कौन बनेगा देश का अगला प्रधानमंत्री?
भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं है। मोदी सरकार के मंत्री नितिन गडकरी के चुनाव के पहले के कुछ बयानों से ऐसा लगा था कि वह पार्टी में विकल्प बनने की तैयारी कर रहे हैं। माना जाता है कि गडकरी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के काफ़ी क़रीब हैं। इसलिए 2019 के चुनावों के बाद अगर बीजेपी को नया नेता चुनने की स्थिति आती है तो उसमें सबसे ऊपर नितिन गडकरी का नाम होगा। यह अनुमान इस आधार पर लगाया जा रहा है कि चुनाव के बाद एनडीए और बीजेपी की सीटें काफ़ी घट जाएँगी। चुनाव पूर्व के कुछ अनुमान बताते हैं कि एनडीए कुल मिलाकर 200 से 250 सीटों तक सिमट सकता है। इसमें सबसे ज़्यादा नुक़सान बीजेपी को होने की बात की जा रही है। 2014 के चुनावों में अकेले बीजेपी को 282 सीटें मिली थीं। इस बार बीजेपी को 80 से लेकर 100 सीटों के नुक़सान होने की आशंका जतायी जा रही है। एनडीए के बाक़ी दलों को भी महज 40 से 50 सीटें मिलने का अनुमान है।
ज़ाहिर है ऐसी स्थिति में एनडीए को सरकार बनाने के लिए और सहयोगियों की ज़रूरत पड़ सकती है। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि चुनाव के बाद कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ बीजेपी से सहयोग करने के लिए तैयार भी हो जाएँ तो भी वे मोदी जैसे दबंग नेता को स्वीकार नहीं करेंगी। ऐसी स्थिति में बीजेपी में किसी और नेता की तलाश की जा सकती है। अपने खुले स्वभाव के कारण नितिन गडकरी कई विपक्षी पार्टियों में भी लोकप्रिय हैं। और इसलिए मोदी के विकल्प के रूप में गडकरी का नाम सबसे पहले आता है।
बीजेपी के भीतर गडकरी के सामने एक बड़ी चुनौती गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी हैं। राजनाथ सिंह मोदी-शाह की जोड़ी के सबसे क़रीबी नेताओं में शुमार किए जाते हैं।
असल में राजनाथ सिंह ने 2014 के चुनावों के पहले मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने में मदद की थी। 2013 में राजनाथ सिंह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं को किनारे करके मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का रास्ता साफ़ किया। राजनाथ सिंह की पहल पर ही अमित शाह को 2014 के चुनावों के पहले पार्टी का चुनाव प्रभारी बनाया गया। राजनाथ सिंह को मोदी सरकार में मंत्री बनाए जाने के बाद अमित शाह पार्टी के अध्यक्ष बने।
राजनाथ और मोदी के बीच कोई बड़ा विवाद कभी सामने नहीं आया। बीजेपी के अंदरुनी सूत्रों का मानना है कि मोदी के प्रधानमंत्री नहीं बन पाने की स्थिति में मोदी-शाह की जोड़ी राजनाथ का समर्थन कर सकती है। नरम स्वभाव के कारण राजनाथ एनडीए की बाक़ी पार्टियों और कुछ क्षेत्रीय नेताओं की पसंद हो सकते हैं।
बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक धड़े के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी ख़ासा लोकप्रिय हैं। लेकिन योगी कट्टर और उग्र हिंदुत्व के समर्थक हैं। और 2019 के चुनावों में हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा भी अगर बीजेपी को बहुमत तक नहीं ला पाता है तो योगी का प्रधानमंत्री बनना असंभव हो सकता है।
किसका साथ देंगे क्षेत्रीय दल
माना जा रहा है कि मोदी की जगह किसी अन्य को प्रधानमंत्री बनाने की स्थिति में गडकरी और राजनाथ को नवीन पटनायक के बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के के. चंद्रशेखर राव का समर्थन मिल सकता है। 2014 के चुनावों में मोदी लहर के बावजूद इन पार्टियों ने अपने राज्यों में शानदार प्रदर्शन किया था और कुल 81 सीटें इन्हें मिली थीं। इनमें आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी को छोड़ कर बाक़ी की स्थिति अपने राज्य में मज़बूत दिखायी दे रही है। एक बड़े राजनीतिक दाँव के तौर पर बीजेपी अपने सहयोगी दलों में से किसी एक को प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा दे सकती है। इनमें राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के राम विलास पासवान का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। पासवान दलित तो हैं ही उन्हें किसी भी गठबंधन में घुलमिल जानें में माहिर माना जाता है।
एक समय पर विपक्षी पार्टियाँ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अगले प्रधानमंत्री के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही थीं। तभी अचानक नीतीश अपना पाला बदल कर बीजेपी के साथ हो गए और राष्ट्रीय जनता दल को धता बता दिया। बीजेपी गठबंधन उन्हें आगे करे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
राहुल की राह आसान नहीं
देश की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी पहले ही संकेत दे चुके हैं कि वह प्रधानमंत्री बन सकते हैं। लेकिन उनकी राह आसान नहीं है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद राजनीति में राहुल गाँधी का कद बढ़ा है। उनके भीतर राजनीतिक परिपक्वता भी दिखायी दे रही है। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क्या कांग्रेस इतनी सीटें ला पाएगी कि राहुल प्रधानमंत्री बनने का दाँव खेल सकें। अब तक के राजनीतिक घटनाक्रम बताते हैं कि किसी एक पार्टी के बहुत मज़बूत स्थिति में नहीं होने पर साझा सरकारें लंबा चल सकती हैं। इसके पहले एच.डी. देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर साझा सरकारों में प्रधानमंत्री बन तो गए लेकिन उनकी सरकार बहुत कम दिनों तक चल पायी। यहाँ तक कि 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की खिचड़ी सरकार भी नहीं चली। 1999 में जब बीजेपी एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरी तब जाकर वाजपेयी की सरकार पाँच सालों तक टिक पायी।
साझा सरकार लंबे समय तक चलाने का सबसे अच्छा अनुभव कांग्रेस के पास है। 1992 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तब कांग्रेस के पास बहुमत नहीं था, लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी और मज़बूत पार्टी थी। 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह की सरकार के समय भी कांग्रेस के पास अकेले दम पर बहुमत नहीं था, लेकिन वह सबसे बड़ी पार्टी थी। 2014 के चुनावों में कांग्रेस महज 44 सीटों पर सिमट गयी थी। इस बार बहुत उदार अनुमान के हिसाब से भी कांग्रेस को 100 से लेकर 140 सीटें मिलने के संकेत मिल रहे हैं। ऐसी स्थिति में राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बनने का ख़तरा मोल लेंगे, इसकी उम्मीद कम ही है। राहुल के लिए प्रधानमंत्री बनना तभी सुरक्षित हो सकता है जब कांग्रेस को 2009 की तरह 200 के आसपास सीटें मिलें। फ़िलहाल इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं।
क्या चाहते हैं क्षेत्रीय दलों के नेता
लोकसभा चुनावों का बिगुल बजने से पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने राज्यों के क्षत्रपों को मिलाकर एक ऐसा गठबंधन बनाने की कोशिश की थी जिसमें राज्य स्तर पर पार्टियाँ अपनी तरह से काम करती रहें, लेकिन केंद्र की राजनीति में वे एक गुट के रूप में काम करें। इस सिलसिले में उन्होंने बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, बीजू जनता दल के नेता और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक आदि से मुलाक़ात की थी। उस समय इस पहल को कोई ख़ास समर्थन नहीं मिला। लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद इन नेताओं की भूमिका अगले प्रधानमंत्री के चुनाव में बढ़ सकती है। अब तक के चुनाव अनुमानों के अनुसार इनकी पार्टियों की स्थिति अच्छी रहने की बात कही जा रही है। क्षेत्रीय पार्टियाँ अगर अच्छी स्थिति में आती हैं तो बंगाल से ममता बनर्जी और उत्तर प्रदेश से मायावती प्रधानमंत्री पद की दावेदार हो सकती हैं। दोनों प्रधानमंत्री बनने की इच्छुक हैं और किसी न किसी रूप में अपनी इच्छा जता चुकी हैं।
दक्षिण से के. चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू भी गठबंधन की पसंद हो सकते हैं। कांग्रेस और जेडीएस में गठबंधन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा फिर से महत्वपूर्ण बन गए हैं। देवेगौड़ा लोकसभा का चुनाव भी लड़ रहे हैं। उनके पास एक बार प्रधानमंत्री होने का अनुभव भी है और कांग्रेस मजबूरी में उन्हें समर्थन भी दे सकती है।
एक बात तय है कि बीजेपी को इस बार सबसे बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दलों से ही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सामने सपा-बसपा गठबंधन है। बिहार में बीजेपी का रथ रोकने की तैयारी महागठबंधन कर रहा है जिसका नेतृत्व लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव कर रहे हैं। तमिलनाडु में पिछली बार की विजेता एआईएडीएमके को डीएमके चुनौती दे रही है। जयललिता और करुणानिधि की अनुपस्थिति में हो रहे चुनाव में डीएमके बाजी मारती है तो उसके नेता स्टालिन भी प्रधानमंत्री चुनने की भूमिका में महत्वपूर्ण हो सकते हैं।