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किसानों के साथ हिंसा भारत के स्वभाव के साथ हिंसा है

किसानों के साथ हिंसा भारत के स्वभाव के साथ हिंसा है

दिल्ली पहुंचने से पहले किसानों को पंजाब-हरियाणा के शंभू और खनौरी बॉर्डरों पर रोक दिया गया। किसान नेता शंभू बॉर्डर और खनौरी बॉडर पर बैठे हुए हैं। सरकार इस आंदोलन को कुचलने पर आमादा है, वरना किसानों पर रबड़ की गोलियां नहीं चलाई जातीं और किसान की मौत नहीं होती। लेकिन यह नया नहीं है। लेकिन सवाल है कि हम भारत के लोग इसे कब तक बर्दाश्त करेंगे। स्तंभकार वंदिता मिश्रा ने किसान आंदोलन के जरिए अपनी बात रखी हैः

विश्व बैंक में गरीबी, खाद्य व पोषण सुरक्षा पर बने बोर्ड की अध्यक्षता करने वाले जुएर्गन वोएगेले मानते हैं कि "कृषि को दुनिया की कई सबसे गंभीर विकास समस्याओं के समाधान का हिस्सा बनना चाहिए।" मतलब कृषि को उस समूह का हिस्सा होना चाहिए जिसके ऊपर दुनिया की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान खोजने का दायित्व है। जब कृषि और इसको धारण करने वाले किसानों को इतनी तवज्जो दी जाएगी तब कहीं दुनिया अनवरत काल तक भूख मुक्त रह सकेगी वरना आँसू गैस के गोलों की घुटन से पहले दुनिया भूख से बिलबिला उठेगी। 

सरकारी संरक्षण में टीवी मीडिया इस आंदोलन को मात्र हरियाणा और पंजाब का आंदोलन कहकर उन्हे खालिस्तानी और देशविरोधी साबित करने में लगा हुआ है। मीडिया के चर्चित एंकर अपने-अपने आलीशान स्टूडियो में बैठकर ‘ऊपर से आए’ निर्देशों के अनुसार किसानों को अपमानित करने और बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जिन एंकरों को अपने ऊपर एक भी आरोप नहीं चाहिए उन्हे किसानों के ऊपर चल रही गोलियों से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है, आश्चर्य नहीं है? आईपीएस अधिकारियों को पगड़ी में देखकर खुलेआम खालिस्तानी कहने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। 

मुझे लगता है कि यह सब भारत के स्वभाव के साथ हिंसा है, भारत के इतिहास और संस्कृति के साथ हिंसा है इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? यह कहने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि भारत के प्रधानमंत्री समेत उनकी पूरी सरकार भारत की आकांक्षाओं के साथ दुर्व्यवहार कर रही है, साथ ही यह भी कि यह सरकार अब पूर्णतया असफल है। 

एक युवा किसान की मौत हो चुकी है। और सत्ता सहित उसकी पोषित मीडिया द्वारा देश में यह फैलाया जा रहा है कि यह किसान आंदोलन सिर्फ एक क्षेत्र विशेष तक सीमित है? मीडिया के एंकर यह सवाल आए दिन टीवी डिबेट में उठाते हैं कि यह आंदोलन पूरे भारत में तो हो नहीं रहा है? यही एक मुद्दा उठता है कि किसान आंदोलन सीमित क्षेत्रों में है। या तो इतिहास को समझा नहीं गया है या फिर उसे न समझने का ढोंग किया जा रहा है।

सच तो यह है कि कोई भी संगठित आंदोलन एक रूपरेखा के आधार पर चलता है। जिसमें एक आंदोलन का केंद्र होता है और बाकी अन्य जगहों पर ‘समर्थन-आंदोलन’ चलाए जाते हैं, जो स्वरूप में छोटे किन्तु महत्वपूर्ण होते हैं। आंदोलन जोकि लोकतान्त्रिक उद्देश्यों के लिए चलाए जाते हैं, उनको तो छोड़िए इतिहास में जो हिंसक क्रांतियाँ भी हुई हैं वो भी अपने स्वरूप में समांगी नहीं होतीं। 18वीं सदी के आखिरी कुछ दशकों में शुरू हुए सन्यासी ‘विद्रोह’ से लेकर 1857 की ‘क्रांति’ तक कुछ भी ऐसा नहीं था, जो समान रूप से पूरे राष्ट्र में एक जैसा चल रहा हो। 

राष्ट्र में एक जैसा आंदोलन होना और राष्ट्रव्यापी आंदोलन होना दोनो में बड़ा अंतर है। चंपारण जैसे ऐतिहासिक आंदोलन को जो लोग सिर्फ चंपारण से जोड़कर देखते हैं उनका इतिहास बोध रसातल में है। चंपारण भले ही बिहार के एक क्षेत्र की घटना रही हो लेकिन यह अपने स्वभाव में राष्ट्रव्यापी थी। लोकतान्त्रिक उद्देश्यों के लिए चल रहे आंदोलन सदा दो धरातलों पर चलते हैं- पहली उपस्थिति आंदोलन के केंद्र में होती है और दूसरी उपस्थिति मुद्दे से प्रभावित लोगों के हृदयस्थल में होती है।

किसी आंदोलन को समर्थन देने वाले हर व्यक्ति को घर से बाहर निकलकर सड़क पर उतरना होता है, यह अभिव्यक्ति ही मूर्खतापूर्ण है। लेखक लिखकर, आम आदमी चौराहों और दुकानों पर बैठकर, अपना विरोध स्थापित करते हैं। लोकतंत्र में समय आने पर वोटर अपना विरोध, सत्ता के खिलाफ वोट देकर स्थापित करता है। अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन लगभग 3 साल तक चला, उस समय देश की आबादी लगभग 30 करोड़ थी, लेकिन मात्र कुछ लाख लोगों ने सड़क पर उतरकर भाग लिया। क्या इसका मतलब यह था कि करोड़ों लोगों को आजादी नहीं चाहिए थी? नहीं ऐसा नहीं है! आजादी सबको चाहिए थी पर असहयोग आंदोलन का समर्थन करने के सभी के तरीके अलग अलग थे। सौभाग्य से वो सारे तरीके इतिहास में दर्ज किए गए हैं क्योंकि अंग्रेजों के समय भी भारत का मीडिया इस कदर नासूर नहीं था जिस तरह आज है। यदि आज सोशल मीडिया न होता, तो आने वाले 50 सालों के बाद जो लोग इतिहास पढ़ते उन लोगों को यह पता चलता कि यह दौर एक महान शांतिकाल का दौर था और नरेंद्र मोदी की सरकार किसानों की सबसे बड़ी हितैषी थी। लेकिन सौभाग्य से ऐसा नहीं हुआ। 

यही हाल बाद के सविनय अवज्ञा आंदोलन का था। भले ही महात्मा गाँधी ने नमक कानून तोड़ने का आंदोलन दांडी में किया हो, भले ही उनकी दांडी यात्रा में मात्र 78 लोगों ने साथ चलने की शुरुआत की हो, लेकिन इसे 78 लोगों का आंदोलन मान लेना हास्यास्पद नहीं? पूरे देश में तो नमक कानून तोड़ा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि हर जगह समुद्र नहीं है। इसलिए बिहार जैसे राज्यों में चौकीदारी कर्ज न देकर विरोध किया गया। महाराष्ट्र के शोलापुर में शराब की दुकानों के खिलाफ प्रदर्शन किया गया, तो पेशावर में खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में यह नमक सत्याग्रह मजदूरों की दशा सुधारने का आंदोलन बन गया। मुद्दा था ‘सत्ता का विरोध’और गाँधी जी के नेतृत्व में यह विरोध अहिंसक ही होना था। आज किसान भी लगभग यही काम कर रहे हैं जो सरकार से अपना हक मांग रहे हैं, हक की लड़ाई के लिए भारत की राजधानीमें इकट्ठा होना चाहते हैं, वहाँ पहुंचकर सरकार पर दबाव डालना चाहते हैं जिससे जो वादे नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों से किए थे उनको पूरा करवाया जा सके। इसमें क्या आपत्ति हो सकती है? किसान दिल्ली क्यों नही जा सकते? यह राजधानी सिर्फ़ सत्ताधीशों की है क्या? क्या दिल्ली किसानों की नहीं है? दिल्ली तो देश का दिल है ? फिर वहाँ से इतनी नाराज़गी क्यों भेजी जा रही है वहाँ से इतनी निराशा क्यों भेजी जार ही है?

किसान आंदोलन सभी किसानों की लड़ाई है, किसने कहा कि बुंदेलखंड के किसान को अपनी फसल के लिए अच्छा दाम नहीं चाहिए, बिहार के किसान को समृद्ध नहीं होना है, दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के किसानों को तंगी से बाहर नहीं निकलना है, यह सब गैलक्सी दर्जे का मूर्ख ही सोच सकता है। दुर्भाग्य से इस मूर्खता का समावेश मीडिया में ‘फ्लूइड-मोज़ैइक-मॉडल’ की तरह जाकर स्थाई हो गया है।

आम जनमानस को यह समझना चाहिए कि जब कोई परेशान वर्ग सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करता है तो इसका मतलब भारत के खिलाफ प्रदर्शन नही है। वास्तव में यह प्रदर्शन एक राजनैतिक दल के खिलाफ होता है। राजनैतिक दलों के खिलाफ प्रदर्शन के लिए गोलियां चलाना ठीक नहीं। इंग्लैंड की संसद में किसानों पर गोलियां चलाने का मुद्दा उठा है। भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। और इंग्लैंड एक समय भारत के करोड़ों किसानों की मौत का कारण रहा है। इसके बावजूद वहाँ से भी भारत को लज्जित होना पड़ रहा है। नेहरू जी ने कॉमनवेल्थ में शामिल होने के बावजूद यह सुनिश्चितकिया था कि भारत एक संप्रभु राष्ट्र रहेगा। हमारी संप्रभुता हमें सबसे ज्यादा प्यारी होनी चाहिए। लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की यह स्थिति हो गई है कि अन्य देशों की संसद में भारत की ‘हालत’ पर चिंता है। यह चिंता किसी युद्ध कीस्थिति की वजह से नहीं बल्कि भारत में, भारत के नागरिकों पर, भारत सरकार द्वाराउत्पन्न अनावश्यक स्थितियों के कारण है। इंग्लैंड की संसद में भारत के किसानों केसाथ किए जा रहे इस दुर्व्यवहार पर चर्चा हो रही है। यह भारत की संप्रभुता पर खतरा है।

विश्व बैंक मानता है कि- कृषि केवल ग्रामीण गरीबों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है। यह भूख से लड़ने, कुपोषण से निपटने और 2050 तक 900 करोड़ आबादी  तक पहुंचने के लिए खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी महत्वपूर्ण है। कृषि रोजगार भी पैदा करती है - खेतों में, बाजारों में और खेत से खाने की टेबल तक खाद्य श्रृंखला में। और क्योंकि कृषि उन क्षेत्रों में से एक है जो चरम मौसम के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील है और ग्रीनहाउस गैसों में सबसे बड़े योगदानकर्ताओं में से एक है - यह जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में भी महत्वपूर्ण है।

मोदी जी के नेतृत्व वाली इस वर्तमान सरकार को शायद इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी तो असल में आंदोलन को अपराध मानने की परंपरा स्थापित कर रही है। बोलने और लिखने पर लोगों को हतोत्साहित करना, सड़क पर सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन पर लोगों को जेल भेज देना, परीक्षा के पर्चे लीक करने वाले को सजा कब होगी नहीं पता लेकिन जिसने शिकायत की उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करना, महिलाएं यौन शोषण के खिलाफ बाहर आ जायें तो महिलायें खराब, किसान विरोध कर दें तो खालिस्तानी, खिलाड़ी विरोध करें तो नाकाम, राजनैतिक दल विरोध कर दें तो उन्हे भ्रष्टाचारी साबित किया जाना। 

यह सब एक ऐसी परंपरा की ओर ले जा रहा है जहां से भारत के लोग बहुत छोटे नजर आने लगते हैं। सिर्फ सत्ता, उसके करीब रहने वाले चापलूस और पार्टी के चंद आक्रामक कार्यकर्ताओं को छोड़कर बाकी सब इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक समझे जा रहे हैं। यह भविष्य का भारत नहीं एक पिछड़ता हुआ भारत बनाने की नीतियाँ हैं इनसे बचना चाहिए था।

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