क्या भारत की राजकीय विचारधारा हिंदुत्व है?
उत्तर प्रदेश के बरेली के एक शिक्षा मित्र या अस्थायी अध्यापक वज़ीरुद्दीन को नौकरी से निकालने के बाद गिरफ़्तार कर लिया गया है। उन्हें स्थानीय अदालत ने पुलिस की बात मानते हुए न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। उन पर जानबूझकर दंगा फैलाने के इरादे का और दूसरों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप है।
उत्तर प्रदेश में बरेली के फरीदपुर के जिस सरकारी स्कूल में वे पढ़ा रहे थे उसकी प्राचार्य नाहिद सिद्दीक़ी को भी निलंबित कर दिया गया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने स्कूल की सुबह की सभा में बच्चों को इक़बाल की ‘बच्चे की दुआ’ गाने को कहा।
विश्व हिंदू परिषद को इस अपराध की खबर मिली और उसने इन दोनों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई कि ये अध्यापक इस ‘मदरसा टाइप’ प्रार्थना के ज़रिए ग़ैर मुसलमान बच्चों के धर्मांतरण की साज़िश कर रहे थे।
शिक्षा अधिकारी और ज़िलाधिकारी भी इस आरोप से सहमत थे। अगर नहीं तो वे इन अध्यापकों को दंडित क्यों करते और उनपर मुक़दमा क्यों दायर करते? और पुलिस ने भी, जो यूं तो किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज करने में हज़ार हीला हवाला करती है, आनन-फ़ानन में एफ़आईआर की और एक को गिरफ़्तार भी कर लिया।
प्रशासनिक अधिकारी जितनी आसानी से हिंदुत्ववादियों से सहमत हो जाते हैं, उससे जान पड़ता है कि बिना घोषित किए ही भारत की राजकीय विचारधारा हिंदुत्व है। चाहे मुसलमान अध्यापकों को दंडित करना हो या पहले मौक़े पर मुसलमानों के घरों पर बुलडोज़र चला देना हो, प्रशासन और पुलिस की फुर्ती देखने लायक़ होती है।
वज़ीरुद्दीन और नाहिद सिद्दीक़ी का अपराध है- बच्चों को अल्लामा इक़बाल की दुआ गाने को कहना। “मेरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझको, नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको।” हिंदुत्ववादियों को ख़ास ऐतराज़ इक़बाल की दुआ की इन पंक्तियों से है। क्या वे बुराई से बचने और नेक राह पर चलने की प्रेरणा को आपत्तिजनक मानते हैं? या यह कि बुराई से बचाने के लिए अल्लाह से क्यों प्रार्थना की जा रही है? क्या वे अपने हिंदू बच्चों को अल्लाह का नाम सुनने से बचाना चाहते हैं?
इस दुआ में ख़ुदा भी है और अल्लाह भी और रब भी। अरबी, फ़ारसी से रची हुई उर्दू की मिठास आपके कानों में घुलती जाती है, जैसे-जैसे आप इस दुआ को सुनते जाते हैं। लेकिन उसके लिए इंसानी कान चाहिए जो शब्दों की सुंदरता भी समझते हैं और उनमें बसे संगीत को भी। हिंदुत्ववादियों के कानों को इनका अभ्यास नहीं। उन्हें गाली गलौज, धमकी की आदत है। और बुराई से बचाने की किसी भी बात से उनके कान खड़े हो जाते हैं।
अगर ऐसा हुआ तो उनके कारोबार का क्या होगा? लेकिन इस देश में सारे कान ऐसे नहीं रहे हैं, अब भी नहीं हैं। कुछ कानों में इंसानियत बची हुई है।
मुझे वैज्ञानिक और शिक्षाविद विनोद रैना की याद हो आई। एक सफ़र में अपने सोज़दार गले से उन्होंने यह दुआ गाकर सुनाई थी। बतलाते हुए कि यह उनके स्कूल की प्रार्थना थी। अपनी उम्र के छठे दशक में जब वे अपने स्कूल की याद कर रहे थे तो उनका नाम विनोद रैना ही था। वे मुसलमान न हुए थे। और हो जाते तो भी क्या? असल बात तो यह कि वे उस दुआ के मुताबिक़ नेक राह के राही ही बने रहे!
मुसलमानों को चेतावनी
इस दुआ के चलते अध्यापकों को दंडित करना बेतुका जान पड़े लेकिन यह दंड है। यह सामाजिक, प्रशासनिक और न्यायिक क्रूरता है। और उन अध्यापकों का अपमान भी। सिर्फ़ उनका नहीं। यह उनके ज़रिए बाक़ी मुसलमानों को चेतावनी है।
पीलीभीत में भी ऐसा ही वाकया
ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पिछले साल इसी आरोप में उत्तर प्रदेश के ही पीलीभीत में एक स्कूल के हेडमास्टर को दंडित किया गया था। वे भी मुसलमान हैं। उनको भी विश्व हिंदू परिषद के कहने पर दंडित किया गया था। इस कदम को उचित ठहराने के लिए प्रशासन ने इस आरोप की आड़ ली कि स्कूल की सभा में राष्ट्रगान नहीं गवाया जा रहा था। निचले स्तर के शिक्षा अधिकारियों ने ही बता दिया कि यह झूठा आरोप है। वहाँ ‘जन मन गण’ तो गाया ही जा रहा था। साथ ही यह प्रार्थना भी गाई जा रही थी।
फरीदपुर के बच्चों ने वह नहीं किया जो पीलीभीत के उस स्कूल के बच्चों ने किया था। उन्होंने अपने हेडमास्टर के निलंबन का विरोध किया और कक्षा का बहिष्कार किया। लेकिन हमें नहीं मालूम कि इसके कारण निलंबन वापस हुआ या नहीं। स्कूली बच्चों का ऐसा प्रतिरोध असाधारण है। फिर वे अपने समाज और परिवार से प्रभावित न हों, यह मुश्किल है। उनमें अपने मुसलमान अध्यापकों के प्रति संदेह और घृणा भरी जा सकती है।
इस घटना के पहले इसी साल हमें दो खबरें मिली थीं। झारखंड के एक स्कूल में सर्वधर्म प्रार्थना को गवाने के कारण स्कूल की प्राचार्य का विरोध और गुजरात के एक स्कूल के ख़िलाफ़ शिकायत, क्योंकि वह स्कूल अपने छात्रों को मस्जिद का भ्रमण करवाना चाहता था।
इन दोनों ही मामलों में न तो बच्चों को ऐतराज़ था, न उनके अभिभावकों को। लेकिन हिंदुत्ववादी संगठनों ने इन्हें आपत्तिजनक मानकर मसला बनाया और फिर अधिकारी उनके साथ शामिल हो गए। अभिभावक डर गए या उनमें से अधिकतर हिंदुत्ववादियों से सहमत हो गए। उन्हें लगा हो कि उनके साथ धोखा किया जा रहा था।
प्रत्येक ऐसा कोई प्रतीक, कोई चिह्न, जो मुसलमानों या ईसाइयों से जुड़ा हो, संदेहास्पद बनाया जा रहा है। जो इस भारत में आजतक स्वाभाविक था, उसे अस्वाभाविक बतलाया जा रहा है।
लोग हैरान
इक़बाल की दुआ को इस्लामी बतलाकर उसके ख़िलाफ़ घृणा प्रचार की इस ताज़ा घटना के बाद भारत के अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग पीढ़ियों के लोगों ने हैरानी ज़ाहिर की। “इसे बरसों बाद सुनकर अभी भी आखें नम हो जाती हैं”, एक शख्स ने लिखा। एक अन्य शख्स ने लिखा कि यह कुछ सबसे सुकून देने वाली प्रार्थनाओं में एक थी। दोनों हिंदू हैं।
इस प्रार्थना या दुआ से किसकी भावना आहत हो सकती है? स्कूल में हिंदी या उर्दू में जो प्रार्थनाएँ गाई जाती हैं, उनमें शायद यह अकेली है जो यह बतलाती है कि भला आदमी होने के लिए क्या करना होता है! आइए, इस छोटी-सी दुआ को हम पढ़ें-
लब पे आती है बन के दुआ तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िंदगी हो मेरी परवान की सूरत या रब
इल्म की शम्मा से हो मुझको मोहब्बत या रब
हो मेरा काम गरीबों की हिमायत करना
दर्दमंदों से, जईफ़ों से मोहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको।
अल्लाह, खुदा या रब से इल्तज़ा सिर्फ़ यह है कि ज़िंदगी एक शमा की तरह हो, जैसे फूल से चमन की शोभा होती है, वैसे ही मेरी ज़िंदगी से वतन की शोभा बढ़े। ज्ञान या इल्म से लगाव हो जैसे शमा से परवाने को मोहब्बत होती है। काम ग़रीबों का साथ देना हो, जो पीड़ित हैं, बूढ़े और लाचार हैं, उनसे मोहब्बत करना काम हो। अल्लाह से आख़िरी दुआ सिर्फ़ यह है कि वह बुराई से बचाए और नेक राह पर चलना सिखलाए।
न अल्लाह, न गॉड?
क्या इस तमन्ना से ऐतराज़ है या यह कि जिससे माँग की जा रही है, वह अल्लाह, ख़ुदा या रब है? क्या अब हिंदुस्तान में यह इंतज़ाम किया जा रहा है कि हिंदुओं के कान न तो अल्लाह सुनें, न गॉड? क्या ये शब्द उनके कान में पड़ते ही वे प्रदूषित हो जाते हैं? या इन नामों में इतना ज़ोर है कि वे हिंदू धर्म त्याग कर मुसलमान या ईसाई हो जाएँगे?
हिंदुत्ववादियों का यह अभियान मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा तो है ही, यह हिंदुओं को संकीर्ण और सांस्कृतिक रूप से दरिद्र बनाने की एक साज़िश भी है।
रामकृष्ण मिशन मठ में यीशु की आरती
अभी जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, बेलूर के रामकृष्ण मिशन मठ की तस्वीर सामने है जिसमें मिशन के स्वामी प्रभु यीशु की आरती कर रहे हैं। क्या हिंदुत्ववादी अब बेलूर और मिशन के बाक़ी मठों पर हमला करेंगे? क्या रामकृष्ण परमहंस की जीवनी से वे प्रसंग हटा देंगे जिनसे मालूम हो कि मस्जिद या गिरिजाघर में प्रार्थना करने में स्वामी को शांति मिलती थी?
तो हिंदुओं के आदर्श कौन हैं? स्वामी रामकृष्ण परमहंस या घृणा प्रचारक हिंदुत्ववादी? लेकिन एक सवाल और है कि हमारे प्रशासक संविधान से संचालित होंगे या हिन्दुत्ववादी पूर्वग्रहों और घृणाओं से?