बेरोज़गारों को हिंसक धार्मिक भीड़ में तब्दील कर दिया गया?
बीते दिनों बहराइच में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान हुई सांप्रदायिक हिंसा में एक 22 वर्षीय युवा रामगोपाल मिश्रा की मौत हो गई। राम गोपाल को किसी ने गोली मारी थी। इससे पहले राम गोपाल एक छत पर चढ़कर वहाँ मौजूद एक धर्म विशेष के झंडे को उखाड़ रहा था। इसी बीच किसी असामाजिक तत्व ने उसे गोली मार दी। राम गोपाल इस धार्मिक जुलूस का हिस्सा था। सवाल यह है कि धार्मिक जुलूस में किसी अन्य धर्म के झंडे को उखाड़ने की कौन सी परंपरा है? और यह भी कि आज लगभग हर धार्मिक जुलूस के दौरान सांप्रदायिक तनाव पैदा करना इतना आसान कैसे हो गया है? कौन है जो दो समुदायों के बीच झगड़ों की संभावनाओं को धार्मिक त्योहारों के बीच ही तलाशता है? और क्यों?
इन सवालों के जवाब खोजने के लिए भारत की सामाजिक आर्थिक तस्वीर को यहाँ की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के साथ मिलाकर पढ़ना पड़ेगा। मंगलवार को विश्व बैंक ने ‘Poverty, Prosperity and Planet: Pathways out of the Polycrisis’ नाम की एक रिपोर्ट जारी की। इसके अनुसार भारत में लगभग 13 करोड़ लोग ‘अत्यधिक ग़रीबी’ की अवस्था में हैं। अत्यधिक ग़रीबी का अर्थ है कि ये करोड़ों भारतीय नागरिक प्रतिदिन ₹181 रुपये (या $2.15) से कम में अपना जीवन गुज़ारने को बाध्य हैं। यदि ग़रीबी नापने का मानक ₹576 (यानी $6.85) को बना दिया जाय तो भारत में ग़रीबों की संख्या 1990 के आंकड़े को भी पार कर जाएगी। वर्तमान में लगभग 55 करोड़ लोग ऐसे हैं जो प्रतिदिन ₹576 से कम में गुज़र बसर करने को बाध्य हैं।
पिछले कई महीनों से आलू, टमाटर और प्याज जैसी सबसे ज़्यादा ज़रूरी सब्जियां महंगाई के नए-नए आयाम छू रही हैं, खाद्य मुद्रास्फीति दर 5.49% पहुँच चुकी है। जरा सोचकर देखिए कि करोड़ों लोग अपना और अपने परिवार का पेट कैसे भरते होंगे?
यदि पेट भर भी दिया गया तो इस महंगाई में उस भोजन की गुणवत्ता क्या होगी? भारतीयों के वास्तविक आर्थिक हालात कैसे हैं यह तो तब पता चलेगा जब 80 करोड़ लोगों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के तहत राशन मिलना बंद हो जाएगा।
सबसे धनी 1% लोगों के पास 40% संपत्ति
विश्व बैंक की रिपोर्ट उन लोगों पर ‘सर्च लाइट’ डालने का काम कर रही है जो भारत को विश्व गुरु बनाने का सपना दिखा रहे हैं। रिपोर्ट यह भी संकेत दे रही है कि चंद उद्योगपतियों का विकास भारत का विकास नहीं है। इसलिए भारत को आर्थिक असमानता पर काम करने की जरूरत है। रिपोर्ट में भारत के लिए गिनी सूचकांक में वृद्धि दर्शाई गई है, जो इस बात का पुख्ता सबूत है कि भारत में धनी और गरीब के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है। यह असमानता न केवल गरीबी को बढ़ावा देती है, बल्कि सामाजिक गतिशीलता को भी बाधित करती है। इससे पहले ऑक्सफैम की "असमानता रिपोर्ट 2024" इस ओर इशारा कर चुकी है। देश के सबसे धनी 1% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति के 40% से अधिक हिस्सा मौजूद है। जबकि सबसे गरीब 50% आबादी के पास सिर्फ 3% संपत्ति ही है। 2018 से 2022 के बीच, भारत में हर दिन औसतन 70 नए करोड़पति बने।क्या इन करोड़पतियों से गरीबों को कोई फ़ायदा हुआ? इनके पास जिस दर से पैसा आया क्या उसी दर से इन लोगों ने आम भारतीयों को रोजगार मुहैया कराया? एक तरफ़ देश की संपत्ति का केंद्रीकरण हो रहा है, तो दूसरी तरफ़ हर साल 6.3 करोड़ लोग स्वास्थ्य खर्चों के कारण ही गरीबी में पहुँच जा रहे हैं।
जब इतनी भीषण असमानता, ग़रीबी, बेरोजगारी और महंगाई सामने खड़ी होती है तब हर साल करोड़ों की संख्या में तैयार हो रहे युवाओं को राजनैतिक सांप्रदायिकता की ओर धकेलना बहुत आसान होता है।
एक बहुत जायज़ सवाल अक्सर सोशल मीडिया में पूछा जाता है कि इन सांप्रदायिक दंगों में किसी बड़े नेता का लड़का शामिल क्यों नहीं होता? इसमें शामिल होने वाले ज़्यादातर युवा निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से ही संबंधित क्यों होते हैं?
धर्म के हिंसक स्वरूप को ज़मीन पर उतारने के लिए आर्थिक रूप से कमजोर और सामान्यतया बेरोज़गार युवा ही क्यों इस्तेमाल किए जाते हैं?
5 सालों में 3000 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ
बहराइच में हुई हिंसा पूरे भारत के लिए चिंता का विषय है। लेकिन यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले नूंह, हरियाणा (2023), बंगाल रामनवमी हिंसा (2023), जयपुर, राजस्थान (2023), औरंगाबाद, महाराष्ट्र (2023), जहांगीरपुरी, दिल्ली (2022), खरगोन, मध्य प्रदेश (2022) इत्यादि तमाम अनगिनत उदाहरण हैं जो पिछले कुछ वर्षों में हुए। एक आँकड़े के मुताबिक़ भारत में पिछले 5 सालों में लगभग 3000 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ दर्ज हुई हैं। ऐसी हिंसा के दौरान दूसरे समुदाय की आर्थिक स्थिति पर चोट की जाती है, जैसे- उनकी दुकानें जला देना, घर तोड़ देना, सड़क पर लगे ठेले उजाड़ देना और कार इत्यादि जला देना।
प्रख्यात समाज विज्ञानी अशुतोष वार्ष्णेय के अनुसार, भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का एक मुख्य कारण राजनीतिक एजेंडा है। वो कहते हैं कि- राजनीतिक दल अक्सर चुनाव जीतने और समर्थन पाने के लिए धर्म और क्षेत्रीय पहचान का उपयोग करते हैं, जिससे समुदायों के बीच विभाजन पैदा होता है और धार्मिक कट्टरता तथा नफरत को बढ़ावा मिलता है। मुझे नहीं पता कि बहराइच में हुई हिंसा को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए या नहीं लेकिन यह सत्य है कि आगामी नवंबर में उत्तर प्रदेश में उप-चुनाव होने वाले हैं।
चुनाव के समय धार्मिक हिंसा में वृद्धि?
विपक्ष के नेता अखिलेश यादव ने तो आरोप लगाया भी है कि- सरकार चुनावों से पहले साम्प्रदायिक तनाव का माहौल तैयार करने का प्रयास कर रही है। वैसे अखिलेश यादव के आरोप और समाज विज्ञानी स्टीवन विल्किंसन के शोध आपस में जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। विल्किंसन ने अपनी पुस्तक "Votes and Violence: Electoral Competition and Ethnic Riots in India" में यह दिखाया कि कैसे चुनाव के समय धार्मिक हिंसा में वृद्धि होती है। राजनीतिक दल सांप्रदायिक विभाजन कर चुनावी लाभ उठाते हैं, बहुसंख्यक समुदाय के समर्थन के लिए अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है।
हिंसा क्यों बढ़ती है?
अपराधी को सजा मिले यह ‘राज्य’ का काम है। लेकिन जब राज्य बिना न्यायपालिका के अपराधी को ख़ुद चुन ले, तो क्या माना जाएगा कि राज्य निष्पक्ष है और क़ानून सम्मत कार्य कर रहा है? बहराइच मामले में सीएम योगी, मृतक राम गोपाल के परिजनों से मिलकर क्या संदेश देना चाहते हैं कि सांप्रदायिक आग को भड़काने की कोशिश करना कोई अपराध नहीं है? जिसने इस युवा की हत्या की वह तो अपराधी है ही लेकिन जिसने यह सब शुरू किया उसे अपराधी की सीमा से बाहर कैसे किया जा सकता है? यह सिर्फ़ तभी किया जा सकता है जब राज्य अर्थात् सत्ता पक्ष अपना निर्णय, अपना फ़ैसला पहले से चुनकर बैठ गया हो। ऐसा करना राज्य के संस्थागत ढाँचे की चरमराहट का प्रतीक है। विक्रम सिंह मेहता (2017) ने एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला कि “यदि राज्य की ओर से कानून-व्यवस्था की स्थिति प्रभावी नहीं होती है या पक्षपाती होती है, तो हिंसा बढ़ जाती है। कई मामलों में पुलिस या प्रशासन एक समुदाय का पक्ष लेता है, जिससे स्थिति और बिगड़ जाती है”। असल में यह भयावह है क्योंकि करोड़ों की संख्या में रह रहा एक समूह स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है और जब उसे राज्य, क़ानून और संविधान से न्याय मिलने की भी आशा नहीं होती, पक्षपाती व्यवहार ही दिखता है तब उसकी असुरक्षा बढ़ती ही जाती है। यह बात राष्ट्रीय एकता के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है।
बहराइच मामले में प्रशासन न सिर्फ़ बुरी तरह असफल रहा बल्कि उसने समय रहते ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की जिससे एक युवा की जान बचाई जा सके। उस युवा राम गोपाल को किसी की छत पर चढ़ने से पहले रोका जाना चाहिए था या फिर यदि वह चढ़ ही गया था तो उसे तत्काल नीचे लाया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की गई। विवाद को इतना बढ़ने क्यों दिया गया?
लगभग हर बड़े धार्मिक जुलूस में हिंसा भड़क जाती है, इस आधार पर वर्तमान योगी सरकार को एक मज़बूत सरकार के रूप में नहीं देखा जा सकता है। साथ ही यह भी कि जिस तरह पुलिस और प्रशासन एक संस्थागत निरीहता और कमजोरी से गुज़र रहे हैं उससे इस क़िस्म की घटनाएँ होना अपरिहार्य ही है। जेम्स फियरन और डेविड लैटिन (2003) का अध्ययन बताता है कि- “कमज़ोर संस्थानों वाले देशों में साम्प्रदायिक हिंसा की संभावना अधिक होती है, क्योंकि वे विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष को रोकने या न्याय प्रदान करने में असफल होते हैं”। ऐसे में अब मैं आश्चर्यचकित नहीं कि ऐसी घटनाओं की संख्या क्यों बढ़ती ही जा रही है।
धार्मिक राष्ट्रवाद का औज़ार की तरह इस्तेमाल
10 साल पहले जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिवीडेंड) का लाभ देश को दिलाने की बात करने वाले प्रधानमंत्री युवाओं की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके हैं। जहाँ देखो वहीं हजारों-लाखों की संख्या में बेरोजगार युवाओं की भीड़ दिख जाती है। वास्तविकता तो यह है कि जिस देश के युवाओं को तत्काल रोजगार की आवश्यकता है, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और उचित और वहनीय शिक्षा की आवश्यकता है, समृद्ध पोषण की ज़रूरत है उन्हें धार्मिक भीड़ में तब्दील कर दिया गया है। मानवता के आगे धर्म को खड़ा करके लोगों के बीच वैमनस्यता फैलाई जा रही है। राष्ट्र को एक धर्म के खाँचे से देखने की कोशिश की जा रही है और धार्मिक राष्ट्रवाद को औज़ार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। नेताओं को अच्छे से पता है कि यही सांप्रदायिक हिंसा का कारण है। मार्था नुसबौम (2008) ने अपनी पुस्तक "The Clash Within" में लिखा है कि “धार्मिक राष्ट्रवाद, जैसे कि हिंदुत्व, धार्मिक समुदायों के बीच विभाजन को गहरा करता है। चरमपंथी समूह अक्सर अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाते हैं, जिससे हिंसा भड़कती है”।
सवाल यह है कि लोग आसानी से भड़क क्यों रहे हैं? क्या इससे उनका नियमित रोजगार सुनिश्चित हो रहा है? या उन्हें बेहतर सुविधाओं का आश्वासन मिल गया है? अगर नहीं तो फिर क्यों? पॉल ब्रास कहते हैं कि जहां संसाधनों की कमी होती है, वहां समुदायों के बीच आर्थिक संघर्ष साम्प्रदायिक दंगों को बढ़ावा देता है। सच्चाई यही है कि देश आर्थिक विपन्नता से जूझ रहा है, चंद लोगों के हाथों में धन और संसाधन केंद्रित किए जा रहे हैं। स्थिति यहाँ तक आ चुकी है कि दूसरे देशों के प्रमुखों से भारत के पीएम एक खास उद्योगपति को मिलवाते हैं जिससे उसे लाभ हो सके। भारत के प्रधानमंत्री को एक खास व्यक्ति से ही इतना लगाव क्यों है? संसाधन कुछ ही जगह केंद्रित रहें यह विचार सरकार का विचार क्यों बनता जा रहा है? इसका जवाब खोजना चाहिए लेकिन यह तो तय है कि बढ़ती आर्थिक असमानता के बीच सांप्रदायिक हिंसा को आसानी से पोषण प्रदान किया जा सकता है। प्रतिष्ठित विद्वान फ्रांसिस स्टीवर्ट (2008) मानते हैं कि “जब विभिन्न धार्मिक या जातीय समूहों के बीच आर्थिक असमानता होती है, तो यह साम्प्रदायिक हिंसा की संभावना को बढ़ाती है”।
ऐसे ही तमाम अध्ययन हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि बढ़ता हुआ सांप्रदायिक तनाव सिर्फ़ धर्म के बीच का मसला नहीं बल्कि इसमें ग़रीबी, असमानता और बेरोजगारी के पहलू भी स्थायी रूप से गुँथे हुए हैं जिन्हें चुनाव दर चुनाव अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
लोगों को भी यह सवाल पूछना चाहिए कि सांप्रदायिक तनाव/हिंसा होने के बाद दोनों ही पक्षों से किसका नुक़सान होता है? जिसकी मौत होती है क्या वह आर्थिक रूप से समृद्ध होता है? क्या उसके पास एक व्यवस्थित रोजगार उपलब्ध होता है? क्या उसके पास एक आलीशान आवास होता है? क्या उसकी मौत के बाद उसके माता-पिता के पास आराम से जीवन काटने के लिए पर्याप्त धन और संसाधन उपलब्ध होते हैं? और अंत में क्या वह एक उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति होता है? अगर ऐसा नहीं है तो लोगों को फिर से सोचने की जरूरत है कि जिनके पास यह सबकुछ है वो इन धार्मिक जुलूसों और हिंसा में शामिल क्यों नहीं होते?