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बुलडोज़र न्याय देने वाली सरकार क्रूर और ग़ैरक़ानूनी है

बुलडोज़र न्याय देने वाली सरकार क्रूर और ग़ैरक़ानूनी है

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर न्याय पर अपनी राय बहुत स्पष्ट तरीके से बता दी है। इसके बावजूद खासकर यूपी में भाजपा के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री बड़ी ही ढिढाई से बुलडोजर न्याय का बचाव कर रहे हैं। क्योंकि वो जानते हैं कि देश का प्रधानमंत्री इस तरह के क्रूर न्याय से सहमत है। टीडीपी और जेडीयू से आप यह उम्मीद कर ही नहीं सकते कि वो बुलडोजर न्याय का मुखर विरोध करेंगे। टीडीपी का सर्वेसर्वा चंद्रबाबू नायडू खुद आंध्र प्रदेश में विरोधियों पर बुलडोजर चला रहे हैं। 

इंग्लैंड और वेल्स के लॉर्ड चीफ जस्टिस रहे लॉर्ड हैरी वुल्फ़ का मानना है कि “पुरानी घड़ियों की तरह, हमारी न्यायिक संस्थाओं में चिकनाई लगाने, दुरूस्त करने और सही समय पर सेट करने की ज़रूरत है।”

‘बुलडोज़र जस्टिस’ को लेकर 4 सितंबर को जब जस्टिस बी आर गवई और के विश्वनाथन की पीठ ने बोलना शुरू किया तब यह लगने लगा कि न्यायिक संस्थाओं को दुरुस्त रखने का काम, धीमी गति से ही सही, लेकिन जारी है। राज्य सरकारों द्वारा बुलडोज़र के नाम पर ‘न्याय’ करने की बेलग़ाम प्रवृत्ति से सर्वोच्च न्यायालय चिंतित था। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, जो पीठ का नेतृत्व कर रहे थे, उन्होंने कहा, “किसी का घर सिर्फ इसलिए कैसे गिराया जा सकता है कि वह आरोपी है?” उन्होंने आगे कहा कि, “भले ही वह दोषी हो, लेकिन कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।”

शायद यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट इस बुलडोज़र मामले को लेकर कठोर नज़र आ रहा है। इससे पहले 2022 में जब प्रयागराज में रहने वाले जावेद मोहम्मद का घर गिराया गया तब भी न्यायालय ने कहा था कि “विध्वंस कानून के अनुसार होना चाहिए, यह प्रतिशोधात्मक नहीं हो सकता”।

इससे पहले 2019 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अजय माकन बनाम भारत संघ (2019) के अपने ऐतिहासिक फैसले और सुदामा सिंह(2010) मामले में घर गिराने के लिए उचित प्रक्रिया के पालन को आवश्यक माना था। इसके साथ ही उच्च न्यायालय ने पर्याप्त पुनर्वास के बिना बेदख़ली को अवैध करार दिया था। लेकिन ऐसा लगता है कि संवैधानिक न्यायालयों के आदेश गरीब और वंचित समाज के लिए ही हैं, इन्हें सरकारों पर लागू करवाने के लिए शायद किसी अन्य संविधान की आवश्यकता होगी। क्योंकि राज्य सरकारें इन आदेशों के बावजूद अपनी ज़िद पर अड़ी हुई हैं और लगातार तेज गति से बेलगाम होकर घरों को गिराने और बस्तियों को ख़ाली करवाने के लिए बुलडोज़रों का इस्तेमाल कर रही हैं।

हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (HLRN) के अनुसार, देश भर में 2022 और 2023 के बीच सरकारों द्वारा 1,53,820 घरों को ध्वस्त कर दिया गया है, जिसकी वजह से 7,38,438 से अधिक लोग अपने घरों से बेदख़ल हो गये हैं। HLRN के अनुसार, तमाम न्यायालयों के निर्णयों के बावजूद सरकारों द्वारा बेदख़ली की प्रवृत्ति 2017 से 2023 के बीच लगातार बढ़ी है। इसकी वजह से लगभग 17 लाख लोगों को अपने घरों को छोड़ना पड़ा है। सरकार की बढ़ती संवेदनहीनता को देखने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि जहां 2019 में 1,07,625 लोग, 2022 में 2,22,686 लोग वहीं 2023 में आश्चर्यजनक रूप से 5,15,752 लोगों को उनके घरों से बेदख़ल कर दिया गया है। इतने अधिक लोगों को उनके बसे बसाये घर से बेघर कर देना, उनके घरों पर बुलडोज़र चला देना और लोगों को घरों से बेदख़ल कर बेसहारा कर देना कोई सामान्य घटना नहीं है।

यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 ‘जीवन के अधिकार’ का स्पष्ट उल्लंघन है। यह अनुच्छेद अत्यंत व्यापक है और इसे आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है। यह अनुच्छेद ‘निजता का अधिकार’ प्रदान करता है। निजता का संबंध सिर्फ़ डिजिटल निजता से नहीं है बल्कि इसमें मानवीय जीवन में लागू होने वाली हर क़िस्म की निजता शामिल है।

यदि किसी व्यक्ति का घर छीन लिया गया है तो क्या उसके निजता का अधिकार सुरक्षित रह सकता है? यह अनुच्छेद तो ‘सामाजिक न्याय और आर्थिक सशक्तिकरण का अधिकार’ देता है। किसी का घर गिरा देने से उसको सामाजिक न्याय कैसे मिलेगा? घर गिर जाने के बाद उसका आर्थिक सशक्तिकरण कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा? इसी तरह किसी का घर गिरा देने के बाद उन्हें ‘साफ़ पानी’, उनके ‘बच्चों का विकास’, ‘बच्चों को शिक्षा’, घर में रहने वालों की ‘स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच’ जैसे अनुच्छेद-21 के आयामों को कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा? है कोई उपाय?

अनुच्छेद-21 कहता है कि "किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा।" इसका अर्थ है कि किसी स्पष्ट क़ानून के अभाव में लोगों को उनके जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। फ्रांसिस कोरली मुलिन बनाम दिल्ली संघ शासित प्रदेश (1981) मामले में, न्यायालय ने माना कि किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने की कोई भी प्रक्रिया उचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए, न कि मनमानी, सनक से भरी या काल्पनिक! 

इससे पहले मेनका गांधी मामले(1978) में भी सुप्रीम कोर्ट ने लगभग यही कहा था कि किसी व्यक्ति को जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए कानून के तहत कोई भी प्रक्रिया अनुचित या मनमानी भरी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जिस तरह संविधान की शपथ लेने वाले मुख्यमंत्रियों को ‘बुलडोज़र बाबा’ और ‘बुलडोज़र मामा’ कहकर पीठ थपथपाई जा रही है उससे लगता नहीं कि संविधान की आत्मा की किसी सरकारी प्रतिनिधि को फ़िक्र भी है।

पिछले दो वर्षों में, 59 प्रतिशत बेदखली झुग्गी या भूमि निकासी, अतिक्रमण हटाने या शहर के सौंदर्यीकरण के पहल की आड़ में हुई। बीते 19 जून को लखनऊ के अकबरनगर में बुलडोज़र चलाया गया था। राज्य सरकार ने 1,169 घरों और 101 व्यावसायिक प्रतिष्ठानों सहित लगभग 1,800 संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया। योगी सरकार इस क्षेत्र को कुकरैल रिवरफ्रंट के रूप में विकसित करना चाह रही है क्योंकि उसे इस क्षेत्र को इकोटूरिज्म के अनुकूल बनाना है। वहाँ रहने वाले गरीब निवासी सहज रूप से एक सवाल पूछ रहे हैं कि उन्हें यहाँ किसने रहने दिया? किसने उनके कागज बनाये? और सबसे अहम सवाल कि अधिक महत्वपूर्ण कौन सी बात है, एक गरीब व्यक्ति का घर या रिवरफ्रंट?” पर सरकार इस सहज सवाल का सही जवाब तय ही नहीं कर पा रही है वह यह निश्चित ही नहीं कर पा रही है कि अकबरनगर को ध्वस्त करने के पीछे कारण क्या बताये जायें। उनके एक प्रवक्ता को नदी की ईकोलॉजी के साथ-साथ रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों की भी बहुत चिंता है।  

राज्य का भूमि पर अधिकार है। अवैध अतिक्रमण को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन जब सरकार के तंत्र के माध्यम से ही झुग्गियाँ या बस्तियाँ बनी हों और तथाकथित अवैध निर्माण हुआ हो तो सजा सिर्फ़ ग़रीबों को ही क्यों मिल रही है? सरकार को भी सजा भुगतनी चाहिए। सजा के तौर पर आवश्यक रूप से ऐसे लोगों के पुनर्वास को क़ानूनी बनाना होगा।

 सुदामा सिंह(2010) और अजय माकन(2019) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य के अधिकारियों को घरों को तोड़ने, झुग्गियाँ ख़ाली करवाने और घरों से बेदख़ल करने से पहले सभी के पुनर्वास का आदेश दिया था। अगर सभी सरकारों द्वारा ऐसा नहीं किया गया और राज्य अपनी मनमानी लगातार करता रहा तो आने वाले समय में एक करोड़ सत्तर लाख से अधिक लोग सड़कों पर आ जाएँगे।

बुलडोज़र ‘न्याय’ के संबंध में दो बातें बिलकुल स्पष्ट हैं। पहला तो यह कि इसका सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव मुस्लिम समुदाय पर हुआ है और दूसरी बात यह कि ऐसी सबसे ज़्यादा घटनाएँ उन राज्यों से सामने आयी हैं जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।

उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश का यह मामला देखिए। मंडला जिले में 15 जून को मुसलमानों के 11 घरों को ढहा दिया गया, पुलिस ने दावा किया कि उनके रेफ्रिजरेटर में गोमांस मिला है। यहाँ महत्वपूर्ण बात तो यह है कि दावे की पुष्टि हुए बिना ही ‘सजा’ कैसे दे दी गई? दूसरी बात यह कि क्या किसी के फ्रिज में गोमांस मिलने के कारण उसका घर गिरा दिया जाएगा? सजा का यह क्रूर और भयावह रूप क़ानून सम्मत भी है?  यदि यह क़ानून सम्मत नहीं है तो सवाल यह है कि जो सरकार क़ानून के अनुसार नहीं चल रही है उसे सत्ता में बने रहने का अधिकार कैसे है? बुलडोज़र के माध्यम से मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है यह बात तमाम अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स से भी पुष्ट होती है। एक रिपोर्ट में, एमनेस्टी इंटरनेशनल की महासचिव एग्नेस कैलामार्ड ने कहा कि "भारतीय अधिकारियों द्वारा मुस्लिम संपत्तियों का अवैध विध्वंस, जिसे 'बुलडोजर न्याय' के रूप में प्रचारित किया जाता है, क्रूर और भयावह है। इस तरह का विस्थापन और बेदखली बेहद अन्यायपूर्ण, गैरकानूनी और भेदभावपूर्ण है।"

इस क्रूरता को संरक्षण सिर्फ़ राज्य स्तर पर ही नहीं बल्कि इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व से भी शाबाशी आ रही है। संविधान को मज़ाक़ बना रही सरकार इतनी निर्लज्जता करेगी कभी किसी ने सोचा था? नहीं सोचा होगा।

हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेहद असंवेदनशील टिप्पणी करते हुए कहा कि "अगर सपा और कांग्रेस सत्ता में आती हैं, तो रामलला फिर से टेंट में होंगे और इन पार्टियों की सरकार आयी तो ये राममंदिर पर बुलडोजर चलाएंगे। उन्हें योगी आदित्यनाथ से इस बात का ट्यूशन लेना चाहिए कि कहां बुलडोजर चलाना चाहिए और कहां नहीं।" यहाँ प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि ‘एक मुख्यमंत्री’ यह तय करे, न कि कानून तय करे कि किसका घर गिराना है, किसका नहीं! क्या प्रधानमंत्री यह भी कहना चाहते हैं कि स्वयं मुख्यमंत्री ही कानून हैं?

मैंने कभी नहीं सोचा था कि 140 करोड़ आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला नेता इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करेगा। मुझे एक ही बात समझ में आती है कि कोई केंद्रीय नेता जिसकी लोकप्रियता इतनी अधिक हो, जब ऐसी भाषा का इस्तेमाल करता है तो वह वास्तव में यह कहना चाहता है कि देश संविधान और क़ानून से नहीं बल्कि ‘मनमानी’ वाले तरीक़े से चलेगा। साथ ही वह यह आशय भी प्रकट करता है कि क़ानून एक समुदाय, एक पक्ष के साथ भले ही न खड़ा हो पर दूसरे समुदाय, दूसरे पक्ष के ख़िलाफ़ खड़ा ही रहना चाहिए। यह बहुत निराशाजनक है लेकिन आज की राजनैतिक सच्चाई यही है।

चाहे दिल्ली का ग्यासपुर हो, तुगलकाबाद हो या मुंबई के पवई में दलित बस्ती का हो जहां पर 3500 लोगों को बेघर कर दिया गया था, न्यायालय ने उस समय पीड़ित लोगों का, वंचितों और ग़रीबों का साथ नहीं दिया जबकि मामला अवैध अतिक्रमण से ज़्यादा ‘जीवन के अधिकार’ और ‘न्याय पर भरोसे’ का था। HLRN के आंकड़ों पर न्यायालयों को ध्यान देना चाहिए जिससे उन्हें पता चल सके कि इस बुलडोज़र न्याय से पीड़ित लोगों में कैसे और कौन से भारतीय हैं। आँकड़े कहते हैं कि ‘बुलडोज़र’ से 44 प्रतिशत मामलों में मुस्लिम सबसे अधिक प्रभावित रहे। मुस्लिम समुदाय से आगे बढ़ते हुए, अनुसूचित जनजातियों और आदिवासी और जनजातीय समुदायों के लोग कम से कम 23 प्रतिशत मामलों में प्रभावित हुए, इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (17 प्रतिशत) और अनुसूचित जाति (5 प्रतिशत) के लोग प्रभावित हुए।

स्पष्ट है कि यह बुलडोज़र न्याय की व्यवस्था न सिर्फ़ संविधान के ख़िलाफ़ है बल्कि यह देश का निर्माण करने वाले, देश की रीढ़ कहे जाने वाले ग़रीबों, दलितों और अन्य वंचित समुदायों के सीधे ख़िलाफ़ है। रिवरफ़्रंट बनाने के लिए हज़ारों घर तोड़ देना न्याय हो ही नहीं सकता भले ही निर्माण वैध रहा हो या अवैध। जिस कार्य के लिए नेतृत्व और प्रशासन ज़िम्मेदार है उसके लिए ग़रीबों को सजा देना, संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में भारत को कमजोर कर रहा है। इसे मज़बूती से रोका जाना चाहिए।

(वंदिता दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार है। सत्य हिन्दी पर उनका विमर्श कॉलम हर हफ्ते प्रकाशित होता है।)

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