मातुआ समुदाय को खींचने की कोशिश में बीजेपी
मातुआ एक हिन्दू वैष्णव पंथ है, जिसकी स्थापना 1860 में हरिचाँद ठाकुर ने की थी। मातुआ पंथ में यकीन करने वालों का कहना है कि हरिचाँद ठाकुर विष्णु के अवतार थे, जिन्हें ईश्वर ने इस पृथ्वी पर धर्म फैलाने के लिए भेजा था।
नामशूद्र दलित परिवार में जन्मे ठाकुर को बचपन में ही धर्म का ज्ञान हो गया था, जिसे उन्होंने 12 दिशा-निर्देशों के रूप में अपने लोगों के बीच प्रचारित किया। इस पंथ में 'स्वयं दीक्षित' की अवधारणा है, जिसके तहत जो व्यक्ति इन 12 दिशा निर्देशों को मानता है, वह अपने आप मातुआ समुदाय का सदस्य हो गया, उसे अलग से धर्म में दीक्षित होने की ज़रूरत नहीं है।
मातुआ पंथ का आधार ही नामशूद्र दलित था, इसके अनुयायी इसी वर्ण के थे। हरिचाँद ठाकुर ने ब्राह्मणवाद का ज़ोरदार विरोध किया, जातिवाद का विरोध किया और हिन्दू-मुसलिम एकता पर ज़ोर दिया।
ब्राह्मणवाद का विरोध
हरिचाँद ठाकुर के बेटे गुरुचांद ठाकुर ने मातुआ महासंघ की स्थापना की थी। उन्होंने बांग्लादेश स्थित फ़रीदपुर के ओराकांदी में मातुआ मंदिर की स्थापना की थी।
मातुआ मूल रूप से एक धार्मिक आन्दोलन ही था, पर धीरे-धीरे इसमें सामाजिक मूल्य जुड़ते चले गए। जल्द ही यह स्त्री-पुरुष समानता, नारी अधिकार, जाति उन्मूलन, शिक्षा ख़ास कर नारी शिक्षा और हिन्दू-मुसलिम एकता से जुड़ता चला गया।
भारत विभाजन के ठीक पहले 1946 में मातुआ गुरु गुरुचाँद ठाकुर पश्चिम बंगाल चले आए और बांग्लादेश-कोलकाता को जोड़ने वाली सड़क जसोर रोड पर ठाकुरनगर में मंदिर की स्थापना की, वहीं बस गए। उनके अनुयायी मोटे तौर पर खेती बाड़ी करने वाले लोग थे, उनका बड़ा हिस्सा बांग्लादेश में ही रह गया।
बांग्लादेश से पलायन
लेकिन बाद में जब बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार होने लगे और वहाँ से हिन्दुओं का भारत पलायन का सिलसिला शुरू हुआ तो बड़ी तादाद में लोग भारत आए। साल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय लाखों मातुआ हिन्दू शरणार्थी बन कर भारत आए।
बांग्लादेश निर्माण के बाद थोड़े बहुत लोग लौटे भी, लेकिन उनका बहुत बड़ा तबका भारत में ही रह गया। वे नदिया, उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण चौबीस परगना, कोलकाता, हुगली और हावड़ा में लाखों की संख्या में बस गए। समय के साथ वे दूसरे हिस्सों में फैलते गए, उनकी जनसंख्या बढ़ती गई। आज उनकी आबादी लगभग दो करोड़ है।
धीरे-धीरे मातुआ पश्चिम बंगाल में रच बस गए, वे यहीं के हो कर रह गए, उन्हें राशन कार्ड मिलता गया, वोटर कार्ड मिलता गया, वे पूरी तरह भारतीय बन गए।
नागरिकता का मुद्दा?
यहां से उनका राजनीतिक दोहन शुरु हुआ। पहले सीपीआईएम, कांग्रेस और बाद में तृणमूल कांग्रेस का मानना रहा है कि राशन कार्ड, वोटर कार्ड वगैरह मिलने के बाद वे भारत के नागरिक बन गए, उनकी नागरिकता की समस्या का समाधान हो गया, यह अब कोई मुद्दा नहीं रहा। उनका आधार कार्ड, पैन कार्ड वगैरह भी बन गया।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि उन्हें अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। इसके लिए ही नागरिकता संशोधन क़ानून बनाया गया है और इस क़ानून के जरिए मातुआ समुदाय के लोगों को नागरिकता मिल जाएगी।
बीजेपी की इस पूरी योजना में गड़बड़ी यह है कि नागरिकता का आवेदन करने वाले मातुआ लोगों को यह साबित करना होगा कि वे 31 दिसंबर 2014 के पहले भारत आए थे और उन्हें धार्मिक दमन के कारण भाग कर भारत आना पड़ा।
धार्मिक दमन साबित करना वैसे भी मुश्किल काम है। लेकिन इससे भी बड़ी बात तो यह है कि जिसके पास आधार कार्ड, पैन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड है, वह अलग से नागरिकता हासिल करने के चक्कर में पड़े ही क्यों। वह तो वैसे भी भारत का नागरिक है।
राजनीति में मातुआ
जहाँ तक मातुआ समुदाय के राजनीतिकरण की बात है, तो यह कोई नई बात नहीं है। हरिचाँद ठाकुर के पोते और गुरुचाँद ठाकुर के बेटे प्रमथनाथ ठाकुर कांग्रेस में शामिल हो गए, 1960 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर नदिया के हाँसखाली से लड़ा और जीत हासिल की।
प्रमथनाथ की मृत्यु के बाद उनकी विधवा वीणापाणी दास या 'बड़ो माँ' (बड़ी माँ) ने बागडोर संभाली। उनकी मृत्यु 2019 में लगभग 100 साल की उम्र में हुई। उनके बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर 2014 के आम चुनाव में बनगाँव से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए। वे मातुआ महासंघ के संघाधिपति यानी प्रमुख भी थे। उनकी मृत्यु 2014 में हो गई। उनकी सीट पर उनकी पत्नी ममताबाला ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
प्रमथनाथ ठाकुर के छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर गायघाटा से चुने गए और राज्य सरकार में मंत्री भी बने।
बीजेपी ने लगाई सेंध
लेकिन बीजेपी ने आगे बढ़ कर परिवार की इस राजनीतिक एकता में सेंध लगाई। 'बड़ो माँ' के जीवनकाल में ही राजनीतिक मुद्दे पर परिवार में फूट पड़ गई थी। 'बड़ो माँ' यानी वीणापाणि देवी और प्रमथनाथ के पोते और मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर एक धड़े का नेतृत्व करते हैं जबकि दूसरे धड़े की अगुआई परिवार की बड़ी पुत्रवधू यानी बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर की पत्नी ममताबाला ठाकुर करती हैं।
शांतनु ठाकुर ने बीजेपी का दामन थामा और 2019 के आम चुनाव में बनगाँव से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा। उन्होंने अपनी चाची यानी कपिल कृष्ण ठाकुर की पत्नी ममताबाला के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा और उन्हें शिकस्त दी। ममताबाला ठाकुर उस समय बनगाँव से तृणमूल कांग्रेस की सांसद थीं।
मातुआ समुदाय का राजनीतिक महत्व यह है कि लगभग 6 लोकसभा और 48 विधानसभा सीटों पर ये चुनाव नतीजे प्रभावित कर सकते हैं। बनगाँव, बशीरहाट, बारासात, बैरकपुर, जयनगर और राणाघाट के लोकसभा चुनाव में इनकी बड़ी मौजूदगी है।
बीजेपी बनाम टीएमसी
यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ो माँ के चरण स्पर्श करने 2019 के आम चुनाव के पहले ही ठाकुरनगर गए थे। हालांकि कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई, परिवार में फूट भी पड़ गई।
इस फूट की वजह राजनीतिक ही है। सर्व भारतीय मातुआ महासंघ के उपाध्यक्ष सुकृतिरंजन विस्वास का कहना है कि मुख्यमंत्री यह तो कहती हैं कि राशन कार्ड काफी है और अलग नागरिकता की ज़रूरत नहीं है, पर हमें इससे काफी दिक्क़त होती है और हमें नागरिकता चाहिए। उनका मानना है कि यह नागरिकता तो बीजेपी ही दे सकती है।
सर्व भारतीय मातुआ महासंघ के अध्यक्ष ममताबाला ठाकुर का आरोप है कि बीजेपी लोगों को गुमराह कर रही है। यदि वह मातुआ को नागिरकता देना ही चाहती है तो इससे जुड़ी सभी शर्तें वापस ले ले और सभी मातुआ को नागरिकता दे दे।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 के नतीजों पर मातुआ समुदाय का क्या असर होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी, पर यह साफ़ हो चुका है कि उन्हें अपनी ओर लाने की जद्दोजहद बीजेपी और टीएमसी में चल रही है। ठाकुर परिवार पर तृणमूल कांग्रेस का असर ज़्यादा रहा है, ख़ुद बड़ो माँ उनके पक्ष में थीं। लेकिन बीजेपी ने परिवार के एक व्यक्ति को अपनी ओर लाकर और उन्हें राजनीतिक फ़ायदा पहुँचा कर मामला उलट दिया है।