यूपी में क्या सोच रहा है मुसलमान?
लोकसभा चुनाव के पाँच चरणों के मतदान हो जाने के बाद नतीजों को लेकर तसवीर काफ़ी हद तक साफ़ हो गई लगती है। उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विजय रथ अटकता दिख रहा है। पहले चरण के मतदान से पहले आशंका जताई जा रही थी कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन के मुक़ाबले कांग्रेस जितना दमखम से चुनाव लड़ेगी उससे मुसलिम वोटों का बँटवारा होगा और अंतत: इसका फ़ायदा बीजेपी को मिलेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है।
पहले चरण की 8 सीटों पर कांग्रेस ने कई सीटों पर बेहद मज़बूत मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन ऐसा लगता है कि मुसलमानों ने कांग्रेस के इन तमाम उम्मीदवारों को नकार कर सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के पक्ष में जमकर वोटिंग की।
पहले चरण के मतदान से तीन दिन पहले अखिलेश यादव, मायावती और अजीत सिंह की संयुक्त रैली देवबंद में हुई थी। इस रैली से गठबंधन यह संदेश देने में कामयाब रहा कि बीजेपी को हराने में वह ही सक्षम है। इसी रैली में मायावती ने मुसलमानों से एकजुट होकर बीजेपी को हराने के लिए गठबंधन को वोट देने की अपील की थी। हालाँकि उनके इस बयान को चुनाव आयोग ने आचार संहिता का उल्लंघन माना और उन पर तीन दिन प्रचार करने पर पाबंदी लगा दी थी।
मायावती पर 3 दिन की पाबंदी भले लगी हो, लेकिन उनके इस बयान ने गठबंधन के हाथ में बड़ा काम कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 2014 के चुनाव में सहारनपुर लोकसभा सीट पर कांग्रेस के टिकट पर सबसे कम वोटों से हारने वाले इमरान मसूद के पसीने छूट गए। पिछली बार उन्हें चार लाख से ज़्यादा वोट मिले थे। लेकिन बताया जा रहा है कि इस बार वह डेढ़ लाख वोटों पर ही सिमट जाएँगे। इसी तरह बिजनौर में कांग्रेस ने बीएसपी से आए दिग्गज नेता नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी को चुनाव मैदान में उतारा था। वह अकेले मुसलिम उम्मीदवार थे। बिजनौर में क़रीब 40% मुसलिम मतदाता हैं। इसके बावजूद नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी का चुनाव प्रचार ज़ोर नहीं पकड़ पाया।
कांग्रेस उम्मीदवार की स्थिति
इसी तरह मुरादाबाद में कांग्रेस ने मशहूर जज़्बाती शायर इमरान प्रतापगढ़ी को चुनाव मैदान में उतारा है। उन्होंने शायरी सुना-सुना कर वाहवाही तो ख़ूब लूटी, लेकिन मुसलमानों के वोट हासिल करने में नाकाम दिख रहे हैं। मुसलमानों का रुख़ गठबंधन के उम्मीदवार एसटी हसन के पक्ष में दिखता है। जानकारों की राय में इन तीन महत्वपूर्ण सीटों पर मुसलमानों का मुसलिम उम्मीदवारों को नकार कर गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट देना एक समझदारी भरा राजनीतिक कदम है। इससे यह भी साबित हो गया है कि मतदान को लेकर मुसलमानों में किसी तरह की कोई भ्रम की स्थिति नहीं थी।
सपा-बसपा गठबंधन से वोट का बँटवारा रुकेगा?
दरअसल, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन की मज़बूत स्थिति उसके मज़बूत आधार वोट बैंक की वजह से है। मिसाल के तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बेहद कमज़ोर है। इसकी वजह यह है कि कुछ ज़िलों को छोड़ कर वहाँ उसके आधार वोटर यादवों की आबादी बहुत कम है। ऐसे में समाजवादी पार्टी के पास पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलिम वोट ही बचते हैं। सपा-बसपा के अलग-अलग लड़ने की वजह से इन इलाक़ों में अक्सर बीजेपी जीत जाया करती थी। उसकी वजह यह थी कि मुसलिम वोट सपा और बसपा के बीच बँटता था। इसका फ़ायदा सीधे बीजेपी को मिलता था। पिछले चुनाव में भी सपा-बसपा के बीच मुसलिम वोटों के बँटने की वजह से लगभग यहाँ की सारी सीटें बीजेपी ही जीत गई थी।
गठबंधन का असर
इस बार गठबंधन की वजह से आरएलडी के जाट वोटर और बीएसपी के दलित वोटर मिलाकर गठबंधन का मज़बूत आधार बन गया। पिछले साल कैराना लोकसभा सीट और नूरपुर विधानसभा सीट पर हुए उप-चुनाव में गठबंधन की जीत ने मुसलमानों को एक मज़बूत आधार दिया। तीनों पार्टियों के बीच गठबंधन की वजह से मुसलमानों में भ्रम की स्थिति नहीं रही। इसकी वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी का सूपड़ा साफ़ होता दिख रहा है। 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगों के घाव भी भर गए हैं। अब इन इलाक़ों में जाट-मुसलिम-दलित समीकरण काफ़ी मज़बूत हो गया है। इसकी काट बीजेपी का हिंदुत्व का एजेंडा हो सकता था जो कि इस बार यहाँ चल नहीं पाया।
गठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग
तीन चरणों के मतदान के बाद बीजेपी को इस बात का एहसास हो गया था कि इस बार उत्तर प्रदेश में उसे ज़बर्दस्त नुक़सान होने वाला है। इसकी वजह सपा-बसपा-रालोद गठबंधन की सोशल इंजीनियरिंग है। दलित, पिछड़े और मुसलिम मतदाताओं ने एकजुटता दिखाकर बीजेपी को धूल चटाने की जी-तोड़ कोशिश की है। लिहाज़ा बीजेपी ने तीसरे चरण के बाद जमकर हिंदू कार्ड खेला।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन वाराणसी में डेरा डाला। कई किलोमीटर लंबा रोड शो किया। अपना नामाँकन भरने के बाद कई घंटे गंगा किनारे महाआरती की। बीजेपी के तमाम सहयोगी दलों के बड़े नेताओं को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया। ऐसा करके पीएम नरेंद्र मोदी ने यह संदेश दिया कि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के मुक़ाबले उनका गठबंधन ज़्यादा बड़ा, ज़्यादा मज़बूत और राष्ट्रव्यापी है।
मोदी की रणनीति
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे का घालमेल करके पीएम मोदी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की पूरी कोशिश की। इससे यह ख़तरा ज़रूर पैदा हुआ कि सपा और बसपा का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व की भावनाओं में बहकर बीजेपी की तरफ़ हो सकता है। लेकिन चौथे और पाँचवें चरण के मतदान में भी दलित, पिछड़ा मुसलिम गठजोड़ जिस तरह हावी रहा उससे बीजेपी के राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के एजेंडे की हवा निकलती दिखी। अब दो चरणों का मतदान बाक़ी है। उत्तर प्रदेश की 27 सीटों पर वोट पड़ने हैं। यह इलाक़ा पूर्वी उत्तर प्रदेश का है। यह सपा और बसपा का मज़बूत गढ़ माना जाता है। मुसलमान इन सभी सीटों पर हार-जीत का फ़ैसला करते हैं। सपा-बसपा गठबंधन की वजह से मुसलमानों का बड़ा वोट उसकी तरफ़ जाने के पूरे आसार हैं। बीजेपी की कोशिश किसी भी तरह इसमें बँटवारा कराने की है।
छठे और सातवें चरण की 27 सीटों में से एक आज़मगढ़ को छोड़कर बाक़ी सब बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के पास हैं। आख़िरी दो चरणों में बीजेपी के पास अपनी सभी सीटें बचाने की चुनौती है। वहीं, गठबंधन के सामने अपने वोट को बीजेपी की तरफ़ खिसकने से रोकने की चुनौती है।
अगर पाँच चरणों की तरह इन दो चरणों में भी दलित, पिछड़ा और मुसलिम वोटर एकजुट रहता है तो बीजेपी किसी भी सूरत में 2014 वाला अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी। ऐसे में वह केंद्र में सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 272 के आँकड़े से काफ़ी दूर अटक सकती है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भले ही बीजेपी को 300 पार पहुँचाने का दावा कर रहे हों लेकिन मौजूदा हालात में बीजेपी का 200 के पार जाना भी मुश्किल लग रहा है। अगर ऐसा होता है तो केंद्र में मोदी सरकार की वापसी मुश्किल होगी।