क़ब्रिस्तान में डायलॉग बोलने का हुनर सीखा कादर ख़ान ने
क़ब्रिस्तान में उस लड़के को अभिनय के साथ-साथ जोर जोर से डायलॉग बोलते देख हमउम्र लड़के उसका ख़ूब मज़ाक उड़ाया करते थे। मोहल्ले के बड़ों ने जब उसे कब्रिस्तान के सन्नाटे में जोर-जोर से बोलते सुना तो उसकी माँ को बताया गया कि उनका बेटा पागल हो गया है। अभिनय से जुनून की हद तक प्यार करने वाला यह लड़का क़ब्रिस्तान में इसलिए जाता था कि वहाँ कोई उसका मज़ाक उड़ाने वाला नहीं था। माँ ने बेटे से कहा था कि तुम जो चाहे करो लेकिन पढ़ाई मत छोड़ना। इस लड़के का नाम था कादर ख़ान।
काबुल से मुंबई आया था परिवार
मुंबई के कमाठीपुरा इलाक़े में रहने वाले दस साल के कादर ख़ान को क़ब्रिस्तान में डायलॉग बोलते और अभिनय करते देखने वाले लोगों में से एक शख़्स उन्हें मोहल्ले के एक नाटक ग्रुप में ले गया। यहीं से कादर ख़ान की लेखन और अभिनय की विधिवित ट्रेनिंग शुरू हुई। 1937 में काबुल में पैदा हुए कादर ख़ान का शुरूआती जीवन बेहद ग़रीबी में बीता। ग़रीबी से लड़ने के लिए ही उनका परिवार काबुल से मुंबई आया था लेकिन ग़रीबी दूर नहीं हो सकी।
पॉलिटेक्निक में शिक्षक भी रहे
कादर ख़ान को नाटक ग्रुप के जरिये एक सहारा मिल चुका था। स्कूली किताबों से अलग वहाँ उनका परिचय कहानी, उपन्यास और शायरी से हुआ। अपनी माँ की बात को ध्यान में रखते हुए कादर ख़ान ने बुरे से बुरे आर्थिक दौर में भी स्कूली पढ़ाई जारी रखी। पढ़ाई खत्म करने के बाद वे एक पॉलिटेक्निक में शिक्षक हो गए।
लेकिन नाटकों से उनका रिश्ता दिन-ब-दिन मजबूत होता चला गया। उनका लिखा एक नाटक ‘लोकल ट्रेन’ एक प्रतियोगिता में पुरस्कृत किया गया। इस प्रतियोगिता की ज्यूरी में मशहूर लेखक और फ़िल्मकार राजेंद्र सिंह बेदी, उनके बेटे नरेंद्र बेदी और कामिनी कौशल शामिल थे। नरेंद्र बेदी ने कादर ख़ान की प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें अपने साथ फ़िल्म ‘जवानी दीवानी’ के संवाद लिखने का काम दिया।
दिलीप कुमार ने दिया मौक़ा
कादर के एक और नाटक से प्रभावित हो कर दिलीप कुमार ने उन्हें अपनी फ़िल्म बैराग और सगीना में अभिनय करने का मौक़ा दिया। लेकिन राजेश खन्ना अभिनीत फ़िल्म दाग कादर ख़ान के अभिनय की पहली प्रदर्शित फ़िल्म थी। फ़िल्मी दुनिया में लेखक के रूप में कादर ख़ान की पहचान मजबूत करने वाली पहली फ़िल्म मनमोहन देसाई की रोटी (1973) साबित हुई। इसके बाद वे मनमोहन देसाई की हर फ़िल्म का हिस्सा बनने लगे।
संवाद लेखक के तौर पर कादर ख़ान की लोकप्रियता का कारण बना उनकी आम बोलचाल की भाषा, जो सबकी जबान पर चढ़ जाती थी। उनके संवाद लेखन की ताक़त का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अस्सी के दशक में पर्दे पर अमिताभ का क़द बुलंद बनाए रखने में कादर ख़ान के संवादों का अहम हाथ रहा। मिस्टर नटवर लाल, शराबी, कुली, देश प्रेमी, लावारिस, सुहाग, गंगा जमना सरस्वती, सत्ते पे सत्ता, नसीब और मुकद्दर का सिकंदर सहित अनेक फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन को कादर ख़ान के संवादों का सहारा मिला।
कादर ख़ान के डायलॉग आम बोलचाल की भाषा में होते थे और ये बहुत जल्द सबकी जबान पर चढ़ जाते थे। अस्सी के दशक में अमिताभ का क़द बुलंद बनाए रखने में कादर ख़ान के डायलॉग्स का अहम हाथ रहा।
अस्सी के दशक के अंतिम साल और नब्बे का दशक हिंदी फ़िल्मों के लिए सबसे ख़राब समय था। फ़िल्म फ़ाइनेंसरों, निर्माताओं और निर्देशकों की ऐसी पीढ़ी सामने आ चुकी थी जिनके साहित्यिक सरोकार ना के बराबर थे। नैतिकता और मूल्यों के उनके अलग पैमाने थे। वे किसी भी हाल में हिट फ़िल्म चाहते थे। बॉलीवुड के हिट फ़िल्मों के सारे फ़ॉर्मूले फ़ेल हो चुके थे। ऐसे में द्विअर्थी संवाद, अश्लीलता और भोंडे हास्य का सहारा लेकर फ़िल्म लोकप्रिय कराई जाने लगी।
बोलचाल की भाषा में लिखे डायलॉग
उस दौर के सबसे कद्दावर संवाद लेखक कादर ख़ान ने निर्माताओं की माँग पर गली-मोहल्ले और नुक्कड़ों पर बोले जाने वाली बातों को और धारदार बना कर संवाद लिखने शुरू किए। अपने सवादों के सहारे गोविंदा और शक्ति कपूर के साथ मिल कर उन्होंने पर्दे पर धमाल मचा दिया। नब्बे के दशक की पीढ़ी आज भी कादर ख़ान को नहीं भूल पाई है।
लेकिन सबका एक दौर होता है। कादर ख़ान का दौर भी चुकने लगा। कादर के द्विअर्थी संवादों और भोंडी कॉमेडी की जम कर आलोचना हुई। तब तक कादर ख़ान सर्वश्रेष्ठ संवाद, सर्वश्रेष्ठ कॉमेडी और सर्वश्रेष्ठ सहायक भूमिकाओं के लिए कई बार फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड हासिल कर चुके थे। शुरूआती जीवन के अभावों को दौलत और शोहरत ख़त्म कर चुकी थी। कादर ख़ान को फ़िल्मों में काम तो मिल रहा था लेकिन अधिकतर अभिनय का। 1997 में उनकी 17 तो 1998 में 14 और 1999 में 12 फ़िल्में रिलीज हुईं।
फिर शिक्षा की ओर लौटे कादर
फिर भी फ़िल्मी दुनिया में खुद को मिसफ़िट महसूस करने वाले कादर ख़ान ने एक बार फिर शिक्षा का दामन पकड़ा और सउदी अरब में इस्लामी अध्ययन के शिक्षण का काम करने लगे। फिर दुबई में उन्होंने फ़िल्म मेकिंग का इंस्टीट्यूट स्थापित किया। कुछ साल पहले एक बड़ी सच्चाई के रूप में यह अफ़वाह फैली कि कादर ख़ान की मौत हो गई है। इससे कादर ख़ान और उनके परिवार को बहुत तकलीफ़ हुई।
इस बीच कादर ख़ान फ़िल्मों में अभिनय भी करते रहे। अभिनय के अपने पुराने जोड़ीदार शक्ति कपूर के साथ ‘मस्ती नहीं सस्ती’ (2017) में नज़र आए। इससे पहले हो गया ‘दिमाग का दही’ (2015) और ‘दिल भी खाली जेब भी खाली’ (2014) में भी कादर ख़ान ने अभिनय किया। 81 साल के कादर ख़ान ने भले ही दुनिया को अलविदा कह दिया हो लेकिन अपने संवाद, दमदार अभिनय के दम पर वह हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में जिंदा रहेंगे।