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बंगाल : मनोरंजन ब्यापारी को दलित साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बनाने का अर्थ! 

बंगाल : मनोरंजन ब्यापारी को दलित साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बनाने का अर्थ! 

पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने दलित साहित्य अकादमी की स्थापना की और मनोरंजन ब्यापारी को उसका अध्यक्ष बनाया है। 

बांग्ला भाषा के इतिहास में प्रथम दलित साहित्य अकादमी स्थापित करने और मनोरंजन ब्यापारी को उसका अध्यक्ष बनाने की ख़बर आनंद बाज़ार समूह के अंग्रेजी अख़बार 'द टेलीग्राफ़' में देखकर बहुत अच्छा लगा, ममता बनर्जी के इस फ़ैसले के लिए उन्हें धन्यवाद देता हूँ। मनोरंजन ब्यापारी को उसके प्रथम अध्यक्ष बनने के लिए विशेष रूप से अभिनंदन करता हूँ।

मै़ 1982 से 1997 तक पत्नी की नौकरी के कारण बंगाल में रहा हूँ। इस कारण बांग्ला साहित्य और संस्कृति से थोड़ा बहुत परिचित हुआ हूँ। विणा आलासे, गौर किशोर घोष, प्रोफेसर अम्लान दत्त, शिवनारायण राय, बादल सरकार, चिदानंद दासगुप्ता, समर बागची, श्यामली खस्तगीर, अरूण मांझी, एमानुएल हक और मनीष बनर्जी जैसे मित्रों की सोहबत के कारण बंगाल की संस्कृति और भाषा से परिचय संभव हुआ। शांतिनिकेतन की यात्रा के समय मनोरंजन ब्यापारी पर रीडर्स डायजेस्ट में आई रिपोर्ट के बारे में मैंने मनीषा बनर्जी से ही जाना। 

 भद्रलोक साहित्य

मैं बांग्ला साहित्य का मराठी अनुवाद पहले ही पढ चुका था। इस कारण मेरा मत बन चुका था कि रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर शरत चंद्र, बंकिमचन्द्र, बिमल मित्र इत्यादि के कारण भद्रलोक बांग्ला साहित्य है, जिसमें दलितों के जीवन पर लगभग नहीं के बराबर है। सतीनाथ भादुड़ी के चमार समाज से संबधित उपन्यास 'ढोंढाई चरित मानस' को छोड़ कर कुछ भी नहीं है। महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के जीवन पर कुछ लिखा है। 

लेकिन मुख्य धारा के बांग्ला  साहित्य को पढने के बाद लगा कि राजा राम मोहन राय, ईश्वर  चंद्र विद्यासागर, केशव चंद्र सेन, देवेन्द्र नाथ ठाकुर स्वामी विवेकानंद, राम कृष्ण परमहंस, रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान विभूतियों के अथक प्रयासों से और धर्म को अफीम कहने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने पश्चिम बंगाल से बची खुची जाति व्यवस्था ख़त्म कर दी होगी।  जाति जो नहीं जाती, लेकिन शायद भारत का एक मात्र प्रदेश बंगाल होगा जहां से 100 साल पहले ही वह चली गई होगी या समाप्त कर दी गई होगी। 

बंगाल में जातिवाद

कलकत्ता वासी होने के बाद फोर्ट विलियम के आर्मी क्वार्टर में जब डेरा डाला, तो वहां घर मरम्मत करने के लिए एमईएस के कर्मचारी आते-जाते रहते थे। उनमें से एक वाचाल कारीगर बहुत ही अभिमान से बोला कि हमारे साहब जो आपके दोस्त है, मुझे विशेष रूप से आपका घर ठीक करने भेजा है, वह ठाकुर हैं। मैंने कहा, अरे भाई उनका नाम चटर्जी है, ठाकुर नहीं। उसने कहा कि हम बंगाली सभी ब्राह्मणों को ठाकुर ही बोलते है। और यह कर्मचारी और उसके साहबजादे सीपीआईएम की ट्रेड यूनियन में थे। 

नैशनल लायब्ररी के लेंडिंग सेक्शन में एक कर्मचारी पूरे शरीर पर एक सफेद रंग का कपड़ा लपेटे हुए और नंगे पाँव था। मराठी भाषा के प्रमुख ने मुझसे कहा कि इनके घर में माँ या पिता की मौत हुई है, इसलिये वह सूतक में है और इस वेष में है। अब 11 दिन ऐसा ही कपड़ा पहनकर आयेंगे। वह नैशनल लायब्ररी सीपीआईएम की यूनियन के अध्यक्ष पद पर थे। 

दलित साहित्यकार

मराठी भाषा के प्रमुख कवियों में से एक नारायण सुर्वे हमारे घर पर पर ठहरे थे तो मैं गौर किशोर दा के आग्रह से उन्हें आनंद बाज़ार के साहित्यिक अड्डा में लेकर गया। उनका परिचय देते हुए मैंने कहा कि यह नारायण सुर्वे दलित साहित्यकार हैं, तो आबू बशर नाम के बांग्ला साहित्यकार तपाक से बोले कि व्हाट नॉन्सेंस! साहित्यकार सिर्फ साहित्यकार होता है, उसको आप दलित बोलकर छोटा कर रहे हैं।

मैंने कहा, कम से कम आप तो यह न बोलें, आपके पुरखे भी पहले यही थे, जिस समाज के सुर्वे हैं। भारत के 99% मुसलमान वे हैं, जो पहले दलित थे और तंग आकर इसलाम को अपना लिया, बंगाल में ऐसे मुसलमान 100 प्रतिशत हैं। इसका विरोध सुनील गांगुली या शक्ति चट्टोपाध्याय करें तो समझ सकता हूँ, लेकिन आबू बशर से यह उम्मीद नहीं थी।

आप लोग ब्लैक लिटरेचर, लैटिन अमेरिका के लिटरेचर पर तो बहुत बहसबाजी करते हैं, लेकिन भारत के ही किसी एक प्रदेश में बाबा साहब आंबेडकर की प्रेरणा से एक समाज जो मूक था, अब कुछ बोलने लगा, तो बड़ा नागवार लग रहा है।

दलितों पर कुछ नहीं

माफ़ करना, पूरा बांग्ला साहित्य भद्रलोक साहित्य है, जिसमें दलितों के जीवन पर सतीनाथ भादुड़ी की एकमात्र ढोंढाई चरित मानस को छोड़ कर कुछ भी नहीं है। इतना पानी बंगाल की नदियों से बहकर गया रवींद्रनाथ से लेकर अमिताभ घोष तक, दलितों के जीवन पर कुछ नहीं है। 

एक सरकारी स्कूल में खाना बनाने से लेकर रिक्शा चलाने वाले मनोरंजन ब्यापारी ने जेल से लेकर भुखमरी, बीमारी में इलाज के अभाव में अपने परिवार के सदस्यों को खोने का दुख झेला है।

 इसके बावजूद उन्होंने अपनी पढाई अलीपुर जेल में शुरू की। महाश्वेता देवी जैसे प्रेरणा देने वाली लेखिका के कारण सैकड़ों वर्ष में कोई दलित मुखर हो कर बोल-लिख रहा है। यह बंगाल के साहित्य के इतिहास में क्रांति है।

इनकी सभी किताबों का अंग्रेजी अनुवाद एमेजॉन की तरफ से हो रहा है और आज वह बांग्ला साहित्य मे अपनी पैठ बनाने में कामयाब हुए हैं। ममता बनर्जी ने अगर बांग्ला दलित साहित्य अकादमी स्थापित कर मनोरंजन ब्यापारी को उसके अध्यक्ष बनाने की पहल की है, मैं हृदय से इसका स्वागत करता हूँ। यह ऐतिहासिक कदम है और बंगाल के वर्तमान राज्यपाल महोदय से विशेष अनुरोध है कि कम-से-कम ममता बनर्जी के इस फ़ैसले का वह विरोध ना करें। 

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