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रिलायंस जियो की ओर क्यों खिंची आ रही हैं अमेरिकी टेक कंपनियाँ?

रिलायंस जियो की ओर क्यों खिंची आ रही हैं अमेरिकी टेक कंपनियाँ?

लाॅकडाउन शुरू होने के कुछ ही समय बाद रिलायंस की संचार कंपनी जियो प्लेटफाॅर्म्स में विदेशी निवेश की जो बारिश शुरू हुई, वह अब तक जारी है। 

कोरोना वायरस और उसके कारण लगे लाॅकडाउन ने ज़्यादातर उद्योगों का बंटाधार कर दिया है। लेकिन रिलायंस समूह की कंपनी जियो इसका सबसे बड़ा अपवाद है। लाॅकडाउन शुरू होने के कुछ ही समय बाद रिलायंस की संचार कंपनी जियो प्लेटफाॅर्म्स में विदेशी निवेश की जो बारिश शुरू हुई, वह अब तक जारी है।

पिछले तीन महीने से भी कम समय में जियो में 14 बड़े विदेशी निवेश हुए हैं। इनमें से दो आबू धाबी और एक सऊदी अरब की निवेशक कंपनियों को छोड़ दें तो बाकी सभी कंपनियाँ अमेरिकी हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा निवेश अमेरिकी टेक कंपनियों का है। ये कंपनियां सिर्फ तकनीकी समझौते ही नहीं कर रहीं, जियो में बाक़ायदा हिस्सेदारी ले रही हैं।

फ़ेसबुक का निवेश

शुरुआत 22 अप्रैल को हुई जब सोशल मीडिया की धुरंधर कंपनी फ़ेसबुक ने 5.7 अरब डाॅलर का निवेश करके जियो में 9 फ़ीसदी हिस्सेदारी ली। तब इसे लेकर काफी विश्लेषण हुए थे कि यह हिस्सेदारी किस तरह से फ़ेसबुक और रिलायंस दोनों के लिए फ़ायदेमंद रहेगी। इसे जियो की ऑनलाइन रिटेल व्यवसाय करने वाली इकाई जियो मार्ट से भी जोड़कर देखा गया। तब यह किसी ने नहीं सोचा था कि यह सिर्फ एक शुरुआत है। 

क्वालकॉम

फ़ेसबुक की घोषणा के बाद ही निवेशक कंपनियाँ सक्रिय हुईं और कई तरह के निवेश जियो में आए। इसके बाद अमेरिका की जिस दूसरी सबसे बड़ी टेक कंपनी ने जियो में निवेश किया वह है स्मार्टफ़ोन चिप बाज़ार की अगुआ कंपनी क्वालकाॅम।

फ़ेसबुक के मुक़ाबले क्वालकाॅम का निवेश भले ही बहुत छोटा था, लेकिन इससे अमेरिकी टेक कंपनियों का जियो के प्रति रुझान ज़रूर स्थापित हो गया।

इंटेल-क्वालकॉम एक साथ!

कंप्यूटर चिप के बाज़ार की सबसे बड़ी कंपनी इंटेल पहले ही जियो में निवेश कर चुकी थी। चिप बाज़ार के कई मोर्चों पर इंटेल और क्वालकाॅम  के हित एक दूसरे से टकराते रहे हैं, लेकिन जियो में ये दोनों ही अपने हित देख रही हैं। यह सारे निवेश सिर्फ भारत में हमारे लिए ही बड़ी खबर नहीं हैं, बल्कि दुनिया भर में इन्हें सुर्खियाँ मिली हैं।

गूगल ने किया सर्च!

बुधवार को रिलायंस की एजीएम यानी सालाना आम बैठक थी और इस बैठक में रिलायंस के चेयरमैन मुकेश अंबानी के पास अपने निवेशकों को देने के लिए एक और अच्छी ख़बर थी। इंटरनेट से जुड़े कारोबार की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी गूगल ने जियो में 4 अरब डाॅलर के निवेश की घोषणा की है।

इस घोषणा का तुरंत ही असर भी दिखा। रिलायंस का शेयर जहाँ उठा वहीं जियो की स्पर्धी कंपनी भारतीय एयरटेल के शेयर की कीमत ने 25 प्रतिशत तक का गोता लगा दिया।

सवाल है कि जियो में ऐसा क्या है कि अमेरिका की धुरंधर टेक कंपनियाँ इसमें संभावना देख रही हैं वह भी उस समय जब लाॅकडाउन की वजह से विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की भविष्यवाणियाँ हो रही हैं।

दूरसंचार है वजह

यह ठीक है कि भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा संचार संभावनाओं वाला बाज़ार है। लाॅकडाउन ने यहाँ रिटेल कारोबार के विस्तार की उम्मीदों को भी काफी बढ़ा दिया है। लेकिन बात अगर सिर्फ इतनी ही होती तो इस निवेश का कुछ हिस्सा दूसरी कंपनियों जैसे एयरटेल के पास भी पहुँचता, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

इसका कारण है चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी ट्रेड वार के बाद उभरता समीकरण। जब 5जी तकनीक के लिए दुनिया की ज़्यादातर कंपनियाँ चीन की तकनीक को तरजीह दे रही थीं, जियो ने चीनी कंपनियों से दूरी बनाए रखने का रास्ता अपनाया।

चीनी कंपनियों का विरोध

यूरोप के वे देश जो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अमेरिका के नज़दीकी माने जाते हैं, वहाँ भी इन कंपनियों ने 5जी के लिए ह्वाबे और ज़ेडटीई जैसी चीनी कंपनियों को ही प्राथमिकता दी, क्योंकि वह सबसे सस्ती पड़ रही थी।

जियो को छोड़ दें तो भारत में भी बाकी सभी कम्युनिकेशन कंपनियों ने यही रास्ता अपनाया। भारत में अभी तक 5जी के जो भी ट्रायल हुए हैं उनमें एयरटेल, वोडाफ़ोन और यहाँ तक कि सरकारी कंपनी भारत संचार निगम ने चीनी तकनीक का ही सहारा लिया है और इसी हिसाब से अपनी व्यवस्थाएं तैयार की हैं। 

5जी तकनीक बेचने वाली चीन की ह्वाबे और ज़ेडटीई दोनों ही कंपनियाँ काफी समय से अमेरिका के निशाने पर हैं। अमेरिका इस समय बाकी देशों पर भी इसके लिए दबाव बना रहा है।

स्वच्छ तकनीक

अमेरिकी विदेश सचिव माइक पॉम्पियो ने पिछले दिनों ब्रिटेन पर जब इसके लिए दबाव बनाया तो इसके साथ ही उन्होंने रिलायंस जियो का भी उदाहरण दिया कि कैसे वह 5जी के लिए चीन की तकनीक से परहेज करके ‘स्वच्छ’ तकनीक अपना रही है। 

इस दबाव ने असर भी दिखाया और बीते मंगलवार को ब्रिटेन ने ह्वाबे पर पाबंदी लगाने की घोषणा कर दी, जो ब्रिटेन के 5जी सफर को लंबा बनाने वाला फ़ैसला भी साबित हो सकता है।

यह सिलसिला आगे बढ़ता है तो अमेरिकी सरकार का नजला चीनी तकनीक का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों और उनमें निवेश करने वालों पर भी गिर सकता है। ऐसे में रिलायंस की जियो उनके लिए निवेश का सबसे सुरक्षित विकल्प बन गई है।

एक सवाल यह भी है कि क्या रिलायंस को इस बात का अंदाज था कि तकनीक की बात इस हद तक पहुँच जाएगी भारत में 5जी के ट्रायल 2018 में शुरू हो गए थे, तनाव के चिन्ह उस समय दिखने भी लग गए थे लेकिन मामला इतने आगे बढ़ेगा। यह सोचना तब शायद संभव नहीं था। अब इसे संयोग कह लें या रिलायंस की दूरदर्शिता, पर सच सिर्फ इतना ही है कि जियो ट्रेड वार को सबसे ज्यादा फ़ायदा उठाने की स्थिति में पहुँच गई है। 

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