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मिथक को इतिहास बताने के पीछे क्या है संघ की मंशा, बता रही हैं रोमिला थापर

मिथक को इतिहास बताने के पीछे क्या है संघ की मंशा, बता रही हैं रोमिला थापर

मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर का मानना है कि हिन्दुत्ववादियों ने इतिहास की जानबूझ कर गलत व्याख्या की ताकि वे अपने मौजूदा कामकाज को उचित ठहरा सकें। 

नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी के 2014 का चुनाव जीतने के बाद भारतीय इतिहास को फिर से लिखने की कोशिशें एक बार फिर शुरु हुईं ताकि हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत को वैध ठहराया जा सके। ये कोशिशें उसी समय शुरू हो गई थीं, जब बीजेपी ने 1999 से 2004 के बीच पहली बार देश पर शासन किया था। 

मोदी की अगुआई वाली सरकार और उनकी पार्टी की अगुआई में चलने वाली कई राज्य सरकारों ने इतिहास को बदलने की कोशिशें कई रूप में की हैं। मसलन, सरकारी स्कूल के पाठ्यक्रम से उन अध्यायों को हटा देना जो बीजेपी की विचारधारा का विरोध करता है, और उन अध्यायों को शामिल करना जो अतीत की उनके हिसाब से की गई व्याख्या को सही ठहराता है। 

मीडिया की भूमिका!

उन्होंने बिना रीढ़ की मीडिया के ज़रिए मिथकों और सुनी-सुनाई रूढ़िवादी बातों का प्रचार किया है। और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्कूलों में इतिहास के इस रूप को पढ़ाते रहे हैं। आरएसएस मोदी की पार्टी की पितृ संस्थान है और मोदी ने इसमें कार्यकर्ता के रूप में कई साल तक काम किया है। कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष उपनिवेशवादविरोधी राष्ट्रवाद का मुख्य संगठन रहा है, जिसकी अगुआई मोहनदस कर्मचंद गाँधी और जवाहरलाल नेहरू ने की थी। उन्होंने हर नागरिक को राष्ट्र निर्माण में बराबहर का हिस्सेदार मान कर आज़ादी हासिल की थी। 

हिन्दू राष्ट्रवाद, मुसलिम राष्ट्रवाद

कांग्रेस की अवधारण को  पहली बार 1920 में दो विशेष और उस समय तक छोटे किस्म के राष्ट्रवाद से चुनौती मिली थी। एक थी मुसलिम लीग, जिसकी स्थापना मुसलमान ज़मींदारों और पढ़े लिखे मुस्लिम मध्य वर्ग ने की थी और जो मुसलिम राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती थी। दूसरी थी हिन्दू महासभा जिसकी स्थापना ऊँची जातियों के मध्यवर्ग के हिन्दुओं ने की थी और जो इस बात पर ज़ोर देती थी कि वह हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह बाद में रूप बदल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस में तब्दील हो गया। मुसलिम लीग ने पाकिस्तान बनाने की माँग की और 1947 में पाकिस्तान बन गया। 

आरएसएस और उससे जुड़े दूसरे लोग अब भी भारत को धर्मनिरपेक्ष से हिन्दू धार्मिक राष्ट्र बनने का इंतजार कर रहे हैं। उनकी विचारधारा 'हिन्दू बहुलवाद' के सिद्धांत को उचित ठहराती है।

'पितृ भूमि', 'पुण्य भूमि'

हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए लोकतंत्र की जगह ऐसा राज्य होना चाहिए जिसमें बहुमत में होने के कारण हिन्दुओं को प्राथमिकता मिले। हिन्दुत्व की परिभाषा में हिन्दू वह है जिसके पुरखों का घर यानी 'पितृ भूमि' और उनके तीर्थ स्थल यानी 'पुण्य भूमि' ही ब्रिटिश इंडिया की सीमा के अंदर हो।यह हिन्दुओं को उन लोगों से बिल्कुल अलग करता है जो कहीं और से आए हैं और जो दूसरे धर्मों को मानने वाले हैं, इसलिए ईसाई, मुसलमान और पारसी विदेशी हैं। 

आर्य श्रेष्ठता

हिन्दुओं की उत्पत्ति आर्य संस्कृति में ढूंढी जा सकती है। आर्यों की पहचान एक अलग भाषा और संस्कृत के रूप में है, जैविक नस्ल के रूप में नहीं और इतिहासकार मानते हैं कि इनकी उत्पत्ति दो हज़ार साल पहले खोजी जा सकती है । लेकिन इतिहास की हिन्दुत्व व्याख्या करने वाले आर्यो की उत्पत्ति को सिन्धु घाटी सभ्यता से भी जोड़ देते है। हकीकत यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता बहुत ही परिष्कृत शहरी सभ्यता थी जो आर्यों के आने से एक हज़ार साल पहले थी। 

आर्य' शब्द का मतलब है “जिनका सम्मान किया जाता है।” यदि हिन्दू आर्य मूल के हैं तो उन्हें लगता है कि वे दूसरों से श्रेष्ठ हैं। यह सिर्फ़ 19वी सदी में यूरोप में आर्यवाद को लेकर मोह ही नहीं दिखाता है, वरन 1930 के दशक के आरएसएस के संस्थापकों पर जर्मन और इतालवी फासीवाद की छाप भी दिखती है। ये असर आरएसएस के लेखन में भी देखने को मिलता है। 

इतिहासकार पहली और दूसरी सहस्राब्दियों में अलग-अलग समुदायों और संस्कृतियों के बीच मेलजोल की तलाश करते हैं, हिन्दुत्व के सिद्धांतकार अकेली आर्य संस्कृति पर ज़ोर देते हैं जो हिन्दुओं के पूर्वज थे और जिन्होंने उपमहाद्वीप की दूसरी तमाम संस्कृतियों को अपने में समाहित कर लिया।

मिश्रित जनसंख्या

पुरातत्व से जुड़ी जगहों से इकट्ठा किए आनुवंशिक तथ्यों के अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी भारत में किसी समय मिश्रित जनसंख्या थी, जिनमें ईरानी और मध्य एशियाई मूल के लोग भी थे। इतिहासकार इसे लोगों के भारत प्रवास का सबूत मानते हैं, पर हिन्दुत्व की अवधारणा को यह मंजूर नहीं है।इसलाम से पहले का भारतीय इतिहास स्वर्णकाल था, इस पर ज़ोर देने के लिए यह कहा जाता है कि ईसा से 1000 से लेकर 1200 शताब्दी का समय हिन्दू काल था जो वैज्ञानिक रूप से इतना विकसित था कि उस समय हवाई जहाज़, प्लास्टिक सर्जरी और स्टेम सेल पर शोध जैसी चीजें भी थीं। इन बयानों को देवताओं के क्रियाकलापों और अतीत के लोगों से जोड़ दिया गया। 

पुरातत्व से जुड़ी जगहों से इकट्ठा किए आनुवंशिक तथ्यों के अध्ययन से पता चलता है कि उत्तरी भारत में किसी समय मिश्रित जनसंख्या थी, जिनमें ईरानी और मध्य एशियाई मूल के लोग भी थे। इतिहासकार इसे लोगों के भारत प्रवास का सबूत मानते हैं, पर हिन्दूत्व की अवधारणा को यह मंजूर नहीं है। 

इसलाम से पहले का भारतीय इतिहास स्वर्णकाल था, इस पर ज़ोर देने के लिए यह कहा जाता है कि ईसा से 1000 से लेकर 1200 शताब्दी का समय हिन्दू काल था जो वैज्ञानिक रूप से इतना विकसित था कि उस समय हवाई जहाज़, प्लास्टिक सर्जरी और स्टेम सेल पर शोध जैसी चीजें भी थीं। इन बयानों को देवताओं के क्रियाकलापों और अतीत के लोगों से जोड़ दिया गया।

हिन्दुत्व तर्क का दूसरा पहलू यह है कि एक हज़ार साल के मुसलिम शासनकाल में हिंदुओं को सताया गया, उन्हें ग़ुलाम बना कर रखा गया था। हिन्दू राष्ट्र यानी हिन्दू राज्य की स्थापना की अवधारणा के पीछे बदले की भावना है। दूसरी सहस्राब्दि के मुसलिम काल को सिर्फ़ इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है और इसका इस्तेमाल नफ़रत फैलाने के लिए किया जाता है। 

सताए गए हिन्दू!

इतिहासकार हिंदुत्ववादियों की इतिहास की इस अवधारणा से सहमत नहीं है। उन्हे इस तरह के सामान्यीकरण का कोई सबूत नहीं मिलता है। लेकिन उनके विचारों को नहीं माना जाता। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच निश्चित रूप से टकराव रहा है। ठीक वैसा ही जैसा पहले हिन्दुओं और बौद्धों की बीच रहा है। कुछ ताक़तवर मुसलमानों ने हिन्दू मंदिरों पर हमले किए हैं, उन्होंने ऐसा उनकी संपदा को लूटने के लिए भी किया और धर्म पर आक्रमण करने के लिए भी किया। पर इसलाम के पहले भी कुछ हिन्दू राजाओं ने लूटने के मक़सद से मंदिरों पर हमला किया था और उन्हें नष्ट कर दिया था। इस तरह की कार्रवाइयों में धार्मिक पूर्वग्रह ही नहीं था। 

सताए जाने का दावा विंडबनापूर्ण इसलिए है कि निचली जातियों के लोगों को इतना अपवित्र क़रार दिया गया कि उन्हें अछूत बना दिया गया, यह उच्च जातियों के हिन्दुओं ने 2000 साल तक किया और उस दौरान भी किया जिसके बारे में इनका दावा है कि वे सताए गए थे। 

आज के भारत में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो उपनिवेशवाद के विरोध के प्रतीक थे और जिन्होंने धर्म निरपेक्षता को भारतीय समाज का मिल माना था,  उन पर हमला दरअसल, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर हमला है। नेहरू के प्रति दुराग्रह और उनकी उपलब्धियों को कम करने की कोशिश इसलिए भी की जा रही है कि आरएसएस भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का हिस्सा नहीं था। 

इतिहास की हिन्दू व्याख्या को स्थापित करने का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि “हिन्दू बहुलवाद” को स्थापित करने के लिए पेशेवर इतिहास और उनकी व्याख्या वाले इतिहास के बीच की खाई बढ़ाई जा रही है। इस प्रयास को सरकार का समर्थन हासिल है, इसे पैसे मिल रहे हैं, और इसे कई तरह से लोकप्रिय बनाया जा रहा है। हिन्दुत्व वाले इतिहास की आलोचना करने वालों को देशद्रोही साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं और इतिहास के शोध को ध्वस्त किया जा रहा है।

('न्यूयॉर्क टाइम्स' से साभार)

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