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बगिया का लालच!

बगिया का लालच!

त्रिवेणी नाट्य समारोह में बहुचर्चित नाटक ‘बुड्ढा मर गया’ का मंचन हुआ। शानदार प्रस्तुति, गहरे सामाजिक संदेश और सशक्त अभिनय ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

इस बार का त्रिवेणी नाट्य समारोह अब अपने उत्तरार्ध की ओर है। इसमें कई तरह के नाटक हो रहे हैं जिसकी वजह से इसमें विविधता और रोचकता भी बनी हुई है। इस समारोह में हुआ ताजा नाटक है `बुड्ढा मर गया’ जिसके निर्देशक हैं दिनेश अहलावत। नाम की वजह से कुछ लोगों को भ्रम हो सकता है इसलिए बता दिया जाए कि ये बंगाली नाटककार मनोज मित्र के `शाजानो बागान’ का सांत्वना निगम द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद है। और लगे हाथ ये बताना भी जरूरी होगा कि हिंदी में इसे `बगिया बांछाराम की’ नाम से कई बार खेला गया  है और इसकी कई लोकप्रिय प्रस्तुतियां अलग अलग निर्देशकों द्वारा हो चुकी हैं। बंगाली में तपन सिन्हा इस पर `बांछारामेर बागान’ नाम से एक फिल्म भी बना चुके हैं। 

`बगिया बाछाराम की’ एक जबर्दस्त कॉमेडी है और इसका नया रूप `बुड्ढा मर गया’ भी हंसी- मजाक से लबालब हैं। वैसे दिनेश अहलावत खुद उन निर्देशकों में हैं जो दिल्ली में कॉमेडी के लिए चर्चित रहे हैं। वे क़ॉमेडी का एक समारोह भी करते हैं। उनके पास अच्छे अभिनेताओं की एक टोली है जो कॉमेडी के लिए जरूरी है। दिनेश खुद भी अभिनय करते हैं। इसमें भी उन्होंने निर्देशन के साथ साथ अभिनय किया है।

`बुड्ढा मर गया’ बांछाराम नाम के एक बूढ़े शख्स की कहानी है जो लगभग मरनासन्न है। उसकी उम्र 95 साल हो चुकी है। उसके पास का एक बाग है जिससे उसे काफी लगाव है। इस पर चकोरी नाम के एक जमींदार की आंख गड़ी थी। जमींदार ने बहुत कोशिश करता है कि बांछाराम उसे बाग दे दे। पर बांछाराम ऐसा नहीं करता। फिर जमींदार मर जाता है और मरने के बाद भूत बन जाता है। फिर भी उसे अफसोस होता रहता है कि बगिया उसकी नहीं हुई। अब उसके बेटे नकोरी की भी निगाह बाग पर है इसलिए वो बांछाराम को लालच देता है कि जब तक वो जिंदा है उसे हर महीने कुछ पैसे देता रहेगा और मरने के बाद बाग जमींदार का। 

बांछाराम पहले ना नुकूर करता है लेकिन पैसे के लालच में वो मान जाता है और करारनामे पर अपने अंगुठे के निशान देता है। नकोरी को लगता है कि दो-तीन महीने की तो बात है। इतने में तो बांछाराम मर ही जाएगा। लेकिन ये क्या? बांछाराम नकोरी के पैसे से हलवा -पुड़ी खाकर स्वस्थ होता जाता है। और उधर नकोरी इस गम में घुलता जाता है और अंत में होता ये है कि बांझा राम ने जिस खास दिन को मरने का वादा किया था वो उस दिन नहीं ऐसा नहीं करता और ये देखकर नकोरी को इतना धक्का लगता है कि खुद वही मर जाता है। बांछाराम की बगिया से ही नकोरी की अरथी निकलती है। 

नाटक में मुख्य कथा के साथ साथ कुछ दूसरी अन्य कथाएं हैं। एक तो बांछाराम के नाती गोपी की जिस पर बांझाराम को शुरू में यकीन नहीं है लेकिन जब वो एक लड़की को ब्याह कर ले आता है तो मामला बदल जाता है। गोपी की पत्नी पदमा बांछा राम को अच्छा खिलाती पिलाती है इसलिए वो लगातार स्वस्थ होता जाता है। दूसरी कथा जमींदार नकोरी के दोनों बेटों की है जो बेहद नालायक हैं और अपने पिता को ही तंग करते रहते हैं। चूंकि ये नाटक मुख्य रूप से बांछाराम पर केंद्रित है इसलिए जो अभिनेता इसका चरित्र निभाएगा वो बेहतरीन न हो तो नाटक का भट्ठा बैठ जाएगा। 

 - Satya Hindi

बांछाराम की भूमिका में अभिषेक दुबे हैं जिन्होंने अपने चरित्र को इस तरह पेश किया कि शुरू से अंत तक दर्शक हंसते रहते हैं। बांछाराम शुरू में निरीह दिखता है और जैसे जैसे नाटक आगे बढ़ता है उसके बोलने और खड़े होने के हावभाव बदलने लगते हैं। उसका कायाकल्प होता जाता है। अंत में जब वो साफा बांधे और जैकेट पहने मंच पर आता है तो हंसी के फव्वारे छूटने लगते है। यहां नाटक के वेशभूषा विभाग को भी दाद देनी पड़ेगी।

 दूसरी प्रमुख भूमिक जमींदार नकोरी की है जिसे दिनेश अहलावत ने निभाई है। नकोरी के हाव भाव भी नाटक के दौरान बदलते रहते हैं। जब वो शुरू में बांझाराम को पैसा देने आता तो वो आत्मविश्वास से भरा रहता है। एकदम चौड़ा। पर बांछाराम की तंदरूस्ती देखकर आहिस्ता आहिस्ता वो निस्तेज होता जाता है,. उसकी दबंगई भी मुरझाने लगती है। बाकी के कलाकार भी अपनी अपनी भूमिकाओं में प्रभावशाली हैं।

नाटक के कुछ दृश्य बड़े मजेदार हैं। कई बार ऐसा होता है कि बांछाराम के हाल जानकर निगोरी उन रुदालियों को बुला लेता है जो मरने के बाद घरों में रोने के लिए बुलाए जाते हैं। पर जब जब ये रुदाली आते हैं और रोने का नाटक शुरू करते हैं तो बांझाराम सामने आ जाता है और ये घोषणा कर देता है कि वो ज़िंदा है। इसी कड़ी में अंत वाला दृश्य तो पराकाष्ठा है। इसमें होता ये है कि बांछाराम की इच्छा के मुताबिक नकोरी उसकी अंतिम यात्रा का बहुत अच्छा इंतजाम करता है। एक बहुत अच्छी खाट मंगवाता है। अरथी के लिए। उस पर बहुत अच्छी चादर बिछवाता है, घी भी मंगवाता है। बहुत सारे गुब्बारे मंगवाकर अरथी को सजवाता है और लोगों के बीच मिठाई भी बंटवाता है। इसीलिए कुछ मिठाइयां दर्शकों को भी मिलती है। और उसके बाद जो होता है उसका दर्शक सहज ही अनुमान कर लेता है।

 नाटक के सेट को न्यूनतम रखा गया है। पार्श्व में कुछ छोटे छोटे पेड़ पौधे रख दिए हैं ताकि बाग का माहौल बना रहे। फिर एक खाट है जो बांझाराम के बैठने और लेटने के काम आता है। कुछ और फर्नीचर भी हैं जो नकोरी के घर का वातावारण रचते हैं। भूत के वेश मे चकोरी की भंगिमाएं भी  लुभानेवाली हैं।

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