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क्या उत्तर प्रदेश में वाक़ई ‘कानून का राज’ है?

क्या उत्तर प्रदेश में वाक़ई ‘कानून का राज’ है?

ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि “एक व्यक्ति का शासन होने से अच्छा है कि कानून का शासन हो, क्योंकि ऐसा होने से कानून के संरक्षक को भी कानून का पालन करना पड़ता है”।

उत्तर प्रदेश, 2022 के विधानसभा चुनावों से गुज़र रहा है। वर्तमान योगी आदित्यनाथ सरकार ‘कानून और व्यवस्था’ के चाक-चौबंदी के दावे के साथ दोबारा सत्ता में आना चाहती है। इससे पहले कि उनका दावा एक ‘सरकार’ का रूप धारण कर ले उसकी पड़ताल करना बेहद ज़रूरी है।

नई दिल्ली, स्थित एक प्रतिष्ठित संगठन ‘भारतीय पुलिस फाउंडेशन’ (IPF) द्वारा नवंबर, 2021 में एक सर्वे जारी किया गया। यह सर्वे अपनी तरह का पहला सर्वे है जिसने ‘स्मार्ट पुलिसिंग सूचकांक’ की शुरुआत की है। अपने इस पहले सूचकांक में फाउंडेशन ने 29 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को शामिल किया है।

सरकारी दावे का हवामहल उत्तर प्रदेश इस सूचकांक में 28वें स्थान पर है। अर्थात उत्तर प्रदेश सिर्फ़ बिहार से बेहतर है। इस सूचकांक में लगभग 10 मानकों- पुलिस की संवेदनशीलता, पहुंच, प्रतिक्रिया, मददगार एवं निष्पक्ष पुलिसिंग आदि- पर राज्यों की पुलिस का आकलन किया गया है।

मूल रूप से नागरिकों पर आधारित इस सर्वे में ‘पुलिस की संवेदनशीलता’ के मामले में यूपी पुलिस 28वें स्थान पर है। ‘मददगार व मित्रवत व्यवहार’ के मामले में यूपी पुलिस सबसे अंतिम पायदान अर्थात 29वें स्थान पर है। ‘ईमानदार, निष्पक्ष व क़ानून सम्मत पुलिसिंग’ के मामले में यूपी पुलिस फिर से आख़िरी स्थान अर्थात 29वें पर आ जाती है। सरकारी संरक्षण प्राप्त उत्तर प्रदेश पुलिस ने ‘जवाबदेही’ के मामले में भी देश के सभी राज्यों में अंतिम स्थान (29वाँ) प्राप्त किया है।

संविधान की अनुसूची 7 के तहत पुलिस राज्य का विषय है। अर्थात पुलिस को वैधानिक तरीके से विनियमित करने का दायित्व राज्य सरकारों पर है। वर्तमान यूपी सरकार अपने दायित्व को कैसे निभा रही है यह उन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाएगा जो पब्लिक डोमेन में उपलब्ध हैं।

मई 2019 से जुलाई 2021 तक देश के गृहराज्य मंत्री रहे जी. किशन रेड्डी ने संसद में दिए अपने एक उत्तर में कहा कि, वित्तीय वर्ष 2020-21 में देशभर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के 11 हजार से अधिक मामले आए (मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1993 के तहत दर्ज)।

इन मामलों में से आधे से अधिक मामले सिर्फ़ एक प्रदेश से आए जिसका नाम उत्तर प्रदेश है। रामलीला मैदान बनाम गृहसचिव, भारत सरकार (2012) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ शब्दों में कहा था कि विरोध प्रदर्शन का अधिकार एक मूल अधिकार है। इसके बावजूद यूपी सरकार ने NRC-CAA प्रदर्शनकारियों के साथ जो अनुचित व्यवहार किया उससे न जाने कितने न्याय के पन्ने फट गए। इन प्रदर्शनों के दौरान पुलिस द्वारा की गई कार्यवाही को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सुदर्शन रेड्डी ने ‘लोकतान्त्रिक मंदी’ की संज्ञा देते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश ने एक पूर्णरूप से ध्वस्त व्यवस्था का रूप देखा है। यह सब योगी आदित्यनाथ की सरकार में ही हो रहा था।

‘ठोको नीति’ की प्रतिष्ठा और ‘कट्टों के विलोपन’ से खुश प्रधानमंत्री जिन्हें यह तथ्य जानना चाहिए कि उनके देश के एक प्रदेश में अपराधियों को सजा दिलाने के लिए बंदूकों का इस्तेमाल हो रहा है और संभवतया यह बंदूक निष्पक्ष भी नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री को यह बात मालूम होगी कि, मार्च 2017 से अगस्त 2021 के बीच उत्तर प्रदेश में 8,472 एनकाउंटर हुए हैं, जिनमें 3,302 लोगों को इस तरह गोली मारी गई कि वो किसी न किसी विकलांगता के साथ बच गए। लेकिन 146 ऐसे लोग भी हैं जिनकी एनकाउंटर के बाद मौत हो गई। ये वो लोग हैं जिनको अदालत से सज़ा मिलनी चाहिए थी पर ये सज़ा बंदूक की गोलियों ने दी। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी मात्र 19.5% है लेकिन एनकाउंटर में मारे गए लोगों में से उनका हिस्सा 37% है (मार्च 2017-अगस्त 2020)।

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2021 के शुरुआती 8 महीनों में देशभर में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों में 46% की वृद्धि हुई। इस वृद्धि का आधे से अधिक हिस्सा उत्तर प्रदेश का है। नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो की 2018 और 2019 की रिपोर्ट यह बताती है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे अधिक अपराधों के मामलों में यूपी पहले स्थान पर है।

 - Satya Hindi

वास्तविकता तो यह है कि प्रदेश में व्यक्तियों का राज है क़ानून का नहीं। क़ानून का राज होता तो कासगंज में 22 साल के एक मुसलिम युवा की पुलिस कस्टडी में मौत न होती। कहा गया कि युवक ने बाथरूम में नल से लटक कर जान दे दी। पुलिस इतने अहंकार और भ्रम में है कि उसे लगा कि 2 फुट की ऊंचाई से फांसी लगा लेने की बात न्यायालय और जनता मान लेगी। इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बॉडी को कब्रिस्तान से दोबारा बाहर निकालकर उसके पोस्ट-मॉर्टम का आदेश दिया है।

सारी कहानी आपस में जुड़ी ही है। NHRC कहता है कि यूपी हिरासत में मौतों के मामले में नंबर एक पर है। आजमगढ़ के पलिया में दलितों के घरों को तोड़ा गया, लेकिन पुलिस कहती है कि गाँववालों ने खुद ही अपने घर तोड़-फोड़ डाले। 

हाथरस में बलात्कार पीड़िता के शव को जला दिया गया और कहा गया कि बलात्कार हुआ ही नहीं, यूपी में आईटी प्रोफेशनल विवेक तिवारी को अपराधी समझकर गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई (इसके लिए यूपी पुलिस को 5 लाख का जुर्माना भी भरना पड़ा)।

कानपुर के व्यापारी की गोरखपुर के एक होटल में पुलिस द्वारा ही संदिग्ध हत्या हुई, कोविड महामारी में जब लोग अपनों को बचाने की जद्दोजहद में परेशान थे तब कर्फ्यू तोड़ने के आरोप में एक नाबालिग की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, थाने में एक विकलांग को पीट-पीटकर मार दिया गया। सपा नेता कृष्णा यादव की पुलिस कस्टडी में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, 9 पुलिसकर्मी फरार हैं और महीनों से सीबीआई जांच चल रही है। यूपी पुलिस कानून व्यवस्था के खिलाफ कीर्तिमान पर कीर्तिमान छू रही थी।

इसी में एक और मेडल तब लग गया जब अलीगढ़ ज़िले के एक गाँव में ऑपरेशन करने गई एक पुलिस टीम ने कुछ स्थानीय पत्रकारों को यह कहकर आमंत्रित किया कि अगर वो ‘लाइव एनकाउंटर’ देखने और उसे कैमरे में कैद करना चाहते’ हैं तो आ जाएं। क्या ये ‘कानून व्यवस्था’ की वो अवस्था है जिस पर साढ़े पाँच लाख करोड़ रुपये की जीडीपी वाले राज्य की राजनैतिक डोर फिर से वर्तमान नेतृत्व को सौंप देनी चाहिए?

यूपी में जो हो रहा है वह क्या है, उसका नाम बताना तो मुश्किल है लेकिन यह ‘रूल ऑफ़ लॉ’ तो बिल्कुल नहीं है। लगभग यही विचार ‘वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट’ के तहत जारी होने वाले ‘रूल ऑफ लॉ इंडेक्स’ का है। इस इंडेक्स में सुरक्षा एवं व्यवस्था, मूल अधिकार, सिविल जस्टिस और क्रिमिनल जस्टिस आदि जैसे 8 संकेतकों पर 139 देशों का आकलन किया गया। वैसे समग्र रूप से तो भारत, रूल ऑफ़ लॉ इंडेक्स, 2021 में 79वें स्थान पर है। लेकिन अलग अलग संकेतकों में भारत की स्थिति भयावह है।

भ्रष्टाचार में भारत 95वें स्थान पर, कानून और व्यवस्था (जिस पर पूरा यूपी चुनाव लड़ा जा रहा है) में भारत 139 देशों में 121वें स्थान पर है। मूल अधिकारों की सुरक्षा के मामले में 93वाँ स्थान तो सिविल जस्टिस के मामले में भारत 110वें स्थान पर है। इस इंडेक्स में यह भारत की अब तक सबसे ख़राब रैंकिंग है।

भारत जैसा लोकतंत्र कभी भी इस इंडेक्स में टॉप 50 देशों में शामिल नहीं हुआ। यह अनोखा तथ्य नहीं कि यदि भारतीय पुलिस फाउंडेशन का सर्वे और रूल ऑफ़ लॉ इंडेक्स को साथ-साथ पढ़ें तो पता चलेगा कि भारत की छवि बिगाड़ने का सर्वोत्तम काम यूपी में स्थित क़ानून और व्यवस्था ही कर रही है।

ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि “एक व्यक्ति का शासन होने से अच्छा है कि कानून का शासन हो, क्योंकि ऐसा होने से कानून के संरक्षक को भी कानून का पालन करना पड़ता है”। देश की हालत वास्तव में खराब है। कोरोना का कुप्रबंधन लाखों लोगों को निगल गया, देश का सबसे बड़ा प्रदेश कानून और व्यवस्था के संकट से गुजर रहा है, हेनले पासपोर्ट रैंकिंग में भारत अब तक की सबसे निचली रैंकिंग में पहुँच गया है, अर्थात भारतीय पासपोर्ट को धारण करने वालों की हैसियत में कमी आई है। नौकरी की मांग करने वाले प्रतियोगी छात्रों को हॉस्टल से निकाल-निकाल कर मारना अगर ‘कानून-व्यवस्था’ का हिस्सा है, तब तो इस व्यवस्था को किनारे ही लगाना बेहतर है। बेहिसाब बेरोजगारी, गरीबी और कुप्रबंधन को ‘कानून-व्यवस्था’ के कंधे पर सर रख के सोने की सलाह दी जा रही है। क्या ये उचित है?

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