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यूपी-बिहार में बदल रहा जातिगत समीकरण, चुनावी नतीजे भी बदलेंगे?

यूपी-बिहार में बदल रहा जातिगत समीकरण, चुनावी नतीजे भी बदलेंगे?

उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति का ढाँचा बदल रहा है। जातीय समूहों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा बढ़ी है। जातीय समूहों की इस बेचैनी का असर क्या आने वाले चुनाव परिणाम पर भी पड़ेगा?

बिहार में ‘सन ऑफ़ मल्लाह’ नाम से विख्यात मुकेश सहनी ने लालू प्रसाद के जमे जमाए दल से बिहार की तीन लोकसभा सीटें झटक लीं। सहनी ने महज कुछ महीने पहले विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) बनाई थी। यह चर्चा का विषय है कि ऐसा क्यों हुआ। मीडिया में बिहार के महागठबंधन के सीट बँटवारे के बाद चर्चा में आए इस दल की खोज बढ़ गयी है।

उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय राजनीति का ढाँचा बदल रहा है। इन राज्यों में अन्य पिछड़े वर्ग व अनुसूचित जाति में तमाम ऐसी जातियाँ हैं, जिन्होंने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड में उपेक्षित महसूस किया है। ऐसा नहीं है कि इन जातीय समूहों को इस दौरान लाभ नहीं मिला। संपन्नता आने के साथ इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा बढ़ी है।

जातीय समूहों की इस बेचैनी को 2014 के चुनाव के पहले बीजेपी ने पहचाना था। उसने उत्तर प्रदेश में अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को अपने पाले में किया। उसके अलावा राजभरों की पार्टी ओम प्रकाश राजभर को साधा।

लोध और कुर्मी मतदाता कल्याण सिंह और ओम प्रकाश सिंह के समय से ही बीजेपी के साथ सत्ता सुख ले चुके थे और जब इन नेताओं को बीजेपी ने हाशिये पर किया तो थोड़ी नाराज़गी थी। लेकिन कल्याण सिंह को ताक़तवर बनाए जाने और अनुप्रिया पटेल के बीजेपी के साथ आने से एक बार फिर यह वोट बीजेपी के पाले में चला आया। इसी तरह से बिहार में नीतीश कुमार के दाहिने हाथ माने जाने वाले राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा को अपने पाले में करके बीजेपी ने कोइरी वोट साध लिया। यूपी में कोइरी नेता केशव प्रसाद मौर्य का नाम सामने किया। अन्य कई नेताओं को छोटे स्तर पर सेट किया और अन्य पिछड़े वर्ग में जिन्हें ईबीसी कहा जाता या कहा जा सकता है, उन्हें बीजेपी ने साधकर यूपी और बिहार में अपार सफलता हासिल कर ली।

गोरखपुर में सपा का भी था यही फ़ॉर्मूला 

यही फ़ॉर्मूला समाजवादी पार्टी ने गोरखपुर में लगाया। निषाद पार्टी के प्रवीण निषाद को समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतार दिया। गोरखपुर सीट 1989 के चुनाव से ही बीजेपी जीतती रही है। सिटिंग मुख्यमंत्री की सीट रहते हुए बीजेपी प्रत्याशी उपेंद्र दत्त शुक्ल चुनाव हार गए। ऐसा नहीं है कि सपा इसके पहले निषादों को महत्त्व नहीं देती थी। गोरखपुर से सपा के जमुना निषाद और उनकी मौत के बाद उनकी पत्नी राजमती ही गोरखपुर संसदीय सीट से चुनाव लड़ती थीं। लेकिन जब स्वतंत्र अस्तित्व वाली निषाद पार्टी को जब मैदान में उतारा गया तो उसे सफलता मिल गई।

यूपी और बिहार में नए ताक़तवर जातीय समूह बनकर उभर रहे हैं। ये लोग अपनी जाति के साथ इस तरह गोलबंद हो रहे हैं कि वे अच्छा-ख़ासा वोट काट लेते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी भी है, जो अपने प्रत्याशियों के पक्ष में अच्छी-ख़ासी मुसलिम आबादी को जोड़ लेती है।

बिहार में लालू प्रसाद के राजद ने इस समीकरण को भली-भाँति समझा है कि इस तरह के छोटे-छोटे जातीय समूहों को जोड़कर सफलता हासिल की जा सकती है।

कांग्रेस भी इसी कवायद में

वहीं कांग्रेस भी इस तरह की कवायद में लगी हुई है। उसके निशाने पर ख़ासकर कुर्मी मतदाता हैं। इनके अलावा पार्टी अन्य तमाम छोटे-छोटे जातीय समूहों को अपने पाले में खींचने की कवायद कर रही है। मसलन, पूर्वी यूपी में एक ज़माने में खटिक मतदाता कांग्रेस के पक्के समर्थक हुआ करते थे, जो इस समय लंबे समय से बीजेपी के पाले में हैं। गोरखपुर और वाराणसी इलाक़े में दलितों में सबसे ताक़तवर माने जाने वाले खटिकों को पार्टी फिर एक बार अपने पक्ष में खींचने की कवायद कर रही है। कांग्रेस उन्हीं दलित व पिछड़े मतदाताओं पर डोरे डाल रही है, जिनके नेता अपने विकास की उम्मीद में सपा, बसपा, राजद और जदयू को छोड़कर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं और अपने साथ अपनी जाति का वोट बैंक भी साथ ले गए हैं। उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के कुछ ज़मीनी ओबीसी नेता भी इस बात की तसदीक करते हैं कि ऐसे नेताओं को पार्टी इस बार बड़े पैमाने पर लोकसभा टिकट देकर उनके जातीय वोट बैंक को आजमाने की कवायद करने वाली है।

यूपी-बिहार की जातियों को 4 भागों में बाँटा जा सकता है

  • पहला- ब्राह्मण, क्षत्रिय, उच्च बनिया, कायस्थ। ये वह जातियाँ हैं, जो अमूमन अपनी जाति का उम्मीदवार देखकर मतदान करती रही हैं और जिस भी दल की सरकार होती है, उनके साथ होकर ठेका पट्टा से लेकर पोस्टिंग आदि में हिस्सेदारी लेती हैं।
  • दूसरा- यादव, कुर्मी, लोध, कोइरी, जाटव, खटिक। इन जातियों को ओबीसी और एससी की सवर्ण जातियाँ कहा जा सकता है। इन जातियों के क़रीब 3 दशक तक सत्ता के क़रीबी रहने के बाद अन्य ओबीसी व एससी-एसटी जातियों को इनसे जलन होने लगी। 2014 के चुनाव में बीजेपी ने रणनीति बनाकर इन्हें अन्य ओबीसी व एससी जातियों से अलग-थलग कर दिया और यह प्रचारित किया गया कि यही जातियाँ ओबीसी और एससी का पूरा हक़ खा गई हैं।
  • तीसरा- इनमें निषाद, राजभर, काछी, केवट, बढ़ई, लोहार को रखा जा सकता है। इन्हें सपा, बसपा, राजद, जदयू ने प्रतिनिधित्व दिया था। लेकिन ये अब ख़ुद अपनी जाति वाला सीएम बनने के सपने देख रही हैं। अपने स्वतंत्र अस्तित्व वाले नेताओं के पीछे एकजुट हो रही हैं।
  • चौथा- यूपी के पिछड़े वर्ग में शामिल 76 जातियों, बिहार की 136 जातियों व अनुसूचित जाति की सूची में शामिल यूपी की 66 और बिहार की 23 जातियों में से उपरोक्त उल्लिखित जातियों के अलावा जातियाँ। ये जातियाँ अभी किसी जातीय समूह से चिपकी रहती हैं। इनका अपना कोई ख़ास वजूद नहीं है और सामान्यतया बड़े राजनीतिक दल इन जातियों को जानते भी नहीं हैं।

इसमें कुछ जातियों के आँकड़े इधर-उधर हो सकते हैं कि पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी श्रेणी में कौन-कौन-सी जातियाँ आ रही हैं। लेकिन मंडल कमीशन की रिपोर्ट और यूपी में दलित, पिछड़ी जातियों के उभार और उनके राजनीतिक वर्चस्व के बाद अब एक बार भी राज्य का जातीय ढाँचा बदलने की ओर है और उसी के मुताबिक़ राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचाने की कवायद में जुटे हैं।

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