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पश्चिमी यूपी में इस बार भी मिलेगा मोदी को जाटों का साथ?

पश्चिमी यूपी में इस बार भी मिलेगा मोदी को जाटों का साथ?

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पश्चिमी यूपी में काफ़ी वोट मिले थे। क्या इस बार भी इस इलाक़े में मोदी को बड़ी संख्या में वोट मिलेंगे या फिर महागठबंधन आगे रहेगा?

दिल्ली से सटा है पश्चिम उत्तर प्रदेश का इलाक़ा। जैसे ही आप गौतमबुद्ध नगर से आगे बढ़ते हैं नज़ारा ही अलग दिखाई देता है। यह वह इलाक़ा है जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को थोक में वोट दिया था और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। क्या इस बार भी यह इलाक़ा मोदी को वोट देगा या फिर महागठबंधन की नैया पार लगायेगा ये सवाल मन में लिए मैं चल पड़ा, सड़क के रास्ते लोगों के मन की थाह लेने। 

लोकसभा चुनाव के पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 8 सीटों पर 11 अप्रैल को वोट डाले जाएँगे। ये 8 सीटें हैं - सहारनपुर, कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर, मेरठ, बागपत, ग़ाज़ियाबाद और गौतमबुद्ध नगर। 

2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगों के कारण ही बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ था। चुनाव रोटी, कपड़ा, मकान पर न होकर हिंदू-मुसलमान के मुद्दे पर लड़ा गया और बीजेपी को शत-प्रतिशत कामयाबी मिली थी। तब दंगा मूलरूप से जाटों और मुसलमानों के बीच ही हुआ था, जो सदियों से साथ रहते आये थे। पर वोटों की राजनीति कुछ ऐसी हुई कि दोनों समुदाय आपस में ही लड़ पड़े, लाशें बिछ गयीं और हज़ारों लोग बेघर हो गये। मेरे लिये यह जानना ज़रूरी था कि आख़िर जाट वोटर क्या सोचता है!

पश्चिमी यूपी में 15 से 17 फ़ीसदी जाट मतदाता हैं। सहारनपुर, कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, मेरठ, बागपत, बिजनौर, गाजियाबाद, अमरोहा, बुलंदशहर, हाथरस, अलीगढ़, मथुरा में जाट मतदाता चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। 

मैं जैसे-जैसे लोगों से बात करता गया, एहसास होने लगा कि अजित सिंह को मुज़फ़्फ़रनगर और बागपत में जयंत चौधरी को गठबंधन का पूरा लाभ मिल रहा है लेकिन इन दो सीटों से बाहर जाट समुदाय के लोगों में अभी भी मोदी का आकर्षण बरक़रार है।

ग़ाज़ियाबाद से कोटद्वार आते समय यह अहसास हुआ कि अगर जाट समुदाय का आधा मत भी गठबंधन को मिल जाए तो बीजेपी की चुनौती सीधे ख़त्म हो जाती लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।

गंग नहर पर सरधना से ठीक पहले गन्ने के जूस के ठेले पर सुरेश बालियान से मुलाक़ात हुई। सुरेश ने कहा, ‘देक्खो जी आख़र में ‘एच एम’ होना है, लोकदल में बी जो घूम रै, वे भी मोद्दी को वोट देंगे’। इसके पहले सुरेश राजनीतिक गणित के सारे सूत्र समझा चुके थे और पारिवारिक भी! उनकी दो गायें दूध दे रही थीं। एक गाभिन है। एक भैंस भी गाभिन है। अठारह बीघे की खेती है और गन्ने वाले का गन्ना सूखा हुआ है! 

यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मोदी जी के ज़माने में तबाह हुई कृषि पर रोने वाले किसानों के मन को मुसलमानों के विरुद्ध फैलाई गई घृणा ने काफ़ी हद तक कब्जे में कर लिया है।

खतौली में जिनसे हमने गूगल के भटकाव पर दिशा ज्ञान लिया वह थे रमेश कुमार “रवे” यानी रवे राजपूत। उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ‘जिसको कहौ उसे दे देवें’, उन्होंने उलटा सवाल किया, “रवे तो जनसंघ के ज़माने से हिंदू को वोट देवें हैं’! उन्होंने बताया कि काम-धंधा चौपट है, खेती में कुछ नई रक्खा, बालक मारे-मारे फ़िरैं हैं और वे दिल्ली आते-जाते रवें हैं, मायावती टिकट के पैसे लेती है और अजित सिंह बिक गया!” 

रविवार से सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की रैलियों की शुरुआत हो रही है। अजित सिंह, अखिलेश और मायावती के साथ तमाम रैलियों में मंच पर होंगे। देखना होगा कि यह कुछ बदलाव ला पाता है कि नहीं।

उत्तर प्रदेश में एक समय अजित सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह प्रदेश की तमाम पिछड़ी जातियों व मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के साथ-साथ जाटों के इक़लौते ख़ुदमुख़्तार हुआ करते थे। उनके बाद कुछ चुनावों में अजित सिंह को भी खू़ब समर्थन मिला जिसे उन्होंने अब लगभग गवाँ दिया है और अब यह समर्थन बाग़पत और उन इलाक़ों तक सीमित हो चुका है, जहाँ से वह ख़ुद चुनाव लड़ें।

रास्ते में हमारे भोजन और छाछ का प्रबंध एक संपन्न किसान, वकील, कारोबारी और क़रीब बीस लोगों के संयुक्त जाट परिवार के बिजनौर शहर से सटे एक फ़ार्म हाउस में नियत था। वहाँ कई लोगों से मुलाक़ात हुई। पहले वे लोग सुरक्षित संवाद करते रहे पर खाना ख़त्म होने के बाद जब गुड़ आया तब तक वे लोग खुल चुके थे। फिर उन्होंने फ़ोन का स्पीकर ऑन करके कश्यप, सैनी और मुसलिम समाज के लोगों से चुनाव पर बातचीत की और मुझे सुनवाई। उन्होंने हमारे तमाम जाले साफ़ किए जो दिल्ली से हम ख़ुद पर डाल लाए थे।

राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) नाम के ढीले-ढाले राजनैतिक दल की कमान संभाले चौधरी चरण सिंह के परिवार का आधार अगर बचा होता तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की क़रीब पंद्रह से बीस सीटों पर भारी उलटफेर करता, पर फ़िलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा।

रालोद के अवसान का यह सबक़ उन सभी के लिए है जो परिवारवादी बैसाखी पर सवार होकर राजनीति में अवतरित हुए हैं। यदि आपमें कुछ नया और सामयिक नहीं है और आप सड़कों पर पसीना बहाने से बचते हैं तो आप कब “हैं” से “थे” में बदल जाएँ, यह आपको ख़ुद पता नहीं चलेगा। बात साफ़ है कि जाट मोदी के साथ दिख रहे हैं।

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