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अमेरिकी चुनाव: नस्लवाद बड़ा मुद्दा, ट्रंप समर्थक भी बाइडन को दे सकते हैं वोट! 

अमेरिकी चुनाव: नस्लवाद बड़ा मुद्दा, ट्रंप समर्थक भी बाइडन को दे सकते हैं वोट! 

नस्ल अमेरिकी चुनाव का एक बड़ा मुद्दा होगा, अतिश्योक्ति नहीं है, बल्कि यही ज़मीनी सच्चाई है। जैसा कि भारत में होता है हिंदू मुसलमान भेदभाव पर चुनाव लड़े जाते हैं

हिंदी पट्टी से आए किसी भारतीय के लिए अमेरिकी चुनाव बोझिल और ब्यूरोक्रेसी में फँसी हुई किसी अबूझ पहेली जैसा प्रतीत होता है, लेकिन धीरे-धीरे अपने शहर को समझते हुए अमेरिकी राजनीति भी समझ में आने लगती है। साथ में पता चलती है ऐसी बारीकियाँ जिनके बारे में हमने भारत में कभी सोचा नहीं होता है। 

अमेरिका की दोनों प्रमुख पार्टियों यानी रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के कन्वेंशन ऐसी ही एक परंपरा हैं। दोनों पार्टियों की तरफ से भले ही उम्मीदवार चुन लिए जाते हों लेकिन आधिकारिक रूप से इसकी घोषणा एक समारोह में होती है, जो एक चुनावी स्टंट जैसा होता है।

नवंबर में होने वाले चुनावों से पहले अगस्त में दोनों पार्टियों का यह सबसे बड़ा और सामूहिक शक्ति प्रदर्शन कहा जाता है, जहाँ पार्टियाँ अपना व्यापक संदेश देती हैं कि उनका एजेंडा क्या है। 

सर्वेक्षणों में बाइडन आगे

इस समय तक आते आते मुद्दे बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं और चुनावी सर्वेक्षणों के रूझान भी लगभग स्पष्ट। लेकिन पिछले चुनाव यानी 2016 में जिस तरह से डोनल्ड ट्रंप ने सर्वेक्षणों में आखिरी कुछ दिनों में उलटफेर किया है, उसके बाद अमेरिकी विश्लेषक भी चुनावी सर्वेक्षणों को लेकर सशंकित हैं।

दुनिया का लिबरल तबका भले ही ट्रंप को पसंद नहीं करता हो, लेकिन अमेरिका में एक बड़ा वर्ग उनके साथ खड़ा था पिछले चुनावों में और इस बार भी जनवरी के महीने तक ट्रंप के जीतने की संभावना थी।

लेकिन फिर दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने इन चुनावों को बेहद रोचक बना दिया है।

नस्लवाद बड़ा मुद्दा

पिछले कई राष्ट्रपति चुनावों में अंतरराष्ट्रीय मुद्दे या फिर अर्थव्यवस्था का मुद्दा अमेरिकी चुनावों में हावी रहा, लेकिन यह शायद पहली बार होगा जब दोनों दलों की रणनीति में नस्ल एक बड़ा मुद्दा बन गया है। ऐसा सोचने के पीछे वाजिब कारण हैं। अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की मौत के बाद भी काले लोगों के साथ भेदभाव रुका नहीं है।

तीन दिन पहले ही एक और अश्वेत युवक को विस्कॉन्सिन के केनोशा में पुलिस ने सात गोलियाँ मारीं और वह जीवन भर के लिए अपाहिज हो चुके हैं। इसके विरोध में प्रदर्शन के दौरान एक गोरे युवक ने दो लोगों को गोली मार दी। सत्रह साल के उस गोरे युवक को तत्काल गिरफ़्तार नहीं किया गया जबकि पुलिस भी वहीं थी। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसकी तुलना सीएए प्रोटेस्ट के दौरान रामभक्त नाम के युवक द्वारा गोली चलाने से भी की है। 

अश्वेतों के साथ डेमोक्रेट्स

नस्लवाद को लेकर ऐसे तनातनी के माहौल में आप कल्पना कीजिए कि डेमोक्रेट पार्टी क्या संदेश देती है। वह अपने कन्वेंशन में बुलाते हैं बराक ओबामा को, अपनी पार्टी के वाइस प्रेसिडेंट पद के लिए चुनते हैं एक अश्वेत महिला को जिनकी मांँ भारतीय हैं।

साथ ही उनके कन्वेंशन की ओपनिंग करती हैं अमेरिका में बेहद लोकप्रिय रहीं पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी मिशेल ओबामा। डेमोक्रेट पार्टी की राय बहुत साफ़ है। वह अश्वेत लोगों के साथ है। 

परंपरा तोड़ी रिपब्लिकन पार्टी ने

दूसरी तरफ रिपब्लिकन पार्टी के कन्वेंशन में विदेश मंत्री माइक पोम्पियो शामिल होते हैं। ऐसी परंपरा रही है कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किसी भी राष्ट्रपति का विदेश मंत्री उनके समर्थन में प्रचार नहीं करता है ताकि यह माना जाए कि विदेश नीति घरेलू नीतियों से अलग होती है और बाकी देशों के साथ संबंधों पर घरेलू चुनाव का असर न पड़े। रिपब्लिकन पार्टी इस परंपरा को तोड़ देती है। 

रिपब्लिकन पार्टी दो ऐसे लोगों को अपने कन्वेंशन में बुलाती है जिनका योगदान सिर्फ इतना है कि कुछ दिनों पहले उन्होंने विरोध कर रहे अश्वेत लोगों पर बंदूक तान दी थी।

सेंट लुईस शहर में जहाँ मैं रहता हूँ। मार्क और पैट्रीशिया मैक्लस्की पेशे से वकील हैं और कुछ सप्ताह पहले जब उनके घर के आगे से ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ का मोर्चा गुजर रहा था तो दोनों पति पत्नी हथियार लेकर घर से बाहर निकल आए थे और शांतिपूर्ण तरीके से सड़क से जा रहे लोगों पर हथियार तान दिए थे। इस घटना का वीडियो वायरल भी हुआ था और इस दंपत्ति की कड़ी आलोचना की गई थी। 

अश्वेतों से ट्रंप को मतलब नहीं

लेकिन रिपब्लिकन पार्टी ने अपने सबसे बड़े इवेंट में इन दोनों को स्पीकर के तौर पर आमंत्रित कर के स्पष्ट संदेश दिया है कि उन्हें अश्वेत लोगों के वोटों से कोई फर्क नहीं पड़ता है। ट्रंप भले ही कभी कभार अश्वेत लोगों के बारे में छोटी मोटी टिप्पणी कर दें या कुछ अश्वेत लोगों से मिल लें, लेकिन उनकी रणनीति बिल्कुल स्पष्ट है। अमेरिका की आबादी के 13 प्रतिशत हिस्से से उन्हें बहुत कुछ लेना देना नहीं है।

इसलिए यह कहना कि नस्ल इन चुनावों का एक बड़ा मुद्दा होगा, अतिश्योक्ति नहीं है, बल्कि यही ज़मीनी सच्चाई है। जैसा कि भारत में होता है हिंदू मुसलमान भेदभाव पर चुनाव लड़े जाते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से बयानबाज़ी नहीं होती है (जो अब तो खैर होने लगी है), वैसे ही अमेरिका में श्वेत-अश्वेत का भेदभाव इन चुनावों का डिफाइनिंग मुद्दा बन चुका है।

बाइडन की चुनौती

अमेरिका के ज़्यादातर पढ़े लिखे गोरे लोग भी इस मुद्दे पर डेमोक्रेट पार्टी के साथ दिख रहे हैं जबकि ये पिछले चुनाव में हिलेरी क्लिंटन (2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार) के  विरोध में थे। यही कारण है कि फिलहाल चुनावी सर्वेक्षणों में जो बाइडेन को एक स्पष्ट बढ़त मिली हुई है।

बाइडेन की चुनौती इस बढ़त को अगले दो महीने तक बनाए रखने की है। उन्हें यह संतुलन भी बनाए रखना है कि अश्वेत लोगों का समर्थन पाने में वह कहीं बड़ी संख्या में गोरे लोगों का समर्थन न खो दें जो इस समय उनके साथ दिख रहे हैं।

कोरोना और उससे जुड़ी समस्याओं, मसलन बेरोज़गारी और खराब अर्थव्यवस्था का मसला तो है ही, पर नस्लभेद को लेकर अधिकांश मीडिया और लोग इस समय ट्रंप के साथ नहीं दिख रहे हैं।

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