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क्या भारत हिंसा के दुष्चक्र में फँस गया है?

क्या भारत हिंसा के दुष्चक्र में फँस गया है?

हिंसा के दुष्चक्र में फँस जाने के बाद इससे निकलने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। क्या भारत इस दुष्चक्र से अभी भी निकल सकता है? 

हमें, भारत के लोगों को घृणा और हिंसा की आदत डाली जा रही है। इस हिंसा के संदर्भ में तीन तरह के लोगों में भारतीय समाज बँट गया है। एक जो घृणा के प्रचार और हिंसा में शामिल हैं। इसमें भी दो तरह के लोग हैं। एक जो इसकी योजना बनाते हैं और सुरक्षित रहते हैं, दूसरे, जो इसमें सक्रिय रूप से शामिल होते हैं। जिन्हें इस हिंसा के आयोजन का पूरा संदर्भ पता नहीं लेकिन जो मानते हैं कि इसका निर्णय उन्होंने ही किया है। 

हिंसा इन्हें ताकतवर होने का अहसास या भ्रम भी देती है। चूँकि ये अबाधित हिंसा कर सकते हैं, इन्हें ठीक ही लगता है कि राज इन्हीं का है। इनके पास संख्या बल है, हथियारों का बल भी है। लेकिन ये कभी कभी कानून की पकड़ आ जाते हैं ।   

एक और तरह के लोग हैं जो इस हिंसा का प्रशिक्षण देते हैं। वे उसमें हाथ नहीं लगाते लेकिन हिंसक दिमाग तैयार करते रहते हैं। वे चूँकि कभी सीधे हिंसा में शामिल नहीं होते, इसलिए कानून के दायरे से बाहर रहते हैं। उनके चलते हिंसा का वृत्त बढ़ता रहता है। 

दूसरी तरह के लोग वे हैं जिन्हें इस घृणा या हिंसा का निशाना बनाया जाता है। हर कुछ दिन पर, थोड़े-थोड़े अंतराल पर घृणा और हिंसा झेलते हुए इनमें हीन भाव पैदा होने लगता है। क्रोध व्यर्थ होता है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति का कोई अवसर नहीं। अपने ऊपर हो रही हिंसा का प्रतिकार वे नहीं कर सकते क्योंकि उसे ग़ैरकानूनी माना जाएगा। अपराध भी। 

इस प्रकार हिंसा झेलने को अभिशप्त यह समाज अशक्त महसूस करने लगता है। ताक़त रहते हुए भी ख़ुद को बचा न पाने से पैदा हुई लाचारी एक आत्मघाती हताशा भर देती है। यह समाज सिकुड़ने लगता है और मात्र जीवित बचे रहने के तरीक़े खोजता हुआ मनुष्यता खो बैठता है। 

 - Satya Hindi

यह ख़याल कि उसका जीवन पूरी तरह हिंसक लोगों की मर्ज़ी पर है, ख़ुद को अपनी नज़र में गिरा देता है। इस समाज में इस तरह के लोग भी पैदा हो जाते हैं जो हिंसा करनेवालों की कृपा लेकर सुरक्षित और सुविधापूर्ण जीवन की तलाश करते हैं। वे अपने समाज में तिरस्कृत रहते हैं और इस कारण और भी हिंसक हो उठते हैं। 

ऐसे लोग भी इस समाज में मिल जाते हैं जो इस हिंसा का कारण खुद अपने भीतर खोजने लगते हैं। आखिर क्या वजह है कि उन्हें ही हिंसा झेलनी पड़ती है? कहीं इसकी वजह उनके भीतर तो नहीं? कहीं वे ही तो हिंसा को उकसावा नहीं दे रहे?

तीसरी तरह के लोग वे हैं जो व्यापक तौर पर उसी समाज के हैं जिसके सदस्य हिंसा करनेवाले हैं। इस क़िस्म के लोगों को हिंसा से विरक्ति है। वे घृणा को नापसंद करते हैं। उनके लिए जीवन बेहतर होता अगर घृणा और हिंसा न होती। लेकिन वह है। और उनमें शामिल लोगों से उनका सतही या गहरा रिश्ता है। ये इस हिंसा का विरोध नहीं कर पाते क्योंकि घृणा और हिंसा का समर्थन उनके घर-परिवार, बंधुजन में है। यह बहुत अजीब बात है कि घृणा और हिंसा का विरोध करने में इन्हें संकोच होने लगता है। 

घृणा और हिंसा का समर्थन इतना उद्धत होता है कि उसका विरोध तो दूर, उसकी आलोचना करने से भी अकेले पड़ जाने का भय होता है। इसलिए वे मन ही मन घृणा और हिंसा के खिलाफ होते हुए भी उसे घटित होते देखते रहते हैं। क्या वे इसके हिस्सेदार हैं? क्या इसका विरोध न कर पाने के कारण उनमें भी खुद एक अपराध बोध भरता जाता है? इस अपराध बोध से उबरने के लिए उनमें हिंसा को वैध ठहराने का लोभ भी होता है। 

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इस समूह के लोगों की सहानुभूति हिंसा के शिकार लोगों के प्रति होती है। वे यह सहानुभूति व्यक्त करना चाहते हैं, करते हैं। लेकिन उसमें एक लाचारी होती है इसलिए उनकी यह सहानुभूति निष्क्रिय मालूम पड़ती है। हिंसा के शिकार इस सहानुभूति के लिए क्या उनके शुक्रगुजार हों? वे हिंसा के शिकार लोगों के साथ मित्रता कायम करना चाहते हैं। लेकिन वह रिश्ता दोस्ती और बराबरी का नहीं रह पाता। इस तरह हिंसा की संस्कृति जड़ जमाती जाती है। सामाजिक संबंध हिंसा के जरिए ही बनते हैं। 

मानवीय संबंध का अर्थ ही हिंसक संबंध हो जाता है। मानवीय संबंधों की स्वाभाविकता का समाप्त हो जाना समाज के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना है। 

हिंसा से बदतर होती जिंदगी  

हिंसा के रूप अनेक हो सकते हैं। भागलपुर, नेल्ली, गुजरात, भिवंडी, मुजफ्फरनगर, जैसी हिंसा की बड़ी वारदात के बाद हिंसा के ये तीन समुदाय एक दूसरे से और दूर हो जाते हैं। अखबारी और सरकारी जुबान में भले ही स्थिति सामान्य हो गई हो लेकिन हालात कभी भी हिंसा के पहले की तरह नहीं हो पाते। हिंसा के शिकार लोगों की ज़िंदगियाँ पूरी तरह बदल जाती हैं। मौत, शारीरिक क्षति के अलावा रोजी रोटी के साधनों का तबाह हो जाना। इसके अलावा उन्हें सरकारों को इंसाफ के लिए धकेलते रहना होता है। यानी मुकदमे और लंबे वक्त तक चलते रहते हैं। 

जिन्होंने हिंसा की उनके साथ रहने की मजबूरी। उन्हें पड़ोसी मानने की भी। अपने खिलाफ हिंसा करनेवाले को पड़ोसी न मानने पर उन्हीं की भर्त्सना की जाती है। हिंसक समुदाय धमकी भरे स्वर में माफी माँगता है। वह ‘माफी’ न मिलने पर वह और हिंसक हो सकता है। हिंसा के शिकार लोगों की इंसाफ की माँग जिद मालूम पड़ने लगती है। ऐसी जिद जो कभी अमन नहीं कायम होने देगी।इस तरह हिंसा के शिकार ही समाज में तनाव के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। वे बीती को बिसार नहीं सकते। हमेशा शिकार की बेचारगी ओढ़े रहना चाहते हैं। उनके इस मनहूस रवैये से हिंसा करनेवाले चैन से नहीं रह पाते। और उनमें हिंसा नए सिरे से जन्म लेती है या पहले की हिंसा को एक वैध आधार मिल जाता है। 

हिंसा करनेवाला हमेशा हिंसा के लिए हिंसा के शिकार समूह में कारण खोजता है। अपनी हिंसा के लिए वह उसे ही जिम्मेदार ठहराता है।

भाषाई हिंसा 

हिंसा जब शारीरिक न हो तो वह भाषा के जरिए जारी रखी जाती है। उसे सांकेतिक, प्रतीकात्मक तरीके से बनाए रखा जाता है। इस हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता। जैसा दिल्ली पुलिस के हाल के हलफनामे से जाहिर है, इसे भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति माना जाता है। जो इसका विरोध करते हैं, उन्हें ही असहिष्णु और इस प्रकार हिंसक माना जाता है। भाषाई हिंसा का यह अभ्यास और प्रसार समाज में असमानता पैदा करता है। 

क्योंकि इसका बराबरी से उत्तर देना संभव नहीं। अगर कोई उत्तर दे तो उसे जरूर दंडित किया जा सकता है। भारत में इसके उदाहरण हैं। 

दुनिया के दूसरे देशों में और इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं कि हिंसा के दुष्चक्र में फँस जाने के बाद निकलने के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। क्या भारत इस चक्र में फँस गया है या अभी भी इसे वह तोड़ सकता है?  

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