जगदीप: क्या आप मानेंगे जगदीप ने नंदा के सामने हीरो का रोल किया था!
1975 में आयी फ़िल्म ‘शोले’ की सफलता ने कई चरित्र अभिनेताओं को ख़ूब शोहरत दी। मौसी के किरदार में लीला मिश्रा हों, रहीम चाचा के किरदार में ए. के. हंगल या सूरमा भोपाली के किरदार में जगदीप। हालाँकि ये सभी मंझे हुए कलाकार थे और बहुत पहले से ही हिन्दी फ़िल्मों में सक्रिय थे। जगदीप सूरमा भोपाली के किरदार से हिंदुस्तान के घर-घर में लोकप्रिय हो गए लेकिन सिने प्रेमियों का दिल वह 22 साल पहले आई फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ में लालू उस्ताद के किरदार से ही जीत चुके थे। जिन लोगों ने ‘दो बीघा ज़मीन’ देखी है, वे इस बात से सहमत होंगे कि फ़िल्म में बलराज साहनी के बाद जगदीप का किरदार ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो पूरी फ़िल्म की रोचकता में चार चाँद लगा देता है।
29 मार्च 1939 को दतिया में जन्मे जगदीप का वास्तविक नाम सैय्यद इश्तियाक अहमद जाफरी था। भारत के विभाजन के बाद जगदीप के परिवार को बहुत समस्याएँ झेलनी पड़ीं। उनका परिवार बिखर गया। कुछ लोग पाकिस्तान चले गए। आख़िर जगदीप की माँ को मुंबई आना पड़ा। कम उम्र में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई इसलिए उनकी माँ ने एक यतीमख़ाने में खाना बनाने का काम करके अपने बच्चों की परवरिश की। जगदीप जब थोड़े बड़े हुए तो अपनी माँ के संघर्ष को देख वे भी धनोपार्जन के उद्देश्य से छोटे-मोटे काम करने लगे।
फ़िल्म ‘आर-पार’ में ईलाइची की भूमिका में वे गुरुदत्त से कहते हैं कि ‘उन्होंने चना बेचा, कुल्फी बेची, जूना-पुराना पेपर बेचा और तो और सनीमा के सामने खड़े रहकर गाने की चोपड़ी तक बेची’, यह बात उनके वास्तविक जीवन के बारे में भी सही है।
फ़िल्मों में काम करने से पहले उन्होंने टीन का, पतंगें बनाने तथा सड़क पर कंघी बेचने का काम भी किया। उन्हीं दिनों बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म ‘अफसाना’ में बच्चे की भूमिका के लिए उपयुक्त पात्र की तलाश में फ़िल्म इकाई से जुड़ा एक व्यक्ति उन तक पहुँच गया। उस व्यक्ति ने नन्हें जगदीप से फ़िल्मों में काम करने के लिए पूछा। फ़िल्मों से अनभिज्ञ जगदीप 3 रुपए के लिए फ़िल्म में काम करने को राज़ी हो गए। फ़िल्म में उन्हें अन्य कई बच्चों के साथ नाटक के दर्शक की भूमिका में बैठना था किन्तु नाटक में अभिनय करने वाले बच्चे के उर्दू संवाद ठीक से न बोल पाने के कारण जगदीप को संवाद बोलने का अवसर मिल गया। जगदीप के घर में उर्दू ही बोली जाती थी इसलिए पहली बार में ही उन्होंने सही संवाद बोल दिया। यह देखकर सहायक निर्देशक यश चोपड़ा ने उन्हें फ़िल्म के लिए संवाद बोलने की अनुमति दे दी और पहले से सुनिश्चित 3 रुपए से दोगुना पारिश्रमिक भी दिया।
फ़िल्मों में उन्हें उर्दू भाषा पर अच्छी पकड़ का भी लाभ मिला। कई दूसरे अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी उन्होंने उर्दू का सही उच्चारण सिखाया। अपने से लगभग दस वर्ष बड़े सुनील दत्त को उनकी पहली फ़िल्म ‘रेलवे प्लेटफ़ॉर्म’ में सही उच्चारण के साथ संवाद अदायगी निर्देशक रमेश सहगल के कहने पर, उन्होंने ही सिखाई।
फ़िल्म ‘अफसाना’ के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कम उम्र में ही और फ़िल्मों से कोई संबंध न होने के बाद भी उन्होंने अपनी शुरुआती फ़िल्मों से ही प्रभावी अभिनय किया। ‘अफसाना’ के बाद उन्होंने फणी मजूमदार की फ़िल्म ‘धोबी डॉक्टर’ में किशोर कुमार के बचपन की भूमिका अदा की। इस फ़िल्म में बाल कलाकार के रूप में आशा पारेख ने भी उनके साथ काम किया था। इस फ़िल्म में उनके अभिनय से प्रभावित होकर बिमल रॉय ने अपनी फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ के लिए उनका चयन किया। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान बिमलदा भी उनकी कलात्मकता के कायल हो गए।
फ़िल्म में लालू उस्ताद द्वारा एक पुराने गीत ‘अँखियाँ मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं जाना’ की तर्ज़ पर ‘कलकत्ता में आई के, पॉलिश न कराई के, चले नहीं जाना’ को गाने का विचार जगदीप का ही था। जगदीप की इस सलाह को बिमलदा भी इंकार न कर सके और उन्होंने इसे स्वीकृति दे दी। ‘दो बीघा ज़मीन’ के बाद अपनी फ़िल्म ‘नौकरी’ में भी उन्होंने जगदीप को लिया।
उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘आर-पार’ में वे महान अभिनेताओं बलराज साहनी और गुरुदत्त के सामने कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ते और उनके स्तर का ही अभिनय करते दिखाई पड़ते हैं। पचास-साठ के दशक के कई बड़े निर्देशकों जैसे ख्वाजा अहमद अब्बास, बिमल रॉय, मनमोहन देसाई आदि के साथ उन्होंने काम किया। एवीएम की फ़िल्म ‘हम पंछी एक डाल के’ में उनके अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई। यह फ़िल्म तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरुजी को इतनी पसंद आई कि उन्होंने जगदीप को अपनी छड़ी भेंट कर दी। इस फ़िल्म में उन पर फ़िल्माया मोहम्मद रफी द्वारा गाया गीत ‘हम पंछी एक डाल के’ बहुत लोकप्रिय हुआ। उन पर फ़िल्माए रफी के अन्य गीत ‘चली-चली रे पतंग मेरी चली रे’, ‘पास बैठो तबीयत बहल जाएगी’ तथा ‘प्यार किया नहीं जाता’ आदि भी ख़ूब सराहे गए।
जगदीप ने फ़िल्मों में मुख्य भूमिकाएँ भी निभाईं। फ़िल्म ‘भाभी’ और ‘बरखा’ में वग अभिनेत्री नन्दा के हीरो रहे। बाद में कई नए अभिनेताओं के आ जाने पर 1968 में आई ‘ब्रह्मचारी’ से उन्होंने हास्य भूमिकाएँ निभाना शुरू कर दिया।
उस समय हिन्दी फिल्मोद्योग में पहले से ही स्थापित हास्य अभिनेताओं के सामने टिकना चुनौतीपूर्ण काम था लेकिन जगदीप ने इस चुनौती को स्वीकार किया और इसमें सफल भी हुए। आम भारतीयों के मन में उनकी छवि कॉमेडियन की ही है। इन्हीं हास्य भूमिकाओं का एक पड़ाव ‘शोले’ का ‘सूरमा भोपाली’ का किरदार है जो पूरे भारत में आज भी याद किया जाता है।
राजकपूर के रूस में लोकप्रिय होने की बात तो हम जानते हैं लेकिन जगदीप भी वहाँ खूब लोकप्रिय रहे हैं। ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म मुन्ना (1954) में उनके अभिनय से खुश होकर मास्को के बच्चों ने अब्बास के माध्यम से एक लाल रुमाल बतौर भेंट जगदीप को भेजा था। आजकल फ़िल्म उद्योग में निर्माताओं द्वारा कलाकारों के शोषण का मुद्दा चर्चा में है। जगदीप भी इसका शिकार हुए थे। एवीएम निर्माता कंपनी के साथ अपने क़रार के चलते उन्होंने ‘धर्मपुत्र’ और ‘जंगली’ जैसी फ़िल्में छोड़ दीं। बाद में एवीएम की एक फ़िल्म को करने से मना करने पर जगदीप को कंपनी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र शुरू हो गए। इसके बाद उनको फ़िल्मों में काम मिलना बंद हो गया। लंबे अरसे के बाद उन्होंने कॉमेडियन के रूप में अपनी नई पारी शुरू की।
वैसे तो जगदीप ने लगभग 400 फ़िल्मों में अभिनय किया लेकिन उनकी कुछ उल्लेखनीय फ़िल्में हैं- दो बीघा ज़मीन, रेलवे प्लेटफ़ॉर्म, नौकरी, मुन्ना, आर-पार, पापी, भाभी, सोहलवाँ साल, ब्रह्मचारी, जीने की राह, जिगरी दोस्त, दो भाई, आँसू और मुस्कान, शराफत, आन-बान, खिलौना, घर-घर की कहानी, अनमोल मोती, अपना देश, रोटी, विदाई, स्वर्ग-नर्क, कुर्बानी, विधाता, शहंशाह, चाइना गेट, रिश्ते, सुरमा भोपाली आदि। एक चरित्र अभिनेता के रूप में उनको सदैव याद किया जाएगा।