`ताज महल का टेंडर’ – एक लंबी औऱ सफल नाट्ययात्रा

07:46 am Sep 14, 2024 | रवीन्द्र त्रिपाठी

हिंदी में अक्सर शिकायत की जाती है कि हमारे यहां जो बेहतर नाटक होते भी हैं उनकी ज्यादा प्रस्तुतियां नहीं हो पातीं। अच्छे अच्छे नाटक  भी पंद्रह बीस प्रस्तुतियों के बाद बंद हो जाते हैं। लेकिन इस धारणा के अपवाद भी हैं और कुछ ऐसे नाटक भी हैं जो लंबे समय से खेले जा रहे हैं और कई साल पहले लिखे जाने के बावजूद उनकी प्रस्तुतियां लगातार हो रही हैं। इनमें एक है `ताज महल का टेंडर’। अजय शुक्ला का लिखा ये नाटक छब्बीस साल पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) में पहली बार खेला गया था। 1998 में। निर्देशक थे चित्तरंजन त्रिपाठी।  चित्तरंजन तब राष्ट्रीय रानावि से स्नातक बने ही थे और उसके  रंगमंडल के कलाकार थे। रंगमंडल के लिए उन्होंने इस नाटक का  निर्देशन किया। संगीत भी चित्तरंजन का ही था। पहले शो से ही ये सुपरहिट  साबित हुआ। फिर लगातार खेला जाता रहा। रंगमंडल में जब बाद में नए कलाकार आते गए तब भी इसका प्रदर्शन होता रहा। और रंगमंडल के बाहर दूसरे निर्देशकों ने भी इसे खेला और सबकी प्रस्तुतियां सफल ही रही हैं। यही कारण रहा कि इसके कई भाषाओं में अनुवाद हुए। भारतीय भाषाओं में भी और विदेशी भाषाओं में भी। ऐसी कोई सफलता पिछले कई बरसों से हिंदी के किसी और नाटक को नहीं मिली।

इस बार भी जब रंगमंडल अपने अस्तित्व की षष्ठिपूर्ति मना रहा है तो फिर से ये नाटक रानावि के अभिमंच में मंचित हुआ। और फिर से सुपरहिट हुआ। इस बार एक और खास बात थी। निर्देशक तो वही थे यानी चित्तरंजन त्रिपाठी जो इन दिनों रानावि के भी निदेशक हैं। लेकिन छब्बीसवें  साल (वैसे रानावि की तरफ से इसे पच्चीसवां साल कहा गया क्योंकि परिपाटी यही है) के इस मौके पर इसके पांच प्रमुख अभिनेता वही थे जो पहली प्रस्तुति में थे- श्रीवर्धन त्रिवेदी, पराग शर्माह, बृजेश शर्मा, राजा शर्मा और कविता कुंद्रा। इनके अलावा चित्तरंजन त्रिपाठी ने भी इसमें शाहजहां का किरदार निभाया।

`ताजमहल का टेंडर’  नाटक के पीछे मूल विचार ये है कि मुमताज महल के निधन के बादशाह शाहजहां के मन में खयाल आय़ा है कि क्यों न अपनी प्रिय बीबी की याद में ताजमहल बनवाया जाए। इसी मकसद से वो अपने दरबारियों की राय के मुताबिक अपने राज्य के मुख्य इंजीनियर गुप्ता को  बुलाता है और उससे कहता है कि इसे बनाने की तैयारी करे। फिर क्या? इंजीनियर गुप्ता  नौकरशाही के दांवपेंच को आजमाते हुए कई साल तक इसे इतना लटकाता है कि ताजमहल बनवाने के लिए  जिस दिन टेंडर निकलता है उसी दिन बादशाह की मौत हो जाती है। हालांकि इस बीच गुप्ता ताजमहल बनाने के लिए होने वाले खर्च से अपने लिए एक   बड़ा बंगला बनवा लेता है और उसके मातहत भी कमाई करते रहते हैं। उसका प्रिय ठेकेदार भी मालामाल होता रहता है।

ये एक हास्य नाटक है और इसका शाहजहां ऐतिहासिक मुगल बादशाह शाहजहां नहीं हैं। बस उसके नाम का इस्तेमाल हुआ है। इसमें औऱंगजेब जैसे कुछ और भी पात्र हैं जो इतिहास से लिए गए हैं लेकिन वे भी ऐतिहासक नहीं है। ये पात्र इतिहास से उठाए गए जरूर हैं पर नाटक के स्तर पर उनके चरित्र कल्पना के आधार पर गढ़े गए हैं। जैसे औरंगजेब लगातार गिटार बजाता हुआ दिखता है। इसके कई पात्र नितांत समकालीन हैं जैसे ठेकेदार, नेता, चपरासी, गुप्ता और उसका सहयोगी, विजिलेंस अधिकारी, पर्यावरण – विभाग का अधिकारी, नेता आदि। 

मूलत:  ये नाटक  इस विचार पर आधारित है कि आज के भारत में नौकरशाही की ताकत इतनी बढ़ गई है कि वे किसी काम को पूरा करने में नहीं बल्कि लटकाने मे लग जाते हैं ताकि ऊपरी कमाई होती रहे है। इसके लेखक अजय शुक्ला एक वरिष्ठ रेलवे अधिकारी रहे हैं और नौकरी के दौरान एक दिन वे अपने विभाग के किसी निर्माण कार्य की देरी से इतने खीज गए कि उन्होंने अपने कुछ साथियों से कहा कि आज के जमाने में अगर शाहजहां जिंदा होता तो अपने जीते जी ताजमहल नहीं बनवा पाता। बस यहीं से यानी अपने ही कथन से उनको खयाल आया कि क्यों न इसपर एक नाटक लिखा जाए। फिर उन्होंने ये लिख भी  दिया।

हर अच्छी कॉमेडी की तरह इस नाटक में इतनी गुंजाइश है कि निर्देशक अपने समय और अपनी कल्पनाशक्ति के मुताबिक इसमें कुछ संवाद या नए दृश्य अपनी तरफ से जोड़ ले। इस बार की प्रस्तुति में भी ऐसे कुछ संवाद थे जो 1998 वाली प्रस्तुति में नहीं थे। इसीलिए आज का दर्शक अपने समय के हालात से इस नाटक को जुड़ जाता है और ठहाके लगाता है। जब रंगमंडल में इसकी पहली प्रस्तुति हुई थी तो बादशाह का किरदार महेंद्र मेवाती ने निभाया था जिनका कुछ साल पहले निधन हो गया। वो भी भूमिका इस बार चित्तरंजन त्रिपाठी ने निभाई। औऱ क्या गजब की निभाई! हंसते हंसते दर्शकों का बुरा हाल हो गया। साथ ही अन्य पुराने अभिनेताओं- श्रीवर्धन  त्रिवेदी, कविता कुंद्रा, पराग शरमाह, राजा शर्मा और बृजेश शर्मा अपने पुराने फॉर्म में थे। जिन्होंने इस पहली प्रस्तुति को देखा था और इस बार भी देखा उनके लिए इनमें दोहरा मजा था। पुरानी याद ताजा करने का और इस नाटक में मौजूद स्थायी रस का आस्वाद लेने का।

कोई नाटक तभी लंबे समय तक लोकप्रिय और प्रासंगिक रहता है जब उसमें तीन चीजों का समन्वय हो। पहली तो यही कि वो ठीक से लिखा गया हो और उसका कथ्य लोगों को छूता हो। दूसरा ये कि उसके निर्देशक में ये क्षमता हो कि नाटक के अंतर्वस्तु को ठीक ढंग से पेश कर सके। औऱ तीसरा ये कि उसके अभिनेता ऐसे दक्ष हों कि लेखक की कल्पनाशीलता और निर्देशक के मंतव्य को बेहतर ढंग से दर्शकों तक संप्रेषित कर सकें। सौभाग्य से `ताजमहल का टेंडर’ के साथ ये तीनों चीजें हुईं। ये आने वाले बरसों में भी खेला औऱ सराहा जाएगा। ये एक सदाबहार नाटक है।