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जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग होेने से किसे होगा फ़ायदा?

जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग होेने से किसे होगा फ़ायदा?

जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग किए जाने के बाद वहां राजनीतिक उठापटक पहले से भी तेज़ हो गयी है। पर इसका सीधा और सबसे अधिक लाभ किसे मिलेगा?

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने बुधवार को राज्य विधानसभा भंग कर दी। इसके सथ ही वहां नये विधानसभा चुनाव का रास्ता भी साफ़ हो गया। पर सवाल यह है कि इसका फ़ायदा किसे मिलेगा और किन हालात  में राज्यपाल ने यह अहम फ़ैसला लिया। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती ने राज्यपाल के निर्णय पर तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा, 'केंद्र ने हमारा जनादेश चुरा लिया। ' उन्होंने यह भी कहा कि 'राज्य विभानसभा में बहुमत के लिए 44 सीटें ज़रूरी है और उनके साथ 56 विधायक हैं। ऐसे में कोई कैसे विधानसभा भंग कर सकता है।' यह भी पढ़ें : प्रतिस्पर्धी दलों की सरकारें क्या पहले नहीं बनीं?इसके उलट पर्यवेक्षकों का मानना  है कि इस  निर्णय से महबूबा मुफ़्ती ने राहत की सांस ली होगी। जिन स्थितियों में राज्य है, वैसे में मुख्यमंत्री चुनना और सरकार चलाना बेहद मुश्किल होगा। यह बात पीडीपी ही नहीं, बीजेपी और दूसरे दलों पर भी लागू होती है। पीडीपी में बग़ावत के सुर उठने लगे थे। यही हाल दूसरे दलों का भी है। बग़ावत कर नेताओं के पार्टी छोड़ना सभी के लिए मुश्किल होता । विधानसभा भंग होने से अब सारे लोग 'देखो और इंतज़ार करो' की नीति पर ही चलेंगे, इस समय कोई पार्टी छोड़ने का जोख़िम नहीं उठायेगा। केंद्र सरकार ने बहुत ही सोच समझ कर सज्जाद ग़नी लोन को सामने लाने का फ़ैसला किया था। लेकिन अब बदली हुई स्थिति  में वे कुछ ज़्यादा करने की स्थिति में नहीं हैं। लिहाज़ा, वे आगे क्या करेंगे, इसका फ़ैसला उन्हें करना होगा। इसके पहले भी पीडीपी में विद्रोह की सुगबुगाहट चल रही थी। पूर्व वित्तमंत्री हसीब द्राबू पद से हटाये जाने से बेहद ख़फ़ा थे। इसके अलावा पीडीपी के बड़े नेता और संस्थापकों में से एक मुजफ़्फ़र हुसैन बेग़ ने बीते दिनों ऐलान किया था कि सज्जाद लोन की अगुवाई में तीसरे मोर्चे का समर्थन कर सकते हैं। पीडीपी के ही बड़े नेता अल्ताफ़ बुख़ारी नये गठबंधन के मुख्य खिलाड़ी हैं, पर समझा जाता है कि अब्दुल रहमान वीरी इस गठबंधन के नेता बन कर उभरते क्योंकि निर्विवाद माने जाते हैं। यही हाल नैशनल कॉन्फ्रेन्स का भी है। उसके साथ मुख्य दिक्क़त यह है कि वह अपने चिर विरोधी पी़डीपी के साथ मिल कर कैसे सरकार बनाये और काम करे। दोनों का जनाधार एक दूसरे को काटता है। दोनोें एक दूसरे के ख़िलाफ़ बोलते ही नहीं, काम भी करते रहे हैं। यदि वे दोनोें सरकार बना भी लेते तो ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को समझाना मुश्किल होता। कांग्रेस पार्टी थोड़ा समय लेकर अागे की रणनीति पर का कर सकती है। गठबंधन की स्थिति में उसके लिए सबसे मुफ़ीद दल नैशनल कॉन्फ्रेंन्स है। नीतियों में भी थोड़ी बहुत समानता है और दोनोें ने अतीत में भी मिल कर काम किया है। विडम्बना की स्थिति यह है कि भारतीय जनता पार्टी के राज्यपाल होने के बावजूद पार्टी को इस फ़ैसले से नुक़सान होगा। उसने सज्ज़ाद लोन को जिस होशियारी से सामने लाया था, वह बेकार साबित हुआ। अब लोन उसके लिए किसी काम के नही रहे। तो क्या बीजेपी अपने ही जाल में फँस गई? क्या पीडीपी-नैशनल कॉन्फ्रेन्स-कांग्रेस का साथ आना एक चाल थी, यह सवाल लोग उठा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उन लोगों ने सरकार बनाने का जाल फेंक कर बीजेपी पर दबाव डाला। बीजेपी ने विधानसभा ही भंग करवा दी। लेकिन बीजेपी के लिए संतोष की बात यह ज़रूर है कि वह अब जम्मू के अपने जनाधार पर ध्यान दे और उसे समझाये कि इसने नीतियों पर समझौता नहीं किया और सरकार बनाने की परवाह नहीं की। राज्य की राजनीति  में अगला दांव कौन चलेगा, यह अभी साफ़ होने में थोड़ा समय लगेगा। पर सारे दल राहत महसूस कर रहे हैं। बला टली, अब देखते हैं क्या होगा। यही सबका हाल है। 

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