मोदी सरकार किसके दबाव में बेच रही है एलआईसी की हिस्सेदारी?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी बीमा कंपनी जीवन बीमा निगम की हिस्सेदारी का बड़ा भाग बेचने का एलान कर सबको चौंका दिया है। उनकी इस घोषणा से कई सवाल खड़े हो गए हैं।
क्या मोदी सरकार आर्थिक सुधार के अगले चरण की शुरुआत कर रही है और इसके तहत वित्तीय क्षेत्र से अपने हाथ खींच रही है या केंद्र सरकार के पास पैसे नहीं हैं, राजकोषीय घाटा तमाम अनुमानों से कहीं ज़्यादा 3.80 प्रतिशत पँहुच रहा है और ऐसे में पैसे का जुगाड़ करने के लिए वह यह कदम उठा रही है
लेकिन इसके अलावा एक सवाल और है और अधिक महत्वपूर्ण है कि क्या सरकार अमेरिकी दबाव में आकर भारत के वित्तीय क्षेत्र को पहले से ज़्यादा उदार बना रही है
कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ का हिस्सा हो और सरकार के नज़दीक के कुछ व्यावसायिक घरानों को लाभ पहुँचाने के लिए ऐसा किया जा रहा है
सरकार को मिलेंगे 2 लाख करोड़
केंद्र सरकार ने साल 2020 में सार्वजनिक कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच कर 1.05 लाख करोड़ रुपए उगाहने का लक्ष्य तय कर रखा है। सरकार अब तक 18,094.59 करोड़ रुपए की जायदाद बेच चुकी है। वित्त मंत्री ने एलान किया कि सरकार इसके लिए आईपीओ यानी इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग बाज़ार में लाएगी, यानी अपने शेयर खुले बाज़ार में बेचेगी और कोई भी आवेदन कर शेयर खरीद सकता है।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018 में कहा था कि जीवन बीमा निगम की कुल परिसंपत्ति लगभग 22.10 लाख करोड़ रुपए है। यह उस साल के सकल घरेलू उत्पाद का 15 प्रतिशत था। बीते साल एलआईसी को 40,000 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफ़ा हुआ।
ये पैसे सरकार को लाभांश के रूप में मिले। रिज़र्व बैंक के बाद सरकार को सबसे ज़्यादा लाभांश एलआईसी से ही मिला। आरबीआई ने सरकार को 66,000 करोड़ रुपए का लाभांश दिया था।
यदि जीवन बीमा निगम की कुल परिसंपत्ति 22.10 लाख करोड़ रुपए भी मान ली जाए और सरकार अगर उसका 10 प्रतिशत भी बेच दे, तो उसे 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक मिल जाएंगे। यह सरकार के कुल लक्ष्य से ज़्यादा है।
भारत-अमेरिका रिश्तों की उलझनें
दूसरी अहम बात है कि अमेरिका-भारत व्यापार रिश्ते बुरे दौर से गुजर रहे हैं। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति पर चलते हुए भारत को जनरलाइज़्ड सिस्टम ऑफ़ प्रीफरेंसेज़ से बाहर कर दिया, यानी भारत के आयात को मिलने वाली करों में छूट ख़त्म कर दी गई। भारत ने इस पर पलटवार करते हुए कुछ अमेरिकी उत्पादों के आयात पर अतिरिक्त शुल्क लगा दिया।दोनों देशों के राजनयिकों ने रिश्ते ठीक करने की कोशिशें शुरू कीं और एक दूसरे की संवेदनाओं का ख्याल रखने को कहा। अमेरिका ने कई बार खुले आम कहा है कि भारत वित्तीय क्षेत्र को और उदार बनाए।
अमेरिका चाहता है, भारत वित्तीय क्षेत्र में सरकारी कंपनियों से निकले, निजी क्षेत्रों को मौका दे। ऐसा हुआ तो अमेरिकी कंपनियाँ सीधे या भारत की किसी कंपनी के साथ मिल कर कुछ हिस्सा खरीद लें और यहाँ व्यवसाय करे।
जीवन बीमा निगम पर सबकी निगाहें हैं। इतना बड़ा बाज़ार और इतनी बड़ी परिसंपत्ति दुनिया की गिनी-चुनी बीमा कंपनियों के पास ही है। यह मुमकिन है कि नई दिल्ली अमेरिका के दबाव में हो।
सुधार की प्रक्रिया
नरसिंह राव के जमाने में जब आर्थिक सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई तो उस समय भी बीजेपी ने उसका विरोध नहीं किया था। दोनों में तुलना की जाए तो बीजेपी की आर्थिक नीतियाँ कांग्रेस से अधिक उदारवादी रही हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि वह इस सुधार को और आगे ले जाए।
मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में राजनीतिक कारणों से सुधार प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया। पर अब जब वह मजबूत स्थिति है, लोकसभा में उसके ख़ुद के पास 300 से अधिक सीटें हैं, अधिकतर राज्यों में उसकी सरकार है, वह इस तरह का जोखिम उठा सकती है।
सरकार 10 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचेगी, तो उसका बड़ा हिस्सा रिलायंस और अडाणी जैसे समूह ख़रीद सकते हैं। इस तरह ये कंपनियाँ वित्तीय क्षेत्र में आ सकती हैं। तो क्या इन कंपनियों को ध्यान में रखा गया है, सवाल यह भी है।
वित्तीय क्षेत्र के सुधार की बात अहम इसलिए भी है कि सरकार ने पहले ही बैंकों को विलय करा कर बड़े बैंक बना दिए हैं। यह बैंकों का कॉनसोलिडेशन है। इस तरह वित्तीय क्षेत्र में बैंक कॉनसोलिडेशन के बाद बीमा क्षेत्र को उदार बनाया जाए और सरकार अपने हाथ खींच ले, यह अगला स्वाभाविक कदम माना जा सकता है।
फिर वही सवाल उठता है कि क्या यह फ़ैसला किसी दवाब के तहत लिया जा रहा है, ‘क्रोनी कैपिटलिज़म’ के तहत हो रहा है या बस पैसे का जुगाड़ करने के लिए हो रहा है।