
संत ज्ञानेश्वर, एंथनी शेफर और साँप सीढ़ी
कोई संबंध नहीं है। दोनों दो देशों के हैं। दो भाषाओं के। एक का संबंध भारतीय धर्म और संस्कृति से है। दूसरे का आधुनिक ब्रितानी समाज और रंगमंच से। पर कला की ये ताक़त है कि दो भिन्न-भिन्न चीजों को जोड़ सकती है। इस बार के यानी 2025 के `आद्यम थिएटर फेस्टिवल’ के तीसरे नाटक में यही हुआ। नाटक का नाम `सांप सीढ़ी’ जिसे शुभ्र ज्योति बाराट ने निर्देशित किया। पर ये एंथनी शेफर के अपराध- हत्या- रहस्य आधारित अंग्रेजी नाटक `स्लूथ’ का हिंदी रूपांतर था। ये दीगर बात है कि आजकल कुछ रूपांतरकार ब्रोशरों में अपने को लेखक के रूप में पेश कर देते हैं। शायद इसीलिए `सांप सीढ़ी’ के ब्रोशर में आकर्ष खुराना का नाम लेखक के रूप में गया है। हालांकि वे रूपांतरकार हैं और रूपांतर का काम उन्होंने बहुत अच्छा किया है। नाटक का निर्देशन भी उत्कृष्ट है। भव्यता लिए हुए। और अभिनय तो बेहतरीन है ही। दो ही अभिनेता हैं- कुमुद मिश्रा और सुमित व्यास। दोनों मंजे हुए। इस नाटक को इन दोनों ने मिलकर एकदम झकास बना दिया है।
अब आप पूछेंगे कि इसमे मराठी और भारत से संत ज्ञानेश्वर कहां से आ गए? तो बता दिया जाए कि मराठी संत ज्ञानेश्वर ने सांप-सीढी का खेल ईजाद किया था जिसे आज भी देश भर में बच्चे खेलते हैं। हालाँकि कुछ लोग ये भी मानते हैं कि ये भारत में बहुत पहले से खेला जाता रहा है। वैसे ये खेल अब विदेशों में भी खेला जाता है। लेकिन मराठी जन मानस में यही प्रचलित है कि इसे संत ज्ञानेश्वर ने अपनी छोटी बहन को पाप पुण्य के क्या हानि-लाभ है, इसे बताने के लिए इसका प्रयोग किया था। खेल बड़ा रोचक है और इसमें एक बोर्ड होता है जिसे अलग-अलग रंगों के टोकनों और एक पासे के सहारे खेला जाता है। ज्ञानेश्वर ने इसकी ये व्याख्या की थी अगर आप पुण्य करते हैं तो धर्म की सीढ़ियां आपको ऊपर ले जाती हैं और पाप करते हैं तो अधर्म रूपी सांप आपको नीचे ले जाते हैं। इस धारणा को एंथनी शेफर के नाटक पर लागू करते हुए इसका रूपांतरण किया गया।
नाटक में दो चरित्र हैं। एक है अनिल वाधवा (कुमुद मिश्रा) जो बी ग्रेड की फ़िल्मों का अभिनेता रह चुका है। दूसरा है मंयक तिवारी (सुमित व्यास)। एक और चरित्र भी है जिनका नाम है कविता वाधवा। लेकिन वो कभी मंच पर नहीं आती। उसका उल्लेख होता है और नाटक के अंत में उसकी सिर्फ़ आवाज़ सुनाई देती है। लेकिन मंच पर अनुपस्थित होकर भी वो उपस्थित है क्योंकि उसी को लेकर इस नाटक की कहानी आगे बढ़ती है। कविता वाधवा अनिल वाधवा की पत्नी है लेकिन पति पत्नी के बीच संबंध काफी ख़राब हो गए हैं। कविता अब अनिल को छोड़कर मंयक से शादी करना चाहती है जो एक आर्किटेक्ट है। इसी सिलसिले में मंयक अनिल वाधवा को समझाने उसके घर आता है ताकि कविता को आसानी से तलाक मिल सके। पर वहां अनिल उसकी हत्या कर देता है। हालाँकि नाटक में हत्या वाले प्रसंग को काफी नाटकीय बनाया गया है। ये हत्या पहले प्रयास में नहीं होती बल्कि दूसरे में होती है। इस बीच दोनों- यानी अनिल वाधवा और मंयक तिवारी एक दूसरे के साथ खेल खेलते हैं। कौन जीतेगा इस खेल में?
अनिल वाधवा मयंक तिवारी के सामने ये प्रस्ताव रखता है कि वो यानी मंयक वाधवा के घर में चोरी करने का नाटक करे। फिर खेल खेल नहीं रहता एक दूसरे को फँसाने का माध्यम बन जाता है। साथ ही इसमें प्रेम, विवाह, ईर्ष्या, द्वेष, मर्दानगी आदि जैसे मसले भी उभरते हैं। बीच में पुलिसिया तहकीकात के तरीक़े भी सामने आते हैं।
ये बात भी उभरती है कि क्या परिवारों में एक-दूसरे के साथ रहते-रहते पति-पत्नी के बीच वक़्त बीतने के साथ अविश्वास भी उभरने लगता है। विशेषकर, जब पति चालाकी शुरू करता है तो क्या उसे ये एहसास होता है कि वो उसे छोड़कर जा सकती है? पति, यदि वो अहंवादी है, तो क्या कभी ये स्वीकार कर पाता है कि कोई दूसरा पुरुष उसकी पत्नी को पा ले। ऐसी स्थिति में वो अपने अहम का विस्तार करते हुए अपराध की तरफ़ बढ़ने लगता है और उसके अंदर बदले की भावना आकार लेने लगती है। क्या वो कभी अपने बारे में तर्कसंगत ढंग से सोच भी पाता है?
नाटक में पर्याप्त हास्य भी है। खासकर, उस प्रसंग में जब सुमित व्यास एक पुलिस इंसपेक्टर के रूप में आते हैं और अनिल वाधवा से सवाल जवाब करते हैं। यहां भारतीय पुलिस की तिकड़में भी दिखती हैं और हास्य भी। यहां दोनों- यानी सुमित व्यास और कुमुद मिश्रा- दोनों अपने-अपने किरदारों में एक-दूसरे को छकाने और फँसाने की जुगत में हैं। खेल शुरू हो जाता है। कौन सफल होगा और कौन असफल - इसकी प्रतिद्वंद्विता आरंभ हो जाती है। और क्या जो जीतता हुआ दिखता है वही असली विजेता है? कहने की आवश्यकता नहीं कुमुद मिश्रा और सुमित व्यास अपने-अपने अभिनय से मंच पर ऐसा माहौल रच देते हैं जिसमें दर्शक को लगता है कि वो एक दंगल देख रहा है जिसमें दो पहलवान एक-दूसरे को छकाने और पटकने की तैयारी कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि `स्लूथ’ पहली बार हिंदी रंगमंच पर हुआ है। लखनऊ के रंगकर्मी और अब दिवंगत राज बिसारिया ने भी इसे भारतीय परिवेश में रूपांतरित किया था। रूपांतर राजू शर्मा का था जो अब हिंदी के एक प्रतिष्ठित उपन्यासकार भी है। बिसारिया साहब की ये प्रस्तुति कुछ साल पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से आयोजित होनेवाले भारत रंग महोत्सव में भी खेली और सराही भी गई थी।
1970 में प्रकाशित `स्लूथ’ पर इसी नाम से दो बार फ़िल्में बन चुकी हैं। पहली बार 1972 में और दूसरी बार 2007 में। 1972 में जो फ़िल्म बनी थी उसमें लॉरेंस ओलिवर और माइकेन आमने सामने थे। 2007 वाली फ़िल्म में माइकेल केन और जूड लॉ थे। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि ये नाट्यालेख पश्चिम में भी कितना लोकप्रिय रहा। हालाँकि वहाँ जो इसकी व्याख्या हुई वो यौन- राजनीति पर ज़्यादा केंद्रित हुई। यानी युवा और प्रौढ़ पुरुष के बीच औरत किसकी ओर ज़्यादा झुकती है या किसे पसंद करती - इस पर जोर था। खेल वहां भी था पर चूहे और बिल्ली का। लेकिन शुभ्रज्योति बाराट ने इसे सांप- सीढ़ी के खेल के सांचे में ढाल दिया है ताकि इसकी व्याख्या नैतिकता- अनैतिकता के दायरे में हो। और ऐसा होना अनुचित भी नहीं, क्योंकि एक कृति का कई तरह से आस्वाद लिया जा सकता है।