खबरदार, जल्लाद के घर फांसी के फंदे की बात मत करना
जर्मनी और यूरोप में फासीवाद के उभार के कारणों को समझने की कोशिश करनेवाले अध्येताओं में अग्रणी थियोडोर एडोर्नो का हमारे अपने उर्दू कवि मजाज़ से क्या संबंध हो सकता है? जब हम ‘एसोसिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स’ (ए पी सी आर)के राष्ट्रीय सचिव नदीम खान की दिल्ली पुलिस द्वारा की जा रही प्रताड़ना पर विचार कर रहे थे, एक मित्र ने शरजील इमाम का लिखा एक लेख साझा किया। शरजील नागरिकता संबंधी क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए जेल में 5 साल से जेल में हैं। मुक़दमा अभी शुरू भी नहीं हुआ है। उन पर आतंक पैदा करने का इल्ज़ाम है क्योंकि उन्होंने लोगों को सी ए ए के ख़तरे के बारे में बतलाया। वह इस निज़ाम की निगाह में जुर्म है। शरजील ने अपने पत्र में मजाज़ को उद्धृत किया हैः
'हदें वो खींची हैं हरम के पासबानों ने कि
बिन मुजरिम बने पैगाम भी पहुँचा नहीं सकता।'
पैग़ाम पहुँचाने वाला मुजरिम ठहरा दिया जाता है। शरजील के मजाज़ को पढ़ते हुए थियोडोर एडोर्नो की ये पंक्तियाँ याद आईँ: जल्लाद नाराज़ हो उठता है अगर कोई उसके घर में फाँसी के फंदे के बारे में बात करता है । जल्लाद का आरोप है कि यह उसके खिलाफ आक्रोश पैदा करने की कोशिश है। उसे बदनाम करने की साज़िश है। आप जल्लाद के घर में लटक रहे फाँसी के फंदे का ज़िक्र करके गुनाह कर रहे हैं।
नदीम खान के खिलाफ एफआईआर के बारे में पढ़ते हुए मुझे थियोडोर एडोर्नो की याद आई। लेकिन यह पहली बार नहीं है कि एडोर्नो की ये पंक्तियाँ याद आई हैं। मैं भूल गया हूँ कि इन 10 सालों में कितनी बार उनकी ये पंक्तियाँ मेरे दिमाग में आईं। दोहराव अब हमारी नियति है।
दिल्ली पुलिस ने नदीम खान पर आरोप लगाया है कि वह पिछले दस सालों में देश में हुए घृणा अपराधों का दस्तावेजीकरण और प्रदर्शन करके समाज में दुश्मनी और नफरत पैदा कर रहे हैं। यह एक तथ्य है कि पहलू खान या जुनैद या मोहसिन खान या रकबर या उनके जैसे दर्जनों लोगों को हिंदू भीड़ ने पीट पीट कर मारा है। लेकिन पुलिस को लगता है कि उनके बारे में बात करना नफरत फैलाने का काम है।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह, आदित्य नाथ, हिमंत बिस्वा सरमा और भारतीय जनता पार्टी के अन्य पदाधिकारी मुसलमानों के खिलाफ या तो व्यंजनापूर्ण तरीक़े से या बिलकुल सीधे नफरत भरे भाषण देते रहते हैं। लेकिन अगर आप इसका ज़िक्र करेंगे तो आप पर आरोप लगाया जाएगा कि आप उनके खिलाफ़ नफ़रत पाल रहे हैं और मुसलमानों में उनके खिलाफ़ नफ़रत फैला रहे हैं। यही आरोप नदीम ख़ान पर है। वह जल्लाद के घर में फाँसी की बात कैसे कर सकता है? ऐसा करके वह उनके खिलाफ़ आक्रोश पैदा कर रहा है। पुलिस को डर है कि इससे देश टूट सकता है।
पिछले 10 सालों में कई बार एडोर्नो की याद आई। नदीम खान पर यह जुल्म शुरू होने से पहले, हमें पता चला कि झूठी खबरों का पर्दाफाश करने के चलते मशहूर पत्रकार मोहम्मद जुबैर के खिलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। उनका अपराध क्या था? वह यति नरसिंहानंद द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे भाषणों की ओर कानून और व्यवस्था सँभालनेवाले अधिकारियों का ध्यान आकर्षित कर रहा था।
यति ने यह भाषण दिया है, यह तथ्य निर्विवाद है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यति ने ज़हर उगला था। लेकिन कुछ लोगों इस बात से बुरा लगा कि उसकी नफ़रत का निशाना मुस्लिम समुदाय का कोई व्यक्ति इसकी शिकायत कर रहा था। उसकी हिम्मत कैसे हुई? क्या वह मुसलमानों के खिलाफ़ हिंसा की धमकी देने वाले यति के खिलाफ़ अपने समुदाय की पीड़ा को संगठित करने की कोशिश नहीं कर रहा था? याचिकाकर्ता के अनुसार, जुबैर ने यति के घृणास्पद कृत्य की ओर इशारा करके उनके खिलाफ आक्रोश पैदा किया है। इस कृत्य ने यति के समर्थकों को आहत किया है। वे इस बात से असहमत नहीं हैं कि वह मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाता है, उनके खिलाफ हिंसा का आह्वान करता है। इससे उन्हें क़तई एतराज नहीं।लेकिन वे नहीं चाहेंगे कि कोई मुसलमान इस बारे में बात करे या इसका विरोध करे।
प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी जुबैर के खिलाफ याचिकाकर्ता से सहमत हैं। उनका कहना है कि यति के हिंसक भाषण के खिलाफ कार्रवाई की माँग करके ज़ुबैर ने उनके अनुयायियों की भावनाओं को आहत किया है। किसी आबादी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध है। लेकिन तभी जब आहत आबादी हिंदू हो। बल्कि राज्य ने तो सौ कदम आगे बढ़कर आरोप लगाया कि यति के घृणास्पद कृत्य के बारे में बात करके जुबैर वास्तव में देश की अखंडता और संप्रभुता पर हमला कर रहा है। जुबैर द्वारा न्याय की माँग करना एक देशद्रोही कृत्य बन गया।
जुबैर के लिए यह कोई नई बात नहीं है। नफरत फैलाने वालों को चिह्नित करने के आरोप में उन्हें दो साल पहले जेल में डाला गया था। अदालतों ने उन्हें जेल में रखा और उन्हें शीर्ष अदालत का रुख करना पड़ा, जिसने बाद में उन्हें जमानत देने की कृपा की।पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने पक्षपात के आरोप से अपना बचाव करते हुए दावा किया कि उन्होंने ए से ज़ेड तक को ज़मानत दी है। ज़ेड से ज़ुबैर की तरफ़ इशारा था।
हम नदीम खान और मोहम्मद जुबैर के खिलाफ भाजपा सरकार और भाजपा समर्थकों के गुस्से को समझने की कोशिश करें। उनका कहना है कि मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों के बारे में बात करके वे मुसलमानों को भड़का रहे हैं। अगर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की जाए या उनके खिलाफ नफरत का अभियान चलाया जाए तो वह कानून और व्यवस्था का मुद्दा नहीं बनता, न ही यह किसी भी तरह से राष्ट्र की अखंडता को खतरे में डालता है। लेकिन अगर आप इस तथ्य के बारे में बात करते हैं तो मुसलमानों में ग़ुस्सा भड़कने का डर है। यह भारत की एकता को तोड़ देगा। इस तरह से मुसलमानों की कोई भी शिकायत और मुसलमानों की कोई भी न्याय की माँग राष्ट्रविरोधी, देशद्रोही हो जाती है। राज्य इन न्याय चाहने वाले मुसलमानों की आवाज़ों को चुप कराने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।
भारतीय राजकीय तंत्र की मान्यता यह है कि हिंदुत्ववादी हस्तियों के नफरत भरे भाषण भारत की एकता के लिए खतरा पैदा नहीं करते हैं क्योंकि वे राष्ट्र को निशाना नहीं बनाते। हिंदू तो स्वभाव से अहिंसक होते हैं। नफरत भरे भाषण बस बात की बात हैं: ऐसे भाषण जो कभी वास्तविक हिंसा में नहीं बदल सकते। वे हानिरहित होते हैं। हिंदुओं में जो ग़ुस्सा और हताशा भरी है, बस उसकी भड़ास इन भाषणों से निकाली जाती है। इसके अलावा, जैसा कि दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि अगर ये नफरत भरे भाषण मुस्कुराते हुए दिए जाते हैं तब तो निश्चित रूप से इन्हें घृणा के कृत्य नहीं कहा जा सकता। दूसरा तर्क यह है कि चुनाव जैसे समय में लोगों को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए यह एक रणनीति है। ऐसे भाषण देकर आप अपने लोगों में जोश भरते हैं।
एक धर्म संसद के मामले में जहाँ हिंदुओं को हथियार उठाने के लिए ललकारा गया, दिल्ली पुलिस के हलफनामे में कहा गया था कि यह आयोजन और भाषण अपने धर्म को सशक्त बनाने के बारे में था ताकि वह खुद को उनका सामना करने के लिए तैयार कर सके जो इसके अस्तित्व को खतरे में डाल सकते हैं। “(https://shorturl.at/yopvj)। हथियार उठाने के आह्वान का बचाव करते हुए पुलिस ने कहा कि आख़िरकार भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हिंदुओं द्वारा इस तरह के हिंसक भाषण केवल उस अधिकार का प्रयोग हैं।क्या ऐसे भाषणों के प्रति सहनशीलता नहीं होनी चाहिए?
अधिकांश मामलों में पुलिस और अदालतें यह मानने से इनकार करती हैं कि हिंदू कभी भी हिंसा का इरादा कर सकते हैं, भले ही वे ऐसा ख़ुद कर रहे हों, हिंदुओं को क्रोध या घृणा नहीं होती है, वे स्वभावतः हिंसक नहीं होते ।और हिंदू तो राष्ट्र को नुकसान पहुँचाने के बारे में कभी भी सोच ही नहीं सकते। इसलिए मुसलमानों या ईसाइयों के प्रति उनकी घृणा या उनके खिलाफ हिंसा कभी भी राष्ट्र को नहीं तोड़ सकती। मैं एक प्रमुख राजनीतिक वैज्ञानिक की इस बात को सुनकर हैरान था कि आरएसएस की सांप्रदायिकता सीधे तौर पर विध्वंसकारी नहीं है, क्योंकि यह देश को एक रखने की कोशिश करती है। ऐसा माननेवालों के मन में यह बात कहीं छिपी होती है मुसलमान की हिंसा देश को तोड़ सकती है।
हिंदुओं को स्वभावतः सहिष्णु माननेवाले यह भी मानते हैं कि मुसलमान आसानी से उत्तेजित हो जाते हैं। इसके अलावा उन्हें खुद के लिए बोलने या खुद का बचाव करने की भी अनुमति नहीं है, क्योंकि यह अलगाववाद है। हिंदुओं या आरएसएस के विपरीत उनकी प्रतिबद्धता भारत की एकता से नहीं है। इसलिए, खुद के लिए बोलने का उनका कोई भी कार्य देश को विभाजित कर सकता है और तोड़ सकता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, हिंदू हिंसक होने पर भी भारत की अखंडता को नुकसान नहीं पहुंचाते , लेकिन अगर मुसलमान विरोध करने का सहारा लेते हैं तो इससे भारत के टूटने की संभावना है। इसलिए हिंदुओं और मुसलमानों के कृत्य पर विचार करने के लिए एक ही मानदंड नहीं इस्तेमाल किया जाएगा।
हिंदू जब मुसलमानों के खिलाफ बोलते हैं, वे हिंसा करने के वास्तविक इरादे के बिना खुद को बचाने के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन अगर मुसलमान अगर हिंसा के ख़िलाफ़ बोलें , तो वास्तविक हिंसा भड़कने की संभावना है। दिल्ली पुलिस ने उमर खालिद के खिलाफ यही तर्क दिया है। कि वह सीएए की आलोचना करके, मुसलमानों को सीएए में निहित खतरों से अवगत कराकर और विरोध करने के लिए एक भाषा प्रदान कर अशांति पैदा कर रहा है, उन्हें हिंसा के लिए उकसा रहा है। उमर खालिद, एक मुसलमान, हिंसा का प्रतीक है, भले ही वह हिंसक कार्रवाई के लिए एक शब्द भी न कहे। जब वह शांति की बात करता है, तो उसका मतलब वास्तव में हिंसा होता है। यही बात अदालतों ने भी कही है।
नदीम खान ‘एसोसिएशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स’ के राष्ट्रीय सचिव हैं।वह मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा के कृत्यों का दस्तावेजीकरण करता है। यह सताए गए मुसलमानों के लिए कानूनी रूप से लड़ता है। वह ग़लत तरीक़े से गिरफ़्तार लोगों के लिए, जिनमें प्रायः मुसलमान हैं, जमानत का इंतज़ाम करता है। वह हिंसा के शिकार परिवारों की मदद भी करता है। क्या यह सब अवैध है? नदीम ए पी सी आर के सचिव होने के कारण इन सारे कार्यों की योजना बनाते हैं और इनका संयोजन करते हैं।उन्हें ऐसा करने का अधिकार है या नहीं? या उन्हें मुसलमानों के लिए बोलने और उनके लिए कानूनी लड़ाई आयोजित करने की अनुमति नहीं है?
कम से कम दिल्ली पुलिस के रवैये से यही मालूम होता है। उसका कहना है कि अगर आप प्रमुखतः मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं तो निश्चय ही आपके मन में खोट है। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की बात करते हुए आप क्यों नहीं कभी हिंदुओं के ऊपर हिंसा की बात करते हैं? कोरोना महामारी के समय राहत कार्य करने वालों से दिल्ली पुलिस ने पूछा कि क्यों वे ज़्यादातर मुसलमानों को राहत दे रहे हैं।
नदीम ख़ान से तो पूछा जा रहा है कि वे क्यों मुसलमानों पर अत्याचार की बात कर रहे हैं? लेकिन कभी भी भाजपा या आर एस एस के लोगों से नहीं पूछा जाता कि वे क्यों इतिहास में मात्र हिंदुओं के ऊपर हुए ‘अत्याचार’ का प्रचार करते हैं।
मोहम्मद जुबैर को हिंदुत्ववादियों द्वारा की जा रही नफरत भरी हरकतों के बारे में पुलिस को सचेत करने का अधिकार है या नहीं? नदीम ख़ान को मुसलमानों के लिए न्याय माँगने और आंदोलन करने का अधिकार है या नहीं? क्उन्हें लोगों को यह बताने का भी अधिकार है या नहीं कि वे नफ़रत फैलानेवालों की शिनाख्त करें और उनके पीछे की योजनाबद्धता को समझें?
भारतीय राज्य की समझ है और कई बार अदालतें भी महसूस करती हैं कि मुसलमानों द्वारा न्याय की माँग करते रहना ज़्यादती है। यही बात शीर्ष अदालत ने तब कही थी जब वह 2002 के दंगे में मारे गए अपने पति के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने पर ज़किया जाफ़री से नाराज़ हुई थी: वह क्योंकर 20 साल तक इंसाफ़ की लड़ाई करती रह सकती हैं। अगर एक मुस्लिम महिला इंसाफ़ की ज़िद करती है तो ज़रूर इसके पीछे कोई बड़ी साजिश होगी। और न्याय की इस लड़ाई में एक हिंदू तीस्ता सीतलवाड़ उसके साथ क्यों थी? मुसलमानों के लिए न्याय की माँग करना इस देश में हिंदुओं के लिए स्वाभाविक नहीं है। ज़रूर तीस्ता उस मुसलमान औरत को न्याय के लिए भड़कानेवाली उस साजिश का हिस्सा होनी चाहिए।
नदीम खान और मोहम्मद जुबैर के खिलाफ़ पुलिस की कार्रवाई के पीछे यही तर्क है। हत्यारा कहता है कि आप मेरे द्वारा की गई हत्या के बारे में बात नहीं कर सकते। इससे मेरी छवि ख़राब होती है। इससे मुझे दुख होता है। यह लोगों को मेरे खिलाफ़ कर देता है। मैं अपने समुदाय और अपने देश की खातिर तुम्हारी हत्या कर रहा हूँ। इसके खिलाफ बोलकर तुम देश के खिलाफ बोल रहे हो।
शरजील इमाम, गुलफिशां फ़ातिमा, ख़ालिद सैफ़ी, उमर ख़ालिद हों या नदीम ख़ान और ज़ुबैर, इनका क़सूर यह है कि यह जल्लाद के घर में लटक रहे फाँसी के फंदे की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।
(इस लेख का संपादन यूसुफ किरमानी ने किया)