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तमिलनाडु में वन्नियार का 10.5% आरक्षण असंवैधानिक ः सुप्रीम कोर्ट

तमिलनाडु में वन्नियार का 10.5% आरक्षण असंवैधानिक ः सुप्रीम कोर्ट

वन्नियारों के लिए तमिलनाडु का 10.5 प्रतिशत आरक्षण असंवैधानिक घोषित किया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने आज तमिलनाडु के वन्नियार समुदाय के लिए घोषित 10.5 फीसदी आरक्षण असंवैधानिक घोषित कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि तमिलनाडु सरकार डेटा के साथ यह साबित करने में विफल रही कि वन्नियार को एमबीसी के भीतर एक अलग समूह के रूप में माना जाना चाहिए। एमबीसी कोटे के भीतर 10.5% कोटा प्रदान करने का कोई आधार नहीं है।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के नवंबर के फैसले को बरकरार रखा जिसमें आरक्षण को असंवैधानिक बताया गया था। राज्य सरकार, पट्टाली मक्कल काची (पीएमके), जो वन्नियारों का प्रतिनिधित्व करती है, और कई लोगों ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर की थी। जस्टिस राव, जिन्होंने फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को पढ़ा, जिसमें कहा गया कि 2021 का राज्य कानून संविधान के अधिकार के दायरे में नहीं है, क्योंकि वन्नियार समुदाय को एक अलग श्रेणी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है। मोस्ट बैकवर्ड क्लास (एमबीसी) के लिए 20% कोटे के भीतर वन्नियारों को 10.5 फीसदी आरक्षण देने वाला कानून फरवरी 2021 में विधानसभा चुनाव से पहले पारित किया गया था। इसे सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट में एकसाथ चुनौती दी गई थी।

जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में सुनवाई की अनुमति देते हुए कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। नवंबर में हाईकोर्ट ने पूर्व के एआईएडीएमके शासन के दौरान पारित 10.5% कोटा कानून को चुनावों की घोषणा के कुछ दिनों पहले अवैध बताया था क्योंकि "अत्यधिक पिछड़ेपन" को मापने के लिए डेटा नहीं था, इसलिए यह अवैध था। यानी अदालत ने यह जानना चाहा था कि आखिर किस डेटा के आधार पर वन्नियार का पिछड़ापन तय किया गया और उन्हें आरक्षण दिया गया।

तमिलनाडु सरकार ने तर्क दिया कि 1957 में तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों के समकक्ष एमबीसी की पहचान की गई थी। हालांकि इसमें छूआछूत की वजह शामिल नहीं थी। तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2012 में 20% कोटे के भीतर वन्नियारों के लिए 10.5% तक के आंतरिक कोटा की सिफारिश की थी। इसने 2021 में एमबीसी कोटे के भीतर कोटा लागू करने के लिए आगे बढ़ाया। गैर-अधिसूचित समुदायों के प्रतिनिधियों ने इसके खिलाफ मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की।

आयोग को 2012 में 20% कोटे के भीतर आंतरिक आरक्षण देने के लिए कहा गया था। 1994 में, एक कानून जरिए एमबीसी के लिए 20% आरक्षण प्रदान किया गया था। सरकार ने दावा किया कि 1992 के इंदिरा साहनी फैसले ने राज्यों को जातियों को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति दी थी। 16 दिसंबर को, बेंच ने कानून के तहत की गई सभी नियुक्तियों और दाखिलों को सुरक्षित रखा। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य को आगे कोई भी नियुक्ति या प्रवेश करने से रोक दिया। यह आदेश इसलिए आवश्यक था क्योंकि हाईकोर्ट में मामला लंबित रहने के दौरान लगभग 75,000 छात्रों ने इस कानून के तहत लाभ प्राप्त कर प्रवेश लिया था।

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