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अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन, भारत के परिसर ख़ामोश क्यों?

अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन, भारत के परिसर ख़ामोश क्यों?

अमेरिका के परिसरों के साथ यूरोप और दूसरे मुल्कों में भी विद्यार्थी इस्राइल और अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। न्याय और समानता के मूल्य क्या भारत के छात्रों, अध्यापकों को झकझोरेंगे?

अभी पूरी दुनिया में विद्यार्थी ख़बर में हैं। बेहतर यह कहना होगा कि वे ख़बर बना रहे हैं। अमेरिका के 100 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में छात्र अपनी सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यह विरोध उनकी सरकार द्वारा इस्राइल को दी जा रही मदद और समर्थन के ख़िलाफ़ है जिसके बल पर वह फ़िलिस्तीनी लोगों का जनसंहार कर रहा है। वे अपने संस्थानों से भी माँग कर रहे हैं कि वे इस्राइल के साथ अपना हर तरह का रिश्ता तोड़ें। यह विरोध इस्राइल पर फ़िलिस्तीनी लोगों की नस्लकुशी रोकने के लिए दबाव डालने के लिए किया जा रहा है। उनके संस्थानों के प्रशासन और उनकी सरकार ने उनकी माँग का जवाब अभूतपूर्व दमन से दिया है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे विद्यार्थियों पर प्लास्टिक की गोली, आँसू गैस, लाठियों का इस्तेमाल किया गया है। उन्हें बड़ी संख्या में गिरफ़्तार किया गया है। उनमें से अनेक को संस्थानों से निकाल बाहर करने का नोटिस दिया गया है। उनका साथ देनेवाले अध्यापकों को भी पीटा गया है, गिरफ़्तार किया गया है और दूसरे तरीक़ों से दंडित किया जा रहा है।

मेरी बेटी ने इन ख़बरों को देखकर कहा कि उसे भारत की याद आ रही है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों में वहाँ की पुलिस छात्रों और अध्यापकों के साथ जैसा बर्ताव कर रही है, उसे देखकर 2020 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध कर रहे छात्रों पर भारत की पुलिस के दमन की याद आ गई।

एक दूसरे मामले में भी भारत और अमेरिका में समानता है। भारत में पुलिस के अलावा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों ने भी छात्रों पर हमला किया था। दूसरे मौक़ों पर भी सरकार विरोधी छात्रों को पुलिस के अलावा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हमले का सामना करना पड़ा है। ए बी वी पी ने अध्यापकों के ख़िलाफ़ भी हिंसा की है। उसी तरह अमेरिका में पुलिस के साथ छात्रों पर इस्राइल समर्थकों ने भी हमला किया है। जैसे भारत में इन हमलों के वक्त पुलिस ख़ामोश रही, वैसे ही अमेरिका में भी। 

एक और मामले में दोनों देशों में समानता है। वह है मीडिया द्वारा छात्रों और अध्यापकों का विरोध या उनकी आलोचना। 

अमेरिका के छात्रों और अध्यापकों ने इस दमन के बावजूद जनसंहार के ख़िलाफ़ अपना विरोध जारी रखा है। नौकरी जाने, विश्वविद्यालय से निकाले जाने की धमकी के बावजूद वे अडिग हैं। वियतनाम युद्ध के समय जिस तरह अमेरिकी परिसरों में सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठी थी, उस वक्त छात्र रहे लोगों को आज उसकी याद आ रही है। उनमें से कई आज इन विरोध प्रदर्शनों में जाकर उन्हें अपना समर्थन दे रहे हैं।

अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के दावे की ख़ुद धज्जियाँ उड़ा दी हैं। अमेरिकी सरकार का भी यह दावा खोखला साबित हुआ है कि उसके लिए अभिव्यक्ति की स्वाधीनता सबसे पवित्र सिद्धांत है।

इसी बीच मालूम हुआ है कि वाशिंगटन में ओलम्पिया के एवरग्रीन स्टेट कॉलेज ने इस्राइल से हर तरह का रिश्ता ख़त्म कर दिया है। यह वही कॉलेज है जिसकी छात्रा राशैल कोरी अपना घर छोड़कर फ़िलिस्तीनियों के अधिकार के संघर्ष में उनका साथ देने अमेरिका से फ़िलिस्तीन चली गई थी। आज से 21 साल पहले की याद हो आई। तब एक दिन हमने पढ़ा कि कोरी एक फ़िलिस्तीनी घर को इस्राइल के बुलडोज़र से बचाने के लिए उसके सामने खड़ी गई थी और बुलडोज़र ने उसे कुचलकर मार डाला था। 2003 में वह मारी गई थी। आज जब इस्राइल फ़िलिस्तीनियों का संहार कर रहा है, तब फ़िलिस्तीनियों के साथ खड़े होने का फ़ैसला करने के बाद एवरग्रीन स्टेट कॉलेज फ़ख़्र से कह सकता है कि वह राशैल कोरी का कॉलेज है।

अमेरिका के विश्वविद्यालय अपना कर्तव्य कर रहे हैं। विश्वविद्यालय का मतलब वहाँ के छात्र और अध्यापक। विश्वविद्यालय समाज के अंतःकरण होते हैं। या उसके नैतिक कंपास। जब सत्ता या शक्ति अन्याय के साथ हो और समाज भी रास्ता भटक जाए तो विश्वविद्यालय उन्हें राह दिखलाते हैं। अमेरिका के शिक्षा संस्थान संतोष कर सकते हैं कि वियतनाम युद्ध का समय हो या इस्राइल के द्वारा फ़िलिस्तीनियों का जनसंहार, उन्होंने न्याय के पक्ष में आवाज़ उठाई। उनके प्रशासक अन्याय के साथ रहे, यह और बात है।

अमेरिका में विद्यार्थियों पर दमन के लिए बहाना बनाया जा रहा है कि वे यहूदी विरोधी या एंटीसेमेटिक प्रदर्शन हैं। लेकिन इनमें अच्छी ख़ासी संख्या में यहूदी शामिल हैं। हाँ! इनपर हमला ज़रूर ज़ायनवादी गिरोह कर रहे हैं और अमेरिकी पुलिस उनका साथ दे रही है।

इस्राइल के लेखक और स्तंभकार गिडियन लेवी ने लिखा है यह झूठ फैलाया जा रहा है कि इस्राइली हिंसा के ख़िलाफ़ छात्रों के ये प्रदर्शन यहूदियों के ख़िलाफ़ घृणा फैला रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया है कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी की छात्रा नोवा ओब्रॉक ने हारेट्ज़ के हिब्रू संस्करण में ही लिखा है कि उन्हें किसी प्रकार का भय या आशंका नहीं है। यह पढ़कर फिर भारत की याद हो आई। 2020 में जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और बाद में शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शनों पर भी ऐसा ही इल्ज़ाम लगाया गया था कि वे हिंदू विरोधी हिंसा फैला रहे थे।

अमेरिका के परिसरों के साथ यूरोप और दूसरे मुल्कों में भी विद्यार्थी इस्राइल और अपनी सरकारों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। यही युवावस्था का तक़ाजा है। यह सहानुभूति की राजनीति है, अपने से अलग लोगों के साथ एकजुटता की राजनीति है।

कई मित्र पूछ रहे हैं कि भारत के परिसर आख़िर ख़ामोश क्यों हैं। यह बात पूरी तरह सही नहीं है। अभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने अमेरिकी राजदूत के परिसर में आने की ख़बर के बाद इस निमंत्रण को लेकर अपना विरोध जतलाया। उनका विरोध भी छात्र इसीलिए कर रहे थे कि अमेरिका फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार में सीधे शामिल है। उनके विरोध के कारण राजदूत परिसर नहीं आ सके। उसी तरह जिंदल यूनिवर्सिटी में छात्रों और अध्यापकों ने फ़िलिस्तीनी लोगों के जनसंहार के ख़िलाफ़ चर्चाएँ आयोजित कीं। दूसरे संस्थानों में भी छिटपुट कोशिशें हुईं। लेकिन यह सच है कि फ़िलिस्तीन के सवाल पर भारत के परिसर प्रायः उदासीन हैं।

ठीक है कि अभी हमारा ध्यान देश में हो रहे चुनावों पर लगा हुआ है। लेकिन अपनी चिंता और दूसरों के साथ एकजुटता में विरोध नहीं है। यह नहीं होता कि पहले हम अपनी उलझन सुलझा लें फिर दूसरों की फ़िक्र करें। भारत का स्वाधीनता आंदोलन इसका प्रमाण है। अभी भी वक्त है कि भारत के छात्र और अध्यापक यह साबित करें कि न्याय और समानता के मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता मात्र औपचारिक नहीं है।

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