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शिक्षक दिवसः अध्यापक और अध्यापन आज ख़तरे में है

शिक्षक दिवसः अध्यापक और अध्यापन आज ख़तरे में है

शिक्षक दिवस हालांकि मंगलवार को है लेकिन पेशे से शिक्षक और जाने-माने स्तंभकार अपूर्वानंद ने शिक्षक की आजादी पर बुनियादी सवाल उठाए हैं। हाल ही में शिक्षकों को लेकर ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिनसे शिक्षकों की आजादी छिनती दिख रही है। 

2023 के शिक्षक दिवस के रोज़ इस बात को याद कर लेना ज़रूरी है कि भारत में अध्यापन का पेशा आज़ादी के बाद के 75 सालों में अभी सबसे अधिक संकट में है। भारत के गुरु की महिमा का गान करने की परिपाटी का पालन करते  वक़्त यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे उसका धर्म निर्वाह करने की स्वतंत्रता नहीं रह गई है। अब उससे यह कहा जा रहा है कि वह भारत की आज की राजकीय विचारधारा का प्रवक्ता होने भर को स्वतंत्र है, उसका अपना कोई विचार नहीं हो सकता।  

जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा माना जाता है तो बात वहीं से शुरू करें।राज्य के एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल के अध्यापक ज़हूर अहमद बट को सर्वोच्च न्यायालय में संघीय सरकार के अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने के कदम के ख़िलाफ़ उनके दलील देने के एक दिन बाद ही निलंबित कर दिया गया। अदालत के सामने अपनी 6 मिनट की बहस में उन्होंने कहा कि 5 अगस्त, 2019 के बाद उन्हें अध्यापक के तौर पर भारत का संविधान पढ़ाने में मुश्किल आ रही है। उसमें नागरिक अधिकारों के बारे में जो लिखा है, वह कश्मीरियों के अनुभव के ठीक उलट है। अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिए जाने के बाद का कश्मीर का यथार्थ संविधान की संकल्पना का उल्लंघन है। वे यह दुख प्रकट करके शायद वापस पहुँचे भी न होंगे कि उन्हें निलंबित कर दिया गया। इन पंक्तियों को लिखने के बाद पढ़ा कि इस निलंबन पर अदालत के फ़िक्र ज़ाहिर करने के बाद निलंबन ख़त्म कर दिया गया।

उनके पहले अशोका विश्वविद्यालय के युवा अध्यापक डॉक्टर सब्यसाची दास को एक शोध पत्र लिखने के कारण इस्तीफ़ा देने को मजबूर होना पड़ा। यही नहीं, भारत सरकार की ख़ुफ़िया एजेंसी के लोग यह मालूम करने उनके विश्वविद्यालय जा धमके कि उन्होंने किसी साज़िश के तहत यह पर्चा तो नहीं लिखा और इसमें और कौन कौन शामिल हैं।

इस घटना के पहले दिल्ली स्थित दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय के 4 अध्यापकों को वहाँ आंदोलनकारी छात्रों के प्रति सहानुभूतिपूर्वक पेश आने के लिए प्रशासन को पत्र लिखने के कारण निलंबित कर दिया गया।

पुणे के सिम्बॉयसिस संस्थान के अध्यापक अशोक सोपान धोले को उनकी कक्षा में उनके व्याख्यान के लिए निलंबित कर दिया गया और जेल में डाल दिया गया। कक्षा में उन्होंने सभी धर्मों की समानता की बात की थी। उसके पहले कोल्हापुर में डॉक्टर तेजस्विनी देसाई को कक्षा में उनकी एक टिप्पणी के कारण जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया। उन्होंने कहा था कि बलात्कारी किसी भी धर्म के हो सकते हैं, यह कहना ग़लत है कि किसी एक धर्म या समुदाय के लोग ही बलात्कारी होते हैं। उनके ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाई गई है।

कुछ वक़्त पहले इंदौर के एक विधि संस्थान के प्राचार्य और एक शिक्षक को पुस्तकालय में एक ‘आपत्तिजनक’ किताब पाए जाने के कारण नौकरी से निकाल कर जेल भेज दिया गया।केरल के केंद्रीय विश्वविद्यालय के अध्यापक गिल्बर्ट सेबेस्टियन को फासिज्म पर उनकी कक्षा के कारण निलंबित कर दिया गया। जोधपुर की डॉक्टर राजश्री राणावत को एक अकादमिक सेमिनार आयोजित करने के कारण निलंबित किया गया और उनके ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई गई।हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय की अध्यापिका स्नेहसता को महाश्वेता देवी की कहानी के मंचन के लिए हमलों और जाँच का सामना करना पड़ा। 

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 48 अध्यापक पिछले 4 वर्षों से प्रशासन की अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना कर रहे हैं।

ऐसी खबरें अब भारत के कई हिस्सों से मिल रही हैं कि स्कूल के अध्यापकों पर सर्वधर्म प्रार्थना आयोजित करने के कारण हमला किया जाता है। उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज किया जाता है और कई मामलों में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता है।

इसके अलावा अध्यापकों को उनके सार्वजनिक लेखन के कारण भी अनुशासित करने की खबरें मिलती हैं। ऐसे अध्यापक अनाम रहना चाहते हैं जिन्हें उनका प्रशासन उनके लेखों के चलते कारण बताओ नोटिस देता है। ऐसे अध्यापकों की संख्या बढ़ती जा रही है।  

दूसरी तरफ़ ऐसे अध्यापकों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हो रही है जो सरकार के मत के प्रचारक का काम गर्वपूर्वक कर रहे हैं। वे न सिर्फ़ मंत्रियों के आगे पीछे करते दीखने में संकुचित नहीं होते बल्कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे संबद्ध प्रचारकों के लिए मंच सजाने में भी गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसे अध्यापकों में वे भी हैं जिनका जीवन 2014 के पहले भी सुविधापूर्ण ही था और वे तो हैं ही जो अपनी नौकरी के लिए इस सत्ता के प्रति या आर एस एस के किसी धड़े के प्रति कृतज्ञ हैं।

विद्यार्थी अगर इन दो प्रकार के अध्यापकों को लेकर असमंजस में पड़ जाएँ तो क्या आश्चर्य? एक प्रकार के अध्यापक का संसर्ग ख़तरे में डाल सकता है तो दूसरे का लाभप्रद है। लेकिन जो लाभप्रद है क्या वह नैतिक बल देता है? यह दुविधा व्यावहारिक है। हम


अध्यापकों को विद्यार्थियों के इन सवालों का सामना करना पड़ता है। ख़ासकर पीएचडी दाख़िले के वक्त शोधार्थी इस दुविधा से जूझते रहते हैं कि वे आज के लिए उपयुक्त अध्यापक को शोध निदेशक बनाएँ या ज्ञान की आवश्यकता के अनुसार निदेशक का चुनाव करें। इसमें भी बहुत ताज्जुब नहीं करना चाहिए कि वे प्रायः पहले प्रकार के अध्यापक को चुनते हैं। 

कहा जा सकता है कि यह कोई 2014 के बाद की बात नहीं। पहले भी कुछ अध्यापकों की सरपरस्ती के लिए विद्यार्थियों में होड़ रहती थी। लेकिन हम सब यह जानते हैं कि आज वैसे ही अध्यापकों के संरक्षण के लिए प्रतियोगिता होती है जिनकी ताक़त का स्रोत आज की सत्ता से उनकी नज़दीकी है।

अध्यापक का गौरव समाज में सांसारिकता के प्रति कुछ उसकी बेपरवाही के कारण था। अध्यापक के साथ मानसिक स्वाधीनता का भाव जुड़ा था।अध्यापक की विशेषता सत्ता से आँख में आँख मिलाकर बात करने में मानी जाती है। वह अगर सत्ता राजनीतिक है तो ख़ुद उसके ज्ञान के क्षेत्र की सत्ता भी है। प्रभुत्वशाली विचार का प्रचार अध्यापक को आकर्षक नहीं जान पड़ता। उसे किसी मत के प्रचारक के रूप में नहीं, नए विचार के सर्जक के रूप में मान्यता चाहिए।

अध्यापक का दायित्व विद्यार्थियों को ज्ञान की परंपराओं और पद्धतियों से परिचित कराने का है। लेकिन उससे अधिक उसकी ज़िम्मेवारी विद्यार्थी में स्वतंत्र चिंतन और निर्णय के लिए पर्याप्त साहस पैदा करने की भी है। विद्यार्थियों को प्रचलित मत का अनुकरण नहीं करना है बल्कि उसकी पड़ताल करनी है। अध्यापक अपने विचारों को छिपाकर कर यह काम नहीं करते। वे छात्रों को इसके लिए आश्वस्त करते हैं कि वे उनके विचारों से भी अपनी असहमति ज़ाहिर कर सकें, उनसे बहस कर सकें।

विद्यार्थियों के प्रति अध्यापक की दूसरी ज़िम्मेवारी उसे अपनी सुरक्षित सीमाओं से निकल कर अपरिचित या अप्रत्याशित का सामना करने की चुनौती देने की भी है। विद्यार्थियों के पूर्वग्रहों को सहलाकर अध्यापक एक तरह से लोकप्रिय हो सकते हैं लेकिन वे अपने कर्तव्य से धोखा कर रहे होंगे। 

अध्यापक का काम विद्यार्थी को न तो मार्क्सवादी बनाने का है, न गाँधीवादी बनाने का। कुछ बुनियादी मूल्यों के रूप में सजग करने का है जिनके बिना ज्ञान ज्ञान नहीं रहता।


अपने इर्द गिर्द अन्याय, हिंसा को नज़रंदाज़ करके ज्ञान सृजन नहीं किया जा सकता। अगर समाज में असमानता, अन्याय या हिंसा हो तो अध्यापक का एक काम समाज से इनके बारे में बात करने का भी है। उसे समाज को ख़ुद को समझने के लिए तैयार करने का है। समाज ख़ुद को देख सके, अपने निर्णयों की जाँच कर सके, इसके लिए उसकी मदद करना भी अध्यापक का ही काम है।यह कोई अतिरिक्त काम नहीं है। 

आज के भारत में अध्यापक ख़ुद को ख़तरे में डाले बिना इनमें से किसी दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता। कई अध्यापकों ने पूरी परिस्थिति को जानते हुए यह ख़तरा उठाया है। जैसे हैनी बाबू, आनंद तेलतुंबड़े। बहुत से अध्यापक जो उनकी तरह जेल नहीं गए, वे दूसरी प्रताड़ना झेल रहे हैं। शिक्षक दिवस उन्हीं अध्यापकों के नाम। 

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