
कायरता की संस्कृति ने मेरठ की यूनिवर्सिटी टीचर को अकेला छोड़ा
मेरठ के चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय की राजनीति शास्त्र की प्रोफ़ेसर सीमा पँवार को दंडित किए जाने की घटना से भारत के अध्यापक और छात्र समुदाय को चिंतित होने की आवश्यकता है। लेकिन वह चिंता कहीं दिखलाई नहीं पड़ रही। क्या या इस कारण है कि प्रोफ़ेसर पँवार मेरठ विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं जो अब प्रतिष्ठित नहीं माना जाता? या यह इस कारण है कि अब इस तरह की घटनाओं को सामान्य माना लिया गया है? जब तक कोई जेल न जाए या किसी कि हत्या न हो या किसी के साथ शारीरिक हिंसा न की जाए, हमारा ध्यान नहीं जाता? हमने किसी शिक्षक संघ या छात्र संगठन का बयान नहीं देखा। प्रोफ़ेसर पँवार के विश्वविद्यालय में भी शिक्षक संघ होगा ही। लेकिन वह भी चुप है।
पहले हम जान लें कि प्रोफ़ेसर पँवार को क्या दंड दिया गया है।उन्हें परीक्षा संबंधी काम से आजीवन अलग कर दिया गया है।यानी न तो वे प्रश्न पत्र बना सकती हैं, न उत्तर पुस्तिकाएँ जाँच सकती हैं। प्रश्न पत्र बनाने और उत्तर पुस्तिका की जाँच से मुक्त किए जाने पर कोई भी अध्यापक राहत की साँस ही लेगा क्योंकि ये अध्यापन से जुड़े हुए सबसे अधिक यंत्रणादायक काम हैं।लेकिन जब किसी पर सज़ा के तौर पर पाबंदी लगा दी जाए कि वह इम्तहान के जुड़े काम में हिस्सा नहीं ले सकती तो यह उसके लिए अपमान की बात है। प्रोफ़ेसर सीमा पँवार को दंड स्वरूप परीक्षा कार्य से बाहर किया गया है।
सीमा पँवार ने ऐसा क्या किया कि विश्वविद्यालय के प्रशासन ने उन्हें यह सज़ा दी? राजनीति शास्त्र के एक इम्तहान के लिए उन्होंने प्रश्न पत्र बनाया जिसके दो प्रश्नों पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को घोर आपत्ति हुई। इस आपत्ति को विश्वविद्यालय प्रशासन ने जायज़ पाया और माना कि प्रोफ़ेसर पँवार के बनाए सवाल विवादास्पद थे। ऐसा विवाद खड़ा करने की उन्हें सजा दे गई। यह बात अलग है कि विवाद न तो उन्होंने, न किसी परीक्षार्थी ने खड़ा किया। विवाद करनेवाला ए बी वी पी है। लेकिन सजा प्रोफ़ेसर पँवार को दी गई। दंड की इस प्रक्रिया पर हम आगे बात करेंगे, पहले देख लें कि सवाल क्या थे जिन पर ए बी वी पी को एतराज है।
एक सवाल है कि दल खालसा, नक्सल समूह, जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इनमें सा कौन समाज के मुख्य मार्ग से विचलित संगठन या समूह है?
दूसरा सवाल दो कथनों के जोड़े बनाने का था:
- 1 पिछड़ी राजनीति का उभार
- 2 दलित राजनीति का उभार
- 3 धार्मिक और जातीय अस्मिता की राजनीति का उभार
- 4 क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति का उभार
- 1 शिव सेना
- 2 आर एस एस
- 3 बी एस पी
- 4 मण्डल कमीशन
ए बी वी पी का ऐतराज इन प्रश्नों में आर एस एस के उल्लेख से था। उसका कहना है कि जिसने भी यह सवाल बनाया, वह राष्ट्र विरोधी है। उसे ख़ुद से यह पूछना चाहिए कि वह इस निष्कर्ष पर कैसे पहुँच गया कि पहले प्रश्न में छात्र आर एस एस पर निशान लगाएँगे। दूसरे प्रश्न में धार्मिक राजनीति के उभार से आर एस एस को जोड़ा जाना नकारामत्क क्यों है? क्या ख़ुद आर एस एस, भारतीय जनता पार्टी और ए बी वे पी भी इसपर गर्व नहीं करते रहे हैं कि उन्होंने हिंदू धर्म को भारतीय राजनीति के केंद्र में ला दिया है? तो यह आरोप क्यों है? इसे तो आभूषण की तरह प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
इस बहस को यहीं रहने दें क्योंकि आख़िरकार यह विचार और बहस का विषय है। कक्षाओं और किताबों में बहस का विषय है।
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ए बी वी पी मेरठ विश्वविद्यालय या भारत के विश्वविद्यालयों में इस चर्चा को भले बंद करा दे, भारत के पिछले 100 सालों का इतिहास जो भी लिखेगा, वह धार्मिक अस्मिता की राजनीति के उभार को बिना आर एस एस के उल्लेख के समझा ही नहीं सकता।
सैकड़ों किताबे मौजूद हैं और वे न सिर्फ़ भारत और दुनिया के पुस्तकालयों में हैं बल्कि इंटरनेट पर उपलब्ध हैं और ए बी वी पी के हज़ारों दस्ते भी उन्हें अदृश्य नहीं कर सकते। आज़ादी के पहले और बाद भारत में हुई सांप्रदायिक हिंसा की आधिकारिक और सामाजिक समूहों को रिर्पोटों में आर एस एस का उल्लेख है। उसे मिटाया नहीं जा सकता।
इससे अलग इस लेख की चिंता का विषय यह है कि प्रोफ़ेसर पँवार को विश्वविद्यालय प्रशासन ने चिह्नित क्यों किया और दंडित क्यों किया? परीक्षा एक गोपनीय कार्य है। प्रश्न पत्र बनाना और मूल्यांकन, दोनों की गोपनीय हैं।इनमें लगे अध्यापक की पहचान उजागर कर देना ख़तरनाक है। प्रश्न पत्र से या परीक्षा में मिले अंकों से नाराज़ लोग उस अध्यापक के साथ कुछ भी कर सकते हैं।
तो मेरठ विश्वविद्यालय ने अपनी एक अध्यापक को ख़तरे में डाल दिया। दूसरे इन प्रश्नों के लिए सिर्फ़ वे क्योंकर ज़िम्मेवार हैं? हर जगह यह व्यवस्था होती है कि प्रश्न पत्र भले एक अध्यापक बनाए, फिर वह समीक्षा के लिए एक समिति के पास भेजा जाता है। यानी उसका मॉडरेशन किया जाता है। उस प्रश्न पत्र के लिए व्यक्तिगत नहीं, विभाग की ज़िम्मेवारी बनती है। फिर इस मामले में प्रोफ़ेसर पँवार को ही क्यों चिह्नित करके दंडित किया गया? पूरी समिति या विभाग को क्यों छोड़ दिया गया?
प्रोफ़ेसर पँवार को माफ़ी माँगने के लिए बाध्य किया गया है। हम कह सकते हैं कि यह कोई ख़ास बात नहीं लेकिन यह एक अध्यापक की बेइज्जती तो है ही। उसके बाद अध्यापन की प्रतिष्ठा ही क्या रही?
प्रोफ़ेसर पँवार के विभाग ने इस पर क्या किया है? और शेष अध्यापक समुदाय क्यों चुप है? बाक़ी छात्र भी क्यों ख़ामोश हैं? क्या हम अपनी खाल बचाने के लिए अपने अध्यापकों को हिंसा के हवाले करने को तैयार हैं?
प्रोफ़ेसर पँवार के साथ जो हुआ वह शायद उन अध्यापकों के साथ हुई नाइंसाफ़ी के मुक़ाबले बहुत हल्का कहा जाएगा जो कक्षा में अपने व्याख्यान या प्रश्न पत्र या सेमिनार के लिए सेवा से निलंबित कर दिए गए या जिन पर क़ानूनी कार्रवाई की गई या जो जेल भेज दिए गए। ऐसी घटनाएँ अब सैंकड़ों की संख्या में हैं और रोज़ घट रही हैं। लेकिन हम जो बच गए हैं, ख़ैर मना रहे हैं। और प्रोफ़ेसर पँवार जैसे अध्यापक अपना धर्म निभाने की सजा भोगते हुए परिसर में सर झुकाकर रहने को बाध्य हैं। फिर भी शिक्षा का काम चल ही रहा है।
विश्वविद्यालय को स्वतंत्र और निर्भीक विचार करने की जगह माना जाता रहा है।ऐसी जगह जहाँ हम बिना एक दूसरे के साथ हिंसा किए एक दूसरे से विवाद कर सकते हैं। विवाद ज्ञान निर्माण के लिए अनिवार्य है। लेकिन अब सबको उससे बचने की सलाह दी जाती है। पिछले 11 वर्षों में भारत के परिसरों में कायरता की संस्कृति का विकास हुआ है। प्रोफ़ेसर सीमा पँवार से हम सबको माफ़ी माँगनी चाहिए कि उन्हें कायरता की इस संस्कृति ने अकेला छोड़ दिया है।