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आधार-वोटर कार्ड लिंक करने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती क्यों, मंडे को सुनवाई

आधार-वोटर कार्ड लिंक करने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती क्यों, मंडे को सुनवाई

आधार कार्ड को मतदाता पहचान पत्र के साथ लिंक करने के कानून पर तमाम नागरिक संगठन आपत्तियां कर रहे हैं, इसके बावजूद सरकार अपना स्टैंड बदलने को तैयार नहीं। आखिर ये संगठन क्यों विरोध कर रहे हैं, कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने इसे सुप्रीम कोर्ट में क्यों चुनौती दी है। जानिए तमाम तथ्य।

आधार और मतदाता पहचान पत्र को लिंक करने वाले विवादास्पद कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। कांग्रेस के रणदीप सिंह सुरजेवाला ने इसे रद्द करने की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट सोमवार को मामले की सुनवाई करेगा।

याचिका में सुरजेवाला ने इस कानून को असंवैधानिक और निजता के अधिकार (राइट टु प्राइवेसी) और समानता (इक्वैलिटी) के अधिकार का उल्लंघन बताया है।

मोदी सरकार ने पिछले साल बहुत जल्दबाजी में इस कानून को पास कराया था। हालांकि उस समय भी विपक्ष ने सदन में इसका पुरजोर विरोध किया था लेकिन सरकार ने संख्या बल के दम पर इस कानून को पास करा लिया था।

मोदी सरकार ने पिछले साल बहुत जल्दबाजी में इस कानून को पास कराया था। हालांकि उस समय भी विपक्ष ने सदन में इसका पुरजोर विरोध किया था लेकिन सरकार ने संख्या बल के दम पर इस कानून को पास करा लिया था।

क्यों हो रहा विरोध

देश के तमाम आधार कार्यकर्ता और नागरिक संगठन सरकार के इस कानून के खिलाफ हैं। उन्होंने इस कदम के बारे में खतरे की घंटी बजाई है। उनका कहना है कि इससे तमाम नाम मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं और सरकार डेटा की गोपनीयता से समझौता कर सकती है। यानी जनता का डेटा गोपनीय नहीं रह जाएगा। हालांकि जनता का डेटा पहले ही सरकार की कमियों और लापरवाही की वजह से तमाम अवांछित लोगों तक पहुंच चुका है।

आधार को मतदाता पहचान पत्र से लिंक करने का जोर कोई नई बात नहीं है। चुनाव आयोग ने 2015 से ही दोनों को लिंक करना शुरू कर दिया था। हालांकि आधार की संवैधानिकता के एक मामले के तहत सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी, लेकिन तब तक चुनाव आयोग ने लगभग 30 करोड़ आईडी को लिंक करने की प्रक्रिया पूरी कर ली थी।

2015 में, जब चुनाव आयोग ने आधार को मतदाता पहचान पत्र सूची से जोड़ा, तो दो राज्यों, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के मतदाता डेटाबेस से लगभग 55 लाख नाम हटा दिए गए थे। यहां यह बताना जरूरी है कि 2014 में बीजेपी सरकार केंद्र की सत्ता में आई तो उसने चुनाव आयोग से इस पर काम करने को कहा था। तब तक कानून भी नहीं बना था। चुनाव आयोग में गुजरात काडर के अधिकारी आए। आयोग ने 2015 से इस पर काम शुरू कर दिया था जबकि मोदी सरकार ने कानून 2021 में बनाया।

सरकार के इस कानून को लेकर गोपनीयता और मतदाताओं के नाम में हेराफेरी की आशंका ज्यादा शामिल है। क्योंकि आधार से जुड़ा बड़ी संख्या में व्यक्तिगत डेटा अब चुनाव आयोग के मतदाता डेटाबेस से जुड़ा होगा।

अगस्त 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने आधार की संवैधानिकता पर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, सार्वजनिक वितरण योजना, खाना पकाने के तेल और एलपीजी वितरण योजना के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिए आधार के उपयोग पर रोक लगाने वाला एक अंतरिम आदेश पारित किया था। लेकिन स्क्रॉल.इन की जांच के मुताबिक इस तीन महीने की अवधि के दौरान लगभग 30 करोड़ मतदाता पहचान पत्रों को आधार से जोड़े जाने की खबरें थीं।

इस जुड़ाव का असर तीन साल बाद 2018 में तेलंगाना में हुए विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। मतदान के दिन लाखों मतदाताओं ने अपना नाम मतदाता सूची से गायब पाया। विपक्ष के मुताबिक राज्य में 27 लाख वोटरों के नाम काटे जा चुके हैं। हटाए गए नामों के कुछ अनुमान 30 लाख तक गए। ये मतदाता आधार का लगभग 10% है।

यहां तक ​​कि आंध्र प्रदेश में भी 3.71 करोड़ मतदाताओं के कुल मतदाता आधार में से लगभग 20 लाख मतदाताओं का नाम गायब पाया गया। हालांकि इस कमी की वजह को ढेरों तर्कों के जरिए काउंटर किया गया।  

हालांकि, मीडिया जांच में इन दावों का विश्लेषण किया गया और पाया गया ये गड़बड़ी बड़े पैमाने पर आधार और वोटर आईडी डेटाबेस को जोड़ने के कारण हुई। 2018 में, तेलंगाना के एक पूर्व मुख्य चुनाव अधिकारी रजत कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि एक नया सॉफ्टवेयर जो दो डेटाबेस को जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया गया था, इस गड़बड़ी में शामिल था। सूचना के अधिकार की रिपोर्ट से पता चला कि जिन मतदाताओं के नाम हटाए जाने थे, उनका घर-घर जाकर सत्यापन तक नहीं किया गया था।

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