स्टेडियम का नाम बदलना आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा?
मोदी सरकार ने अहमदाबाद स्थित वल्लभभाई पटेल स्टेडियम का नाम बदलकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम कर दिया है। हालाँकि कई मंत्रियों से सफ़ाई दिलवाई गई है कि नाम बदला नहीं गया है और स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स का नाम अभी भी सरदार पटेल के नाम पर ही है, मगर सचाई यही है कि स्टेडियम पहले पटेल के नाम से जाना जाता था और अब उसे मोदी के नाम से जाना जाएगा।
सरकार के इस क़दम से बहुत सारे लोगों को हैरत हुई है तो कई ने सवाल भी खड़े किए हैं। हैरानी की मुख्य रूप से दो वज़हें हैं। अव्वल तो यह कि जब कोई नेता किसी पद पर आसीन रहता है तो वह अमूमन ऐसा नहीं करता, क्योंकि इसे नैतिक और राजनैतिक, दोनों लिहाज़ से अच्छा नहीं समझा जाता है। आप ख़ुद अपने नाम के संस्थान खड़े करें या पहले से मौजूद संस्थानों के नाम बदलकर अपने नाम पर कर दें, इसे अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता है।
मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए जब लखनऊ के गोमतीनगर इलाक़े में अपनी मूर्ति लगवाई थी तो उस समय उनकी भी इसी आधार पर निंदा की गई थी। जीवित रहते अपनी मूर्ति लगवाना वैसे भी हास्यास्पद फ़ैसला था, मगर यह पद के दुरुपयोग का भी मामला बनता है। पद पर रहते हुए किसी भी नेता से अपेक्षा की जाती है कि वह ख़ुद अपना महिमामंडन नहीं करेगा। इसे आत्मप्रचार का नग्नतम रूप समझा जाता है।
पद से हटने के बाद उसकी पार्टी की अगर सरकार हुई तो ऐसा कर सकती है, बल्कि करती भी रही है। पार्टियाँ दूसरे दलों की सरकारों से भी माँग कर सकती हैं कि उनके नेता के नाम पर कुछ किया जाए। लेकिन इसकी तो मिसालें नहीं मिलतीं और अगर होंगी भी तो बहुत विरले कि किसी पदासीन प्रधानमंत्री ने ख़ुद को इस तरह से स्थापित, प्रतिष्ठित करने के लिए ये अलिखित मर्यादा तोड़ी हो।
वैसे किसी भी बड़े नेता का बड़प्पन इसी से दिखता है कि वह इस तरह के हल्के तरीक़े न आज़माए। सरकार के हर कामकाज में प्रधानमंत्री ही रहता है। हर आयोजन, हर विज्ञापन में उसकी तसवीरें मौजूद रहती हैं। मोदी युग में तो सरकार और मोदी का सरकार प्रायोजित प्रचार चरम पर है ही। प्रचार का उसका बजट तमाम रिकॉर्ड तोड़ चुका है। यह सरकार एक नेता केंद्रित है, वन मन शो है, इसलिए मोदी ही मोदी चारों तरफ़ दिखलाई पड़ते हैं। ऐसे में प्रचार का यह लोभ?
मोदी में यह लालसा है कि वह ख़ुद को वर्तमान का ही नहीं, अभी तक के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता के तौर पर इतिहास में स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए वह नेहरू, इंदिरा को लांछित करते रहते हैं और हर बात में सत्तर साल की रट लगाते रहते हैं।
हालाँकि उनका छह साल का शासनकाल बहुत ही विध्वंसक रहा है, मगर वह इसे स्वर्णकाल के रूप में पेश करते रहते हैं। दूसरों को छोटा करके ख़ुद को बड़ा दिखाने की कवायद उनकी राजनीतिक शैली का हिस्सा रहा है।
किसी भी प्रतिष्ठित राजनेता के लिए सबसे अच्छी बात तो यह होती है कि वह अपना मूल्यांकन भविष्य पर छोड़ दे और इतिहास को अपनी जगह तय करने दे। यह समझदारी इसलिए भी अपेक्षित होती है कि इतिहास बहुत निर्मम होता है, वह किसी को बख़्शता नहीं है। ख़ास तौर पर जब कोई ख़ुद को उस पर लादने की कोशिश करता है।
लेकिन शायद प्रधानमंत्री को भविष्य़ के भारत पर भरोसा नहीं है। उन्हें नहीं लगता कि भावी पीढ़ियाँ या उनकी अपनी पार्टी ही उनका वैसा मूल्यांकन करेगी, जैसा वे चाहते हैं। अगर वे ऐसा सोचते हैं तो क्यों? उन्हें भविष्य पर संदेह क्यों है? इसकी वज़ह या तो यह हो सकती है कि उन्हें अपने बारे में बहुत सारी खुशफ़हमियाँ हों, वे श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त हों या फिर वह मानते हों कि सब कुछ छीनकर, हथियाकर लेना पड़ता है, कोई कुछ देता नहीं है।
इसमें तो संदेह नहीं है कि उन्हें बहुत सारी खुशफ़हमियाँ हैं। उनकी आत्ममुग्धता के सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं। टीवी कैमरों के प्रति उनके मोह से भी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वे बड़ी इवेंट के ज़रिए खुद को प्रचारित करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। पुलवामा पर हमले के दौरान भी इसीलिए किसी विदेशी चैनल के लिए हँसते-मुस्कराते शूटिंग जारी रखते हैं।
आत्ममुग्धता निरंकुश शासकों के स्वभाव का अंग होती है। वे आत्मरति में लीन रहते हैं। श्रेष्ठता का भाव इतना अधिक होता है कि वे अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझते। उनमें एक अमिट भूख भी होती है इतिहास पर छाप छोड़ने की, अमर हो जाने की। इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
अपनी इसी चारित्रिक विशेषता के चलते वे पुराने शासकों की स्मृतियों को नष्ट करते हैं और अपनी उपस्थिति हर जगह अंकित कर देना चाहते हैं। वर्तमान संसद की जगह सेंट्रल विस्ता में छेड़छाड़ करके नई संसद का निर्माण भी इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हो सकता है और स्टेडियम का नाम बदलना भी।
निरंकुश शासक के साथ एक समस्या और होती है। वह चापलूसों से घिरा रहता है, क्योंकि आलोचना उसे पसंद नहीं होती। ये चापलूस उसे खुश करने के लिए तरह-तरह की तरकीबें आज़माते हैं।
इसलिए कोई हैरत नहीं होनी चाहिए कि सरदार पटेल स्टेडियम का नाम बदलने का सुझाव ऐसे ही किसी चाटुकार दिमाग़ से निकला हो और वह प्रधानमंत्री को जँच गया हो। ज़ाहिर है कि उन्हें समझाने या रोकने की हिम्मत करने वाला कोई उनके आसपास होगा नहीं, क्योंकि ऐसे लोग दरबार में टिक ही नहीं सकते।
इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए कि जिन प्रधानमंत्रियों और नेताओं की दृष्टि लोकतांत्रिक रही है, जिनका ह्रदय विराट रहा है, उन्होंने इस तरह की भौंडी कोशिशें नहीं कीं, बल्कि इनसे सख़्त परहेज ही किया है। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक किसी ने भी इस तरह की हरकत नहीं की। इनमें चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं।
हाँ, यह ज़रूर है कि किसी कार्यक्रम या योजना का नामकरण प्रधानमंत्री के नाम पर हो। लेकिन इसके भी बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। ज़्यादातर सरकारों ने पिछले प्रधानमंत्रियों या महात्मा गाँधी जैसे बड़े नेताओं के नाम पर ही नामकरण किया है।
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भावी इतिहास में ख़ुद को प्रतिष्ठित करने की इतनी भूख है, तो हमें इसके अभी पटेल स्टेडियम का नाम बदलने जैसी और भी घटनाएँ देखने को मिलेंगी। हो सकता है कि जाते-जाते भारत रत्न भी लेना चाहें। उनके समर्थक दलील दे सकते हैं कि जब नेहरू को प्रधानमंत्री रहते हुए भारत रत्न दिया जा सकता है तो मोदी को क्यों नहीं?
नेहरू भारत रत्न लेना ही नहीं चाहते थे, ये तत्कालीन राष्ट्रपति के आग्रह पर लेना पड़ा था। उन्हें भारत रत्न इसलिए नहीं दिया गया था कि वह प्रधानमंत्री थे, बल्कि इसलिए कि स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्वपूर्ण योगदान था और संविधान निर्माण से लेकर देश की राजनीतिक-आर्थिक दिशा तय करने में उनकी अहम भूमिका रही थी।
कहने का मतलब यह है कि सुपात्रों को छल-बल का सहारा नहीं लेना पड़ता। वर्तमान और भविष्य उसे योग्यतानुसार स्थान देते रहते हैं। इतिहास थोड़ा समय लेता है और वह संशोधनों एवं आवश्यक परिवर्तनों के साथ उन्हें दर्ज़ करता है। लेकिन कुपात्रों की जगह इतिहास के कूड़ेदान में होती है, जैसे कि हिटलर, मुसोलिनी की है और ट्रम्प की होगी।
जहाँ तक सरदार पटेल को दरकिनार किए जाने की बात है तो उसमें उतना दम नहीं दिखता। यह सही है कि पटेल ने गाँधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया था। वे मानते थे कि संघ द्वारा बनाए गए माहौल की वज़ह से ही गाँधी की हत्या हुई। वे संघ की विचारधारा से असहमत भी थे। लेकिन इसके बावजूद संघ को उनकी ज़रूरत है, क्योंकि उसके पास अभी भी अपने इतिहास पुरुष नहीं हैं। वह उन्हें भी रखेगी और दूसरे नेताओं को हड़पने का अभियान भी जारी रखेगी। उन्हें इनकी ज़रूरत कांग्रेस को इनसे वंचित करने के लिए भी है। कांग्रेस को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों से काटना भी उसकी रणनीति का ही हिस्सा है।