविधान संशोधन दो तिहाई बहुमत के बिना पारित नहीं हो सकता। हालत यह है कि ज़बरदस्त बहुमत के बावजूद सत्ताधारी दल नेशनल लीग ऑफ़ डिमोक्रसी (एनएलडी) संविधान संशोधन नहीं कर सकता न ही महत्वपूर्ण निर्णय ले सकता है।सेना का तख़्तापलट मुमकिन?
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यदि सत्ता संतुलन थोड़ा भी बिगड़ा तो सेना एक बार फिर विद्रोह कर सत्ता अपने हाथ में ले सकती है। सू ची इससे बचना चाहती है, मजबूर हैं और सेना के साथ नहीं चलीं तो एक बार फिर मुसीबतों का पहाड़ उन पर और देश पर टूटेगा।क्या यह पूरा सच है? सू ची के विरोधी इससे सहमत नहीं हैं।सेना से मधुर रिश्ते
बीते दिनों सिंगापुर में एक कार्यक्रम में भाग लेते हुए म्यांमार की सलाहकार ने कहा कि सेना के साथ उनके ‘मधुर रिश्ते हैं’। उन्होंने याद दिलाया कि उनकी सरकार में तीन ऐसे मंत्री हैं जो सेना से आए हैं। उनके शब्दों में सेना को लोग बड़े ही ‘प्यारे’ (‘स्वीट’) हैं। उन्होंने इस बैठक में भी दिए गए अपने भाषण में रोहिंग्या मुद्दे के लिए आतंकवाद को ज़िम्मेदार ठहराया।
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यदि सत्ता संतुलन थोड़ा भी बिगड़ा तो सेना एक बार फिर विद्रोह कर सत्ता अपने हाथ में ले सकती है। सू ची इससे बचना चाहती है, मजबूर हैं और सेना के साथ नहीं चलीं तो एक बार फिर मुसीबतों का पहाड़ उन पर और देश पर टूटेगा।
अहम अोहदों पर सेना के लोग
यह भी सच है कि स्वयं आंग सान सू ची को सलाह देने वालों और उनके साथ काम करने वालों में उन राजनयिकों की टोली शामिल है, जो कभी सैनिक शासन के साथ थे और हर तरह की ज़्यादतियों में सहभागी थे। उन्हीं में से हैं क्यॉ तेन्त श्वे। मौजूदा सरकार ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र में अपना पक्ष रखने के लिए भेजा।इसी तरह कोबसाक चुटीकुल को सू ची ने उस कमिटी का प्रमुख बनाया, जिसे रोहिंग्या समस्या से निपटने की ज़िम्मेदारी दी थी। सैनिक तानाशाह थन श्वे के शासन काल में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों में से ज़्यादातर लोगों को मौजूदा सरकार में भी अहम अोहदे मिले हुए हैं।दुनिया को चिन्ता
विश्व समुदाय की यही चिन्ता है कि शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़ी गई इस महिला को क्या हो गया है। वे उनसे निराश भी हैं। जिस समय रोहिंग्या मुसलमानों पर सेना कार्रवाई कर रही थी, नोबेल पुरस्कार पाए दस से अधिक लोगों ने एक बयान जारी कर सू ची की निंदा की थी और उन्हें हस्तक्षेप करने को कहा था। इसमें दक्षिण अफ्रीका के विशप डेसमंड टुटू और पाकिस्तान की मलाला युसुफज़ई भी थीं।
लोगों को नाराज़गी और निराशा का आलम यह है कि कुछ लोगों ने उनसे शांति का नोबेल पुरस्कार वापस लेने की मांग तक कर दी है। लेकिन नोबेल पुरस्कार समिति के नियम इसकी इजाज़त नहीं देते।
नॉर्वेजियन नोबेल कमिटी के सचिव ओलाव नोएलस्टाड ने कहा, ‘आंग सान सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार 1991 तक लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने के कारण दिया गया था।’ कमिटी के प्रमुख बेरित रेस एंडरसन ने पिछले साल ही कह दिया था, ‘हम ऐसा नहीं करते। यह हमारा काम नहीं है कि हम पुरस्कार पाने वालों पर नज़र रखें या उनकी निगरानी करते रहें कि वे पुरस्कार पाने के बाद क्या करते हैं।’
वे इस्तीफ़ा तो दे ही सकती हैं?
लेकिन विश्व समुदाय लोकतंत्र की इस देवी से बेहद नाराज़ है। इसे संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के प्रमुख ज़ैद रआद अल हुसैन की बात से समझा जा सकता है। उन्होंंने कहा, ‘वे इस्तीफ़ा तो दे ही सकती हैं।’लेकिन सू ची इस्तीफ़ा नहीं दे रही हैं। वे इसके उलट अपनी सरकार और सेना का बचाव कर रही हैं। लोग इतने हताश हैं कि उनसे पुरस्कार वापस लिए जा रहे हैं, विश्वविद्यालय उन्हें दी गई मानद डिग्री उनसे छीन रहे हैं, मानद नागरिकता वापस ली जा रही है, नोबेल पुरस्कार छीनने की बात हो रही है। पर आंग सान की बेटी अपनी जगह क़ायम है।