नस्लीय हिंसा पर क्यों उबल रहा है अमेरिका?
दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही आंगन में गोरे पुलिसकर्मी के घुटने तले दम घुटने से अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में है। यह बात दीगर है कि जनाक्रोश के दबाव में मुल्जिम पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन को गिरफ्तार करके उस पर तीसरे दर्जे के हत्या एवं नरसंहार के आरोप चस्पा किए गए हैं। शॉविन सहित चार पुलिसवालों को निलंबित करके मामले की जांच शुरू कर दी गई है। यह घटना मिनियापोलिस में हुई।
क्षेत्रफल के हिसाब से महादेश कहलाने वाले तमाम जनसंस्कृतियों से युक्त इस देश के आधे से ज्यादा राज्य आजकल नस्लीय नफरत के विरोध की आग में जल रहे हैं।
फ्लॉयड की मौत से गुस्साए लोगों ने विश्व की अकेली महाशक्ति की राजधानी वाशिंगटन डीसी में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के निवास व्हाइट हाउस की चौखट पर भी विरोध-प्रदर्शन किया।
ताज्जुब ये है कि पुलिसकर्मियों ने समझा-बुझा कर परिस्थिति संभालने के बजाय प्रदर्शनकारियों पर सबसे मारक हथियारों के प्रयोग की धमकी दे डाली। ऐसा करके उन्होंने अफ्रीकी अमेरिकियों के दशकों लंबे चले बराबरी के संघर्ष ही नहीं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों अब्राहम लिंकन, जॉन एफ. कैनेडी तथा महात्मा गांधी के अनुयायी व अश्वेत नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की शहादत का भी अपमान किया है।
अफ्रीकी अमेरिकियों ही नहीं, अमेरिका में गोरों से इतर नस्लों के लगभग सभी समुदायों के नागरिकों को नस्लीय नफरत और हिंसा का शिकार होना पड़ा है।
मुसलमान, सिख भी हुए शिकार
भारतीय समुदाय के लोगों को जहां डॉट बस्टर यानी माथे पर बिंदी लगाने के विरोधियों की हिंसा झेलनी पड़ी है, वहीं 9/11 के हमले में न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वा गगनचुंबी इमारतों के जमींदोज हो जाने के बाद मुसलमानों के साथ-साथ अपनी दाढ़ी के कारण सिखों को भी नस्लीय हिंसा झेलनी पड़ी। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान द्वारा अमेरिकी युद्धक जहाजी बेड़े पर्ल हार्बर को डुबोने की प्रतिक्रिया में जापानी मूल के अमेरिकियों को भी गोरों के जबरदस्त गुस्से का शिकार होना पड़ा था।
ट्रम्प द्वारा राष्ट्रपति बनते ही मेक्सिको की सीमा पर दीवार खिंचवाने की कोशिश से उनके मुल्क के भीतर मेक्सिकी मूल के भूरे लोगों पर भी नस्लीय हिंसा हुई।
इस प्रकार देखें तो दुनिया भर से बुद्धिमता, नवाचारी प्रतिभा तथा व्यापारिक गुणों से संपन्न लोगों को अपना नागरिक बनाने के बावजूद ब्रिटिश मूल के आरंभिक तथा अन्य देशों से आकर बसे गोरे निवासियों के वंशज अमेरिका को अपनी जागीर मानने की मानसिकता से नहीं उबर पाए।
ताज्जुब ये है कि अमेरिका की 30 करोड़ से अधिक आबादी में अफ्रीकी अमेरिकियों की संख्या 13 फीसद से भी कम है मगर नस्लीय हिंसा में सबसे अधिक वे ही मारे जाते हैं, चाहे हमलावर आम नागरिक हों या फिर पुलिसवाले।
वीडियो वायरल होने के बाद भड़की हिंसा
अफ्रीकी अमेरिकी फ्लॉयड की मौत पर गुस्सा भड़कने की बड़ी वजह 26 मई के उस वाकये का सेलफोन पर बना वीडियो सोशल मीडिया पर लाखों लोगों द्वारा देखा जाना है। उसमें गोरे पुलिसकर्मी शॉविन के घुटने के नीचे दबे फ्लॉयड के गले से ये आवाज आ रही है, 'प्लीज, प्लीज, प्लीज, आई कान्ट ब्रीद, प्लीज मैन' इसके बावजूद हथकड़ी में पीछे बंधे फ्लॉयड के दोनों हाथों और उसकी गर्दन पर अपना घुटना दबाते हुए शॉविन उसे कह रहा है, 'रिलैक्स' यानी कसमसाओ मत।
मां को याद कर रहा था फ्लॉयड!
इसी बीच फ्लॉयड का शरीर शांत हो गया और एंबुलेंस उसे उठाकर अस्पताल ले गई, जहां डॉक्टरों के अनुसार उसकी मौत हो गई। घटना के वक्त वहां मौजूद शख्स के मुताबिक़, फ्लॉयड उस वक्त अपनी मां को भी याद कर रहा था। फ्लॉयड के परिवार ने मुल्जिम शॉविन की गिरफ्तारी को न्याय की राह में उचित कार्रवाई बताते हुए उस पर जानबूझ कर हत्या करने का मामला दर्ज करने की मांग की है।
अफ्रीकी अमेरिकी बनते हैं शिकार
मिनियापोलिस के पुलिस विभाग के अनुसार, फ्लॉयड की शक्ल दरअसल किसी ऐसे शख्स से मिलती थी जो किसी रोजमर्रा की वस्तुओं वाले स्टोर में नकली नोट चलाने की कोशिश कर रहा था और हथकड़ी लगाने से पुलिसवालों को रोक रहा था। अमेरिका में पुलिसकर्मियों के हाथों होने वाली मौतों में सबसे अधिक संख्या अफ्रीकी अमेरिकियों की ही है।
अमेरिकी शोध एवं पैरवी समूह ‘मैपिंग पुलिस वायलेंस’ के मुताबिक़ साल 2013 से 2019 के बीच अमेरिकी पुलिस ने कुल 7,666 लोगों की हत्या की है। समूह के अनुसार, अमेरिका के सभी 50 राज्यों में अफ्रीकी अमेरिकियों के पुलिस के हाथों मारे जाने की आशंका गोरों के मुकाबले दोगुनी और मिनेसोटा में तो चार गुना है।
कैलिफोर्निया, टैक्सस और फ्लोरिडा जैसे सबसे बड़े राज्यों में पुलिस वालों के हाथों सबसे अधिक संख्या में अफ्रीकी अमेरिकी ही मारे जा रहे हैं।
अश्वेतों की खरीद-फरोख्त
गौरतलब है कि अमेरिका में खासकर दक्षिणी राज्यों में अश्वेतों की गुलाम के रूप में खरीद-फरोख्त का लंबा काला इतिहास है। गुलाम अश्वेतों को जानवरों की तरह जोतकर मीलों लंबे खेतों और बागानों की जुताई कराई जाती थी। उनकी औरतों से खेतों-बागानों में मजदूरी कराने के अलावा उनका दैहिक शोषण भी आम था।
जरा सी कोताही होने पर हंटरों, बंदूक के दस्तों, जूतों की नोक से पीट-पीट कर उन्हें बेहाल कर दिया जाता था। भागने की कोशिश करने पर उनके सीने में सीधी गोली उतार दी जाती थी।
अश्वेत गुलामों को अमेरिकी जमींदार वेस्टइंडीज के द्वीपों से वस्तु विनिमय प्रथा के तहत गन्ने के शीरे के बदले खरीद कर जहाजों में भर कर लाते थे। जहाजों को समुद्र के प्रचंड बहाव में खेने के लिए उनके तहखाने में सैकड़ों की संख्या में अश्वेत गुलामों को भूखे-प्यासे कई-कई दिन तक लगातार चप्पू चलाते रहना पड़ता था।
अश्वेतों को अमेरिकी नागरिक अधिकारों में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए एक सदी से अधिक लंबे समय तक चले संघर्ष में हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
युवा अश्वेत नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में 1960 के दशक के मध्य में अमेरिका में अश्वेतों का अहिंसक संघर्ष चरम पर पहुंचा। उसके पीछे अफ्रीकी अमेरिकी पादरियों के संगठन सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कॉन्फ्रेंस एवं युवा संगठन स्टूडेंट नॉन वायलेंट को-ऑर्डिनेटिंग कमेटी की दशकों की मेहनत थी।
अश्वेत विद्यार्थी भोजन काउंटर के ख़िलाफ़ धरना
वर्ष 1960 में उत्तरी कैरोलाइना में वूलवर्थ के अलग बने अश्वेत विद्यार्थी भोजन काउंटर के ख़िलाफ़ कॉलेज के अफ्रीकी अमेरिकियों ने लंबा धरना दिया, इससे प्रेरित होकर समूचे दक्षिणी क्षेत्र में प्रदर्शन हुए और शासकों पर दबाव बढ़ा। इसके अगले वर्ष ही नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने 'स्वतंत्रता यात्रा' निकालीं जिसके तहत अश्वेतों ने अपने समर्थक गोरों के साथ उनकी अलग बसों में यात्रा कीं।
बड़े-बड़े जुलूस भी निकाले गए, जिनमें 1963 में 'मार्च ऑन वाशिंगटन' यानी वाशिंगटन के लिए कूच के आह्वान के तहत सबसे बड़ा जुलूस निकाला गया। सबको समान अधिकार दिलाने के लिए वाशिंगटन में दो लाख से अधिक लोग जुटे और उन्होंने समता एवं सामाजिक न्याय के लिए गीत गाए और भाषण दिए।
अपने सबसे असरदार भाषण के बूते डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर उस जुलूस से अश्वेतों के सबसे प्रखर प्रवक्ता के रूप में उभरे।
“
मेरा सपना है कि एक दिन जार्जिया के लाल पर्वतों पर पूर्व गुलामों एवं पूर्व गुलाम मालिकों के बेटे भाईचारे की मेज पर साथ-साथ बैठने लायक हो जाएं।'
- डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर
झुकने को मजबूर हुई अमेरिकी सरकार
डॉ. किंग की तो हालांकि 1968 में आंदोलन के दौरान समता विरोधियों ने अब्राहम लिंकन की तरह हत्या कर दी मगर उनकी कही यह बात बराबरी के अधिकार आंदोलन का सूत्र वाक्य बनकर पूरे अमेरिका में छा गई। महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत पर चले अश्वेतों के बराबरी के आंदोलन के आगे आखिर अमेरिकी सरकार को झुकना पड़ा और राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी ने अमेरिकी कांग्रेस में सार्वजनिक स्थानों पर समान व्यवहार के लिए नया नागरिक अधिकार विधेयक पेश किया।
कैनेडी हालांकि 1963 में अपनी हत्या होने तक उसे पारित नहीं करवा पाए मगर उनके उत्तराधिकारी लिंडन बी. जॉनसन ने 1964 में व्यापक प्रभाव वाले नागरिक अधिकार अधिनियम को सीनेट से पारित करवा लिया। इसके तहत सार्वजनिक स्थानों एवं सुविधाओं में अश्वेतों को अलग-थलग करने संबंधी प्रावधानों तथा व्यवस्थाओं को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।
मतदान का मिला अधिकार
1965 के मतदान अधिकार अधिनियम के तहत संघीय सरकार को उन सभी क्षेत्रों में मतदाता पंजीकरण नियुक्त करने का अधिकार मिला जहां स्थानीय अधिकारी अफ्रीकी अमेरिकियों के बतौर मतदाता पंजीकरण में बाधा डाल रहे थे। यह प्रक्रिया 1968 में सिरे चढ़ी और 10 लाख अफ्रीकी अमेरिकियों को मतदान का अधिकार मिला जिससे उनका निर्वाचित प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय निकायों में तेजी से बढ़ा।
इसी की बदौलत 1968 में आवासीय क्षेत्र में भेदभाव पर रोक लगाने का कानून भी अमेरिकी संसद ने पारित कर दिया।
इस सबके बाद भी आम लोगों की सोच बदलने और अफ्रीकी अमेरिकियों के बच्चों को गोरों के बच्चों के समान सुविधाएं दिलाने के लिए सुरक्षा बलों सहित अदालतों और विधायी संस्थाओं को खासा जोर लगाना पड़ा।
अश्वेतों से गैर-बराबरी का भाव जिंदा
अमेरिका में अफ्रीकी अमेरिकियों को प्राप्त बराबर हकों का संदेश दुनिया को देने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी ने हालांकि साल 2008 में अफ्रीकी अमेरिकी उम्मीदवार बराक ओबामा को राष्ट्रपति निर्वाचित करवाया। ओबामा साल 2012 में दुबारा राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। उन्होंने भारतीय संसद में अपने वजूद का श्रेय महात्मा गांधी को देते हुए कहा था कि बापू की बदौलत ही वे उस पद तक पहुंच पाए।
ओबामा के दो बार अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बावजूद अफ्रीकी अमेरिकी जॉर्ज फ्लॉयड के गोरे पुलिस अधिकारी के घुटने तले दम तोड़ने से यह फिर सिद्ध हो गया कि तमाम विधायी और सामाजिक उपायों के बावजूद अमेरिकी पुलिस और प्रशासन में अश्वेतों के प्रति गैर-बराबरी का भाव आज भी मौजूद है।