राजनेताओं और चुनाव पर हिसाब-किताब रखने वालों के मन में यह सवाल शायद उमड़-घुमड़ रहा होगा कि दस फ़रवरी की सुबह जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए वोट डाले जाएंगे तो क्या पिछली बार साल 2017 में हुए चुनावों के इतिहास को दोहराया जा सकेगा? क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश फिर से एक बार बीजेपी को सत्ता दिला पाएगा? या फिर यही मतदान प्रदेश को एक नई सरकार देने के अभियान की शुरुआत करेगा? क्या इस मतदान से साफ़ हो जाएगा कि एक साल तक चले किसान आंदोलन से हुए जख्म अभी भरे नहीं हैं या फिर केन्द्र सरकार के कृषि क़ानूनों को वापस लेने के फ़ैसले से वोटर ने उसे माफ़ कर दिया है? क्या यह वोट इस बात का इशारा भी करेगा कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों को जनता ने नकार दिया है या वो लकीरें और गहरी होने लगी हैं?
राज्य के पहले चरण के चुनाव में जिन 58 सीटों पर वोट डाले जाने हैं उसमें पिछली बार बीजेपी ने सबका सफाया कर दिया था और उसने 53 सीटों पर कब्जा कर लिया था। इनके अलावा 4 सीटों पर वो दूसरे नंबर पर रही जबकि केवल एक सीट पर तीसरे नंबर पर आई थी। इस इलाक़े में बीएसपी को सिर्फ़ दो सीटें मिलीं। तीस सीटों पर वो दूसरे नंबर पर मुक़ाबले में रही जबकि बीस सीटों पर उसका स्थान तीसरा रहा।
इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी ‘दो किसान लड़कों’ के नाम पर साथ-साथ चुनाव मैदान में हैं जबकि पिछली बार दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था, तब अखिलेश यादव ने कांग्रेस के राहुल गांधी के साथ चुनावी जोड़ी बनाई थी जिसे प्रशांत किशोर ने नारा दिया था- “यूपी के दो लड़के, यूपी को ये साथ पसंद है”। तब समाजवादी पार्टी को दो और आरएलडी को केवल एक सीट मिल पाई थी। समाजवादी पार्टी ने 46 सीटों पर चुनाव लड़ा और वो 15 पर दूसरे नंबर पर और 14 सीटों पर तीसरे नंबर पर रही थी, जबकि राष्ट्रीय लोकदल केवल तीन सीटों पर दूसरे स्थान पर और 11 सीटों पर तीसरे नंबर पर जगह बना पाई। कांग्रेस को तब यहां एक भी सीट नहीं मिली थी और वो केवल 5 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी और 12 सीटों पर तीसरे स्थान पर जगह बना पाई।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का सबसे ज़्यादा असर माना जा रहा है और यह मुद्दा इस पहले चरण में कितना असर डालेगा, उससे बीजेपी को कितना नुक़सान होगा, कितनी सीटें वो बचा पाएगी, लेकिन ऐसा लगता है कि यहाँ पिछली बार की तरह बीजेपी का एकतरफ़ा प्रदर्शन नहीं हो पाएगा यानी 58 में से 53 सीटें बरकरार रखना उसके लिए मुश्किल काम होगा। पिछले चुनाव में बीजेपी के समर्थन में पहले चरण में हुई बम्पर वोटिंग की हवा ने आख़िरी चरण तक पहुँचते-पहुँचते उसके पक्ष में तूफ़ान में बदल दिया और नतीजा रहा 403 में से 312 सीटें। क्या केन्द्र सरकार के तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने के फ़ैसले का फ़ायदा हो पाएगा? क्या किसानों की नाराज़गी कम हुई है?
हालाँकि संयुक्त किसान मोर्चा ने तो लोगों से बीजेपी को हराने की अपील की है, भले ही उन्होंने किसी पार्टी के समर्थन में वोट देने की अपील ना की हो, लेकिन साफ़ है कि इसका फायदा समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन को मिल सकता है। यहां गन्ने की उचित क़ीमत नहीं मिलने और किसानों को गन्ना खरीद का बकाया रहने का भी बड़ा मुद्दा है।
किसानों का कहना है कि सरकार ने जो क़ीमतें तय की थीं वो चीनी मिलों ने उन्हें नहीं दी हैं। और जो पैसा पन्द्रह दिनों में मिलना चाहिए था, वो साल भर के इंतज़ार के बाद भी नहीं मिल पाया।
वैसे, योगी सरकार में पिछली सरकारों के मुक़ाबले ज़्यादा पैसे का भुगतान किसानों को हुआ है। इस बार के बीजेपी के संकल्प पत्र में फिर से किसानों को गन्ना भुगतान पन्द्रह दिनों में करने का वादा किया गया है जबकि अखिलेश यादव ने अपने वचन पत्र में कहा है कि उनकी सरकार में 14 दिनों में गन्ना का भुगतान किया जाएगा।
गन्ना खरीद के अलावा किसानी में बिजली की रियायत भी एक बड़ा मसला है। किसानों का कहना है कि पंजाब और हरियाणा में जिस दर पर बिजली किसानों को मिलती है, उस हिसाब से यूपी में नहीं मिलती। इसके अलावा आवारा पशुओं का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया जा रहा है। इस बार अगर साल 2017 की तरह की वोटिंग नहीं हुई या किसान आंदोलन की नाराज़गी पहले चरण में दिखाई दी तो क्या वो नतीजे बदलने में कामयाब हो पाएगी? क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरह राज्य के दूसरे इलाक़ों में किसानों की नाराज़गी वैसी नहीं दिखाई देती और वहां दूसरे मुद्दे चुनाव पर असर डालते लगते हैं।
अब यदि इस चुनाव में राजनीतिक दलों की रणनीति को देखें तो शायद तसवीर ज़्यादा साफ़ हो पाएगी। बीजेपी ने पिछली बार 58 में से 53 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसने पिछली बार के 23 उम्मीदवार बदल दिए हैं यानी 19 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे हैं और चार उन उम्मीदवारों को जो पिछली बार हार गए थे। इसका मायने यह भी समझा जा सकता है कि बीजेपी को मौजूदा 19 विधायकों के ख़िलाफ़ स्थानीय स्तर पर ज़्यादा विरोध या ‘एंटी इनकंबेंसी’ दिखाई दी होगी। इससे उलट बीजेपी ने अपने घर आए तीन ऐसे नए मेहमानों को मैदान में उतारा है जिन्होंने पिछली बार बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था। इनमें एत्मादपुर से धर्मपाल सिंह, खैरागढ़ में भगवान सिंह कुशवाहा और बरौली में ठाकुर जयवीर सिंह का नाम लिया जा सकता है। बीजेपी लीडरशिप सरकार के ख़िलाफ़ एंटी इनकंबेंसी को कम करने के लिए विधायक या सांसद स्तर पर उम्मीदवार बदल देती और यदि मुख्यमंत्री को लेकर ज़्यादा नाराज़गी हो तो वो उसे बदलने में भी नहीं हिचकती, जैसा उत्तराखंड में किया गया।
बीएसपी ने अपने उम्मीदवारों में सबसे ज़्यादा बदलाव किया है। इस बार उसने 56 नए चेहरे मैदान में उतारे हैं। पिछली बार जीतने वाले दोनों नेताओं- मथुरा की मांट सीट के श्याम सुंदर शर्मा और गोवर्धन सीट से राजकुमार रावत पर फिर से विश्वास जताया है। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में श्याम सुंदर शर्मा राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी से चुनाव हार गए थे, फिर उस सीट को जयंत चौधरी के छोड़ने के बाद हुए उप चुनाव में उन्होंने जीत हासिल की थी। श्याम सुंदर आठ बार विधायक रह चुके हैं और तमाम पार्टियों के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़े और जीते हैं।
इस बार समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल साथ-साथ चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें समाजवादी पार्टी 28 सीटों पर, राष्ट्रीय लोकदल 29 सीटों पर और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एक सीट पर मैदान में है।
इनमें गठबंधन ने 43 नए चेहरों को मैदान में उतारा है जबकि 15 पुराने उम्मीदवार हैं। इन 43 उम्मीदवारों में से किसी ने भी पिछली बार एसपी या आरएलडी के टिकट पर चुनाव नहीं लड़ा है।
पिछले चुनाव में कांग्रेस इस इलाक़े में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। तब उसने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था, इनमें से पाँच हारे हुए उम्मीदवारों को उसने दोबारा आजमाने का फ़ैसला किया है। इस बार कांग्रेस सभी 58 सीटों पर मैदान में है।
कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने इस चुनाव में “लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ” का नारा देकर और फिर चालीस फ़ीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का ऐलान करके यूपी की राजनीति में दबाव बनाने और राजनीति की शक्ल बदलने की कोशिश की है। पिछली बार जहाँ कांग्रेस ने 23 सीटों में सिर्फ़ एक महिला को टिकट दिया था, इस बार उसने 58 सीटों में से 15 पर महिला उम्मीदवार उतारे हैं जो किसी भी राजनीतिक दल से दोगुने से ज़्यादा हैं। दूसरे नंबर पर बीजेपी की सात महिला उम्मीदवार हैं। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन की तरफ से चार और बीएसपी की भी चार महिला उम्मीदवार मैदान में हैं। साल 2017 में जहां 17 महिला उम्मीदवार थीं इस बार 30 महिलाएँ चुनावी दंगल में हैं।
इसके अलावा मुसलिम वोटर भी अहम भूमिका निभाएंगे। शायद इसीलिए चुनाव में अब्बाजान, जिन्ना और पाकिस्तान भी चुनावी भाषणों में जोर शोर से सुनाई दे रहे हैं। यहाँ समाजवादी पार्टी का परंपरागत यादव वोट कम है, इसलिए उनका दारोमदार मुसलिम वोटों और आरएलडी की साख पर निर्भर है। मुसलमान और जाटों के भाईचारे की बात भी इस बार चुनावी समीकरणों को बदल सकती है। साल 2013 के मुज्फरनगर और शामली के दंगों और उसके बाद हुए पलायन ने जाटों को बीजेपी की तरफ़ कर दिया था और बड़ी तादाद में जाट समुदाय ने बीजेपी को वोट दिया, इस बार राष्ट्रीय लोकदल और किसान आंदोलन क्या इन दोनों समुदायों को फिर साथ ला पाएगा? मुसलिम लीग के औवेसी कितना वोट हासिल कर पाएंगे, इसका असर भी नतीजों पर दिखाई देगा।
यूँ तो चुनाव में हर चरण, हर विधानसभा सीट और हर वोटर की अहम भूमिका होती है, लेकिन माना जाता है कि पहले चरण की हवा आने वाले चरणों में माहौल बनाने में मदद करती है। मगर जीतने के लिए पश्चिम से पूरब तक हर जगह ताक़त लगानी पड़ती है। समाजवादी पार्टी के लिए फिर से सरकार बनाने, बीएसपी और कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने का चुनाव है जबकि बीजेपी के लिए सरकार बचाना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उसने इन चुनावों को 2024 के आम चुनावों से जोड़ दिया है। “लखनऊ से लुटियंस ज़ोन” तक आने के लिए सरकारों ने भले ही यमुना एक्सप्रेस-वे और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे बना दिया हो, मगर राजनीतिक सड़क पर लड़ाकू विमान आसानी से नहीं उतर पाते।