क्या प्रियंका गांधी के नए प्रयोग से यूपी में चमकेगी कांग्रेस की किस्मत?
2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अब एक नया दाँव चला है। पिछले साल अक्टूबर में बनाए गए प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी को हटाकर अजय राय को प्रदेश की कमान सौंपी गई है। दावा किया जा रहा है कि अजय राय के नेतृत्व में कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करेगी। इस बदलाव को उत्तर प्रदेश की प्रभारी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या प्रियंका के इस नए प्रयोग से उत्तर प्रदेश में वाक़ई कांग्रेस की किस्मत चमकेगी या पुराने प्रयोगों की तरह यह भी हवा हवाई ही साबित होगा।
क्या है नया प्रयोग?
कांग्रेस लंबे समय से उत्तर प्रदेश में अपने खोए जनाधार को वापस हासिल करने की कोशिश कर रही है। इसके लिए हर प्रभारी महासचिव नए-नए प्रयोग करता रहा है। उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनने के बाद प्रियंका गांधी का यह तीसरा प्रयोग है। अजय राय के ज़रिए प्रियंका गांधी पूर्वांचल में ब्राह्मण और भूमिहार मतदाताओं को साधना चाहती हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर ब्राह्मण और भूमिहार मतदाता उसके साथ आएंगे तो मुसलमान और दलित भी उसके साथ आ सकते हैं। इससे पूर्वांचल में कांग्रेस को फायदा हो सकता है। इससे 2024 में कुछ सीटें जीतने में मदद मिल सकती है। प्रियंका गांधी के इस नए प्रयोग की नींव सिर्फ संभावनाओं पर टिकी है। इसमें ठोस रणनीति जैसा कुछ खास नजर नहीं आता।
कितने दमदार हैं अजय राय?
अजय राय के बारे में कहा जा रहा है कि उनके हाथों में बागडोर आने के बाद कांग्रेस को मजबूती मिलेगी। लेकिन उनके पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता। उनके नाम एक उपलब्धि मुख्तार अंसारी को सज़ा दिलाने और पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ना है। 2014 में वो वाराणसी में 75 हजार वोट पाकर तीसरे स्थान पर आए थे। तब अरविंद केजरीवाल 2,09000 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे थे। 2019 में करीब डेढ़ लाख वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे थे। तब सपा की शालिनी यादव 1,95,000 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रही थीं। इस बार अजय राय मोदी को हराने का दावा कर रहे हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि वो 2017 और 2022 में पिंडरा विधानसभा सीट से अपना चुनाव तक नहीं जीत पाए।
मूल रूप से कांग्रेसी नहीं हैं अजय राय
दरअसल, अजय राय मूल रूप से कांग्रेसी नहीं हैं। उन्होंने बीजेपी से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। समाजवादी पार्टी में होते हुए 2012 में कांग्रेस में आए। अजय राय बीजेपी के टिकट पर पहली बार नौ बार के विधायक रहे उदल को कोलअसला सीट से हराकर विधायक बने। 2002 और 2007 में भी वो इसी सीट से जीते। 2009 में उन्होंने वाराणसी से लोकसभा का टिकट मांगा था। बीजेपी ने नहीं दिया। उन्होंने विधायकी से इस्तीफा दिया और समाजवादी पार्टी के टिकट पर बीजेपी के मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ा और हार गए। 2012 में तात्कालिक प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह अजय राय को कांग्रेस में लाए और पिंडरी से विधानसभा का टिकट दिया। वो जीते और वही उनकी आखिरी जीत थी।
नया कुछ भी नहीं करने को
नए अध्यक्ष के रूप में अजय राय के पास ऐसा कुछ भी नया करने को नहीं है जो इससे पहले रहे तीन अध्यक्षों के पास था। कांग्रेस के पुराने तीन अध्यक्षों से अलग कुछ भी नए अध्यक्ष में नहीं है। दावा किया जा रहा है कि अजय राय प्रियंका गांधी के बेहद करीबी हैं। उनसे पहले अध्यक्ष रहे बृजलाल खाबरी के बारे में भी यही कहा गया था। लेकिन हुआ क्या? वो साल भर भी अध्यक्ष नहीं रह पाए। चर्चा है कि आला कमान से सहमति लिए बगैर कुछ कार्यवाहक जिलाध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर हुए विवाद की वजह से उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया।
बृजलाल खाबरी उत्तर प्रदेश के पहले दलित कांग्रेस अध्यक्ष थे। शायद यह भी एक वजह थी कि कांग्रेस के अगड़ी जाति के नेता उन्हें सहयोग नहीं कर रहे थे।
लल्लू के साथ भी रहा सौतेला व्यवहार!
खाबरी से पहले अजय कुमार लल्लू ने भी अपने तीन साल के कार्यकाल में कांग्रेस को ज़िंदा करने की कम कोशिश नहीं की थी। उन्होंने कांग्रेस को सड़कों पर संघर्ष करना सिखाया। कई बार जेल गए। लेकिन उन्हें भी विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार के बाद पद छोड़ना पड़ा। लल्लू भी पहले दिन से ही पहले पार्टी में जमे बैठे तथाकथित बड़े नेताओं के निशाने पर रहे थे। वो पिछड़ी जाति से आते थे। पिछड़े वर्ग से आने वाले वो पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस में अगड़ी जाति के नेता बतौर अध्यक्ष उन्हें कभी स्वीकार नहीं कर पाए। इसी के चलते ही कई बड़े नेता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में चले गये थे। लल्लू को लेकर प्रियंका ने बड़ा प्रयोग किया था लेकिन वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए। लिहाजा उन्हें भी पद छोड़ना पड़ा था।
नहीं चला था राज बब्बर का जादू
साल 2017 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रियंका गांधी की पहल पर निर्मल खत्री को हटाकर राज बब्बर को सूबे की कमान सौंपी गई थी। तब गुलाम नबी आज़ाद उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव थे। लेकिन पर्दे के पीछे से प्रियंका गांधी ही सारा चुनावी प्रबंधन संभाल रही थीं। तब शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके प्रशांत किशोर को जिम्मेदारी देते हुए चुनावी अभियान चलाया गया। लेकिन आखिरी वक्त में सपा से चुनावी तालमेल करके चुनाव लड़ा। कांग्रेस महज सात सीटों पर सिमट गई। 2018 में राज बब्बर ने प्रदेश
अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया। उन्हीं के अध्यक्ष रहते लोकसभा चुनाव लड़ा। लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए राज बब्बर ने इस्तीफा दिया। अक्टूबर 2019 में अजय कुमार लल्लू को अध्यक्ष बनाया गया।
ग़ैरों पर करम, अपनों पर सितम?
कांग्रेस आलाकमान पर आरोप है कि उसने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पृष्ठभूमि के नेताओं को पद देना छोड़ दिया है। बाहर से आए हुए नेताओं को जिम्मेदारियां दी जा रही हैं। ये सिलसिला रीता बहुगुणा से शुरू हुआ था। पिछले चार लगातार अध्यक्ष गैर कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे हैं। राज बब्बर समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए थे। इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए अजय कुमार लल्लू वामपंथी पृष्ठभूमि के रहे हैं। बृजलाल खाबरी बहुजन समाज पार्टी से रहे हैं। बीएसपी के टिकट पर वह दो बार सांसद रहे हैं। नए बनाए गए अध्यक्ष अजय राय बीजेपी और समाजवादी पार्टी से होते हुए कांग्रेस में आए हैं। कांग्रेस आला कमान के इस रवैये से पुराने कांग्रेसी नेताओं में नाराजगी रही है। यही वजह है कि पुराने कांग्रेसियों का समर्थन नए अध्यक्षों को नहीं मिल पाता।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में लंबे अरसे तक ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा है। इसी के सहारे कांग्रेस ने 1989 में सत्ता से बाहर होने तक सूबे में राज किया है। इस वोट बैंक के बाहर होने के बाद से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ता का वनवास भुगत रही है। प्रियंका गांधी कांग्रेस को पुरानी स्थिति में लाने के लिए भरसक कोशिश कर रही हैं। लेकिन अभी तक उन्हें इसमें कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। सूबे के संगठन में नया बदलाव उनकी इन्हीं कोशिशों के सिलसिले की अगली कड़ी है। बृजलाल खाबरी के अध्यक्ष बनाए जाने के बाद कांग्रेस ने बीएमडी यानी ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित गठजोड़ का फ़ॉर्मूला दिया था। इससे पहले 2002 में उत्तर प्रदेश के प्रभारी बनाए गए सत्यव्रत चतुर्वेदी भी 'बीएमडब्ल्यू' यानी ब्राह्मण, मुस्लिम और वीकर सेक्शन के गठजोड़ का नारा दे चुके थे। इस हिसाब से देखें
तो प्रियंका गांधी के इस नए प्रयोग में नया कुछ भी नहीं है। यह नई बोतल में पुरानी शराब की तरह ही लगता है।