अनुच्छेद 370: कश्मीर में इंटरनेट पर रोक, हिरासत से अमेरिका 'चिंतित'
अनुच्छेद 370 में फेरबदल के क़रीब पाँच महीने बाद भी अमेरिका जम्मू-कश्मीर में स्थिति को लेकर 'चिंतित' है। उसने यह चिंता सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर की है। दरअसल, 15 देशों के रजनयिकों के जम्मू-कश्मीर के दौरे को लेकर अमेरिकी विदेश विभाग ने पहली बार प्रतिक्रिया दी है। इसने कहा है कि पिछले साल से ही जम्मू-कश्मीर में अप्रत्याशित पाबंदी के बीच यह दौरा 'एक महत्वपूर्ण क़दम' है, लेकिन आम लोगों व राजनेताओं की हिरासत और इंटरनेट के बंद रहने से वह चिंतित है। बता दें कि इस 15 देशों के राजनयिकों में अमेरिका के भारत में राजदूत भी शामिल थे। इसी हफ़्ते भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी जम्मू-कश्मीर में स्थिति पर सरकार से रिपोर्ट माँगी है और इंटरनेट की पाबंदी पर सख़्त टिप्पणी की है। इसने कहा है कि लोगों को इंटरनेट के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल अगस्त में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द किए जाने और इसे केंद्र शासित प्रदेश में बदल देने के बाद 15 देशों के विदेशी राजनयिकों ने गुरुवार को पहली बार जम्मू-कश्मीर का दौरा किया। स्वतंत्र रूप से यात्रा करने की अनुमति नहीं दिए जाने के कारण कुछ यूरोपीय देशों और अन्य ने वहाँ जाने से इनकार कर दिया था।
बता दें कि पिछले साल अक्टूबर महीने में भी कुछ यूरोपीय सांसदों ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया था, लेकिन वे राजनयिक नहीं थे। उनका दौरा विवादों में रहा था। उस दौरे पर सवाल उठे थे कि क्या यूरोपीय संसद के 27 सदस्यों का कश्मीर दौरा प्रायोजित था ये सवाल इसलिए उठे थे क्योंकि इन 27 में से 22 सांसद अपने-अपने देश की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों के थे। वे प्रवासी विरोधी, इसलाम विरोधी, कट्टरपंथी, फ़ासिस्ट और नात्सी समर्थक विचारों के लिए जाने जाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि ये सभी सांसद निजी दौरे पर थे, वे यूरोपीय संघ या यूरोपीय संसद की ओर से नहीं भेजे गए थे। इन अलग-अलग देशों की अलग-अलग पार्टियों के 27 नेताओं का एक साथ भारत आना भी कई सवाल खड़े किए थे। विवाद के कारण कई यूरोपिय सांसदों ने जम्मू-कश्मीर की यात्री भी पूरी नहीं की थी। इस मामले में मोदी सरकार की भी ख़ूब किरकिरी हुई थी। तब यह भी आरोप लगाया गया था कि सरकार जम्मू-कश्मीर में बेहद ख़राब स्थिति के बावजूद दुनिया में अच्छी तसवीर भेजने के लिए कथित तौर पर इस दौरे को प्रयोजित किया था।
इसी बीच अब जो 15 देशों के राजनयिकों की यात्रा हुई है इसमें भी राजनयिकों ने तो दौरे के बाद प्रतिक्रिया 'अच्छी स्थिति' होने की दी है, लेकिन अमेरिकी विदेश विभाग की राय कुछ अलग है। अमेरिकी विदेश विभाग के दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के ब्यूरो ने ट्वीट किया, '@USAmbIndia (भारत में अमेरिकी राजदूत) और अन्य विदेशी राजनयिकों की जम्मू-कश्मीर की हालिया यात्रा पर बारीकी नज़र रख रहे हैं। यह एक महत्वपूर्ण क़दम है। हम राजनेताओं और निवासियों को हिरासत में रखने और इंटरनेट पर प्रतिबंध से चिंतित हैं।'
Closely following @USAmbIndia & other foreign diplomats’ recent trip to Jammu & Kashmir. Important step. We remain concerned by detention of political leaders and residents, and Internet restrictions. We look forward to a return to normalcy. AGW
— State_SCA (@State_SCA) January 11, 2020
हालाँकि इस दौरे को लेकर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि राजनयिकों को सरकार के उस प्रयास देखने को मिला जिसको स्थिति को सामान्य बनाने में लगाया गया है। राजनयिकों की यात्रा में रक्षा सेवाओं द्वारा चुने गए राजनेताओं, नागरिक समाज समूहों और पत्रकारों और सेना के साथ बैठक भी शामिल है।
उन 15 देशों के राजनयिकों को हिरासत में बंद पूर्व मुख्यमंत्रियों उमर अब्दुल्ला या महबूबा मुफ़्ती और राज्य की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाने वाले दोनों दलों के नेताओं से नहीं मिलाया गया। सवाल है कि जब सबकुछ सामान्य है तो उन्हें सीमित पहुँच क्यों दी गई
अगस्त महीने में अनुच्छेद 370 में बदलाव के बाद से ही जम्मू-कश्मीर कड़ी पाबंदी में है। यहाँ पर इंटरनेट पर पाबंदी दुनिया में कहीं पर भी लगाई गई सबसे ज़्यादा समय तक पाबंदियों में से एक है। प्रशासन ने यह पाबंदी विरोध-प्रदर्शन को रोकने और व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर लगाई है।
बता दें कि इससे पहले दिसंबर महीने में भी अमेरिका के विदेश विभाग ने भारत को नसीहत दी थी। तब विदेश विभाग के प्रवक्ता ने कहा था, ‘नागरिकता संशोधन विधेयक के संबंध में हम घटनाक्रमों पर बारीकी से नज़र रख रहे हैं। धार्मिक स्वतंत्रता और क़ानून के तहत समान व्यवहार हमारे दोनों लोकतंत्रों के मूल सिद्धांत हैं।’ इसके साथ ही प्रवक्ता ने यह भी कहा था, ‘अमेरिका भारत से भारत के संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए अपने धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने का आग्रह करता है।’
अमेरिका की संसदीय समिति के सामने नवंबर माह में कश्मीर का मुद्दा उठाया गया था और वहाँ की स्थिति पर चिंता जताई गई थी। इसमें भारत सरकार की आलोचना की गई थी। समिति ने भारत से कहा था कि वह सभी गिरफ़्तार और नज़रबंद लोगों को तुरन्त रिहा करे, विदेशी पत्रकारों और पर्यवेक्षकों को बेरोकटोक कश्मीर जाने दे और वहाँ ठप पड़ी संचार व्यवस्था को फिर से बहाल करे।
इससे पहले जब यह अनुच्छेद 370 में बदलाव करने वाला विधेयक लोकसभा में पास हुआ था तब अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग यानी यूएससीआईआरएफ़ ने कहा था कि यह विधेयक 'ग़लत दिशा में एक ख़तरनाक मोड़' है। इसके साथ ही इसने यह भी कहा था कि यदि संसद के दोनों सदनों द्वारा 'धार्मिक आधार' वाले इस विधेयक को पास कर दिया जाता है तो इसके लिए अमित शाह और दूसरे प्रमुख भारतीय नेताओं पर प्रतिबंध लगाने पर विचार किया जाए।
हालाँकि कश्मीर के मामले में अमेरिका बार-बार प्रतिक्रिया देता रहा है, लेकिन वैसा कोई क़दम इसने नहीं उठाया है। यह दबाव बनाने की उसकी एक रणनीति हो सकती है।