यूनिफॉर्म सिविल कोड पर आखिर प्राइवेट बिल ही क्यों?
यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) यानी समान नागरिक संहिता बिल राज्यसभा में पेश किया गया। लेकिन इसे प्राइवेट बिल के तौर पर बीजेपी सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने पेश किया है। सरकार ने इस बिल को पेश नहीं किया है लेकिन बीजेपी का पूरा समर्थन इस बिल को है। आखिर ऐसा क्यों है कि इस बिल को सरकार अपनी ओर से पेश न करके अपने किसी सांसद से इसे प्राइवेट बिल के रूप में पेश करवा रही है। ऐसी सरकार जिसने कश्मीर से धारा 370 हटवा दिया, कश्मीर को तीन हिस्सों में बांट दिया, ऐसी सरकार जिसने अयोध्या में राम मंदिर का वादा पूरा किया वो यूसीसी पर ऐसा रवैया क्यों अपना रही है। लोकसभा में उसके पास प्रचंड बहुमत है। राज्यसभा में उसने किसान विरोधी कानून जो वापस लिया जा चुका है, पास करा लिया था। कई और कानून पास कराए हैं, उसके लिए यूसीसी को पास कराना आसान है लेकिन वो ऐसा क्यों नहीं कर रही है।
उत्तराखंड में यूसीसी पर कानून बन गया है। गुजरात में बीजेपी का यह चुनावी वादा था। यूपी और मध्य प्रदेश में इस पर काम हो रहा है। सोशल मीडिया पर आज शनिवार को यह टॉप ट्रेंड में शामिल है। इसके कुछ वाजिब कारण हैं, जिन पर बीजेपी और केंद्र की मोदी सरकार बहुत सधे हुए कदमों से आगे बढ़ रही है। सबसे बड़ा कारण है 2024 का लोकसभा चुनाव। वो इस मुद्दे पर चुनाव लड़ने का इरादा रखती है। इसीलिए पहले राज्यों में इस पर कानून बनवाए जा रहे हैं और चर्चा कराई जा रही है।
बीजेपी का मकसद है कि 2024 के चुनाव तक इस मुद्दे को जिन्दा रखा जाए और फिर या तो इस कानून को सरकार अपना बिल लाकर पास करा लेगी या फिर देश की जनता से इस पर वोट मांगेगी। क्योंकि राम मंदिर, धारा 370, तीन तलाक पर अब वो वोट मांग नहीं सकती है। हर आम चुनाव में यूसीसी बीजेपी के घोषणा पत्र में शामिल रहता है। आरएसएस का भी यूसीसी एक सपना है। मोदी के नेतृत्व में इसे पास कराना इस समय ज्यादा आसान है, कोई नहीं जानता की 2024 में बीजेपी की क्या स्थिति बनेगी। लेकिन मोदी सरकार की रणनीति अलग है। उसने धारा 370, तीन तलाक और राम मंदिर पर चर्चा कराकर, आंदोलन चलाकर मनचाहा फल प्राप्त किया है, इसलिए इस मुद्दे पर वो देश में व्यापक चर्चा करवाकर भावनात्मक रुझान चाहती है।
हिमाचल से क्या मिला संकेतः केंद्र सरकार के इस पर सीधे न आने की एक और भी खास वजह है। हिमाचल विधानसभा चुनाव में बीजेपी के संकल्प पत्र में यह मुद्दा शामिल था। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपनी रैलियों में बार-बार जिक्र किया था कि इस बार सरकार बनते ही सबसे पहले समान नागरिक संहिता कानून को लागू किया जाएगा। यहां तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने हिमाचल की अपनी रैलियों में इसका जिक्र किया। लेकिन हिमाचल की जनता ने इसे भावनात्मक ढंग से न लेते हुए इस मुद्दे को रिजेक्ट कर दिया। उनके सामने अपने स्थानीय मुद्दे इतने थे कि यूसीसी उस हवा में उड़ गया। गुजरात में भी यही वादा किया गया था। वहां बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला, लेकिन यह मुद्दा वहां भी भावनात्मक रूप से गायब था। गुजरात का मतदाता खुलकर कह रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी हमारी शान हैं। गुजरात ने मोदी को वोट दिया। बीजेपी को वोट नहीं दिया। इसी तरह यूपी में मैनपुरी लोकसभा और खतौली विधानसभा उपचुनाव बीजेपी हार गई। अगर यह मुद्दा भावनात्मक बन गया होता तो मैनपुरी और खतौली में भी बीजेपी जीत जाती। रामपुर उसने जीता जरूर है लेकिन 31 फीसदी मतदान में जीतना कोई कमाल नहीं है, जब वहां पर पुलिस और प्रशासन मतदान को लेकर गंभीर आरोपों में घिरा हुआ हो।
मुसलमानों की चुप्पी परेशान करने वाली
समान नागरिक संहिता पर मुसलमानों और मुस्लिम संगठनों की चुप्पी भी बीजेपी को परेशान कर रही है। बीजेपी को उम्मीद थी कि जिस तरह तमाम बीजेपी शासित राज्य यूसीसी पर घोषणाएं कर रहे हैं, उसका मुसलमान खुलकर विरोध करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मौलाना महमूद मदनी ने जरूर देवबंद सम्मेलन में इसके खिलाफ बोला लेकिन मुस्लिम उलेमाओं ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। कई मुस्लिम उलेमा और संगठनों ने खुलकर कहा कि सरकार फौरन इस कानून को लाए। ताकि उसकी नीयत पता चले।
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समान नागरिक संहिता में ध्रुवीकरण की असीम संभावनाएं हैं।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी विरोध किया लेकिन इसे बहुत तूल नहीं देने की सलाह मुसलमानों को दी। शिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बयान में कुछ ज्यादा ही होशियारी दिखाई। उसने कहा कि सरकार पहले यूसीसी का डॉफ्ट सार्वजनिक करे कि वो क्या बदलाव करेगी तब उस पर चर्चा हो और सभी का रुख सामने आए। लेकिन मीडिया ने ऐसे बयानों को महत्व नहीं दिया और वो बयान सोशल मीडिया का हिस्सा बनकर रह गए। हालांकि कुछ चैनलों पर टीवी वाले मौलाना इसका विरोध करते नजर आए लेकिन टीवी चैनल और वो मौलाना मिलकर कोई लहर पैदा नहीं कर पाए जिस पर बीजेपी को खेलने का मौका मिलता।
हालांकि बीजेपी को एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी से उम्मीद है कि उनकी ओर से तीखा विरोध होगा। ओवैसी ने जहां-तहां इसके खिलाफ बोला भी है लेकिन अभी ज्यादा मुखर नहीं हुए हैं। ओवैसी के बयान जरूर सरकार की मदद कर सकते हैं।
सरकार सीधे आने से क्यों बच रही
सबसे बड़ा तर्क यही है कि भारत विविधताओं का देश है। यहां किसी एक संस्कृति का बोलबाला नहीं है। आदिवासी अलग ढंग से अपनी परंपराएं, रीति-रिवाज निभाते हैं। हिन्दू विभिन्न जातियों में बंटे हुए हैं, उनकी तमाम परंपराओं और रीति-रिवाजों का आपस में तालमेल नहीं है। दक्षिण भारत के हिन्दुओं के रीति-रिवाज और परंपराएं अलग हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर (नॉर्थ-ईस्ट) भारत को किस चश्मे से देखा जाएगा। उनके मातृसत्तात्मक रीति-रिवाज, नियम अलग हैं और वे किसी भी सूरत में यूसीसी को स्वीकार नहीं करेंगे। दक्षिण भारत के भी कई राज्य इस कानून के खिलाफ हैं।
बीजेपी और मोदी सरकार को इन हालात का पता है। उसे डर है कि सरकार अगर इस बिल को खुद लाती है तो देशभर में उसका विरोध जरूर होगा। इसीलिए वो इसे कभी प्राइवेट बिल के तौर पर तो कभी राज्यों में इस पर कानून पास करवा कर मुद्दे को भावनात्मक रूप देना चाहती है। अगर मुस्लिम संगठन और उनके उलेमा इसके विरोध में उतरते हैं तो 2024 में बीजेपी के लिए इस मुद्दे पर खेला करना आसान हो जाएगा। लेकिन क्या सरकार इस पर सामने आने से इसलिए भी बच रही है कि 2018 में लॉ कमीशन ने यूसीसी के खिलाफ राय दी थी। आइए, इसे भी जानते हैं।
क्या कहा था लॉ कमीशन ने
भारत के लॉ कमीशन (विधि आयोग) का मानना है कि पारिवारिक या व्यक्तिगत मामलों के कानून में टकराव को सुलझाने के लिए यूसीसी की जरूरत नहीं है। दरअसल, केंद्र में मोदी सरकार आने के करीब दो साल बाद ही लॉ कमीशन को 2016 में कानून मंत्रालय ने कहा था कि वो यूनिफॉर्म सिविल कोड मामले को देखे। इसके बाद इंडियन लॉ कमीशन ने अपनी पूरी रिपोर्ट देने की बजाय 2018 में एक परामर्श पत्र केंद्र सरकार को सौंपा था। उसी परामर्श पत्र में लॉ कमीशन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि-
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कॉमन सिविल कोड की न तो जरूरत है और न ही यह वांछित है।
- लॉ कमीशन, 2018
आयोग ने विभिन्न पर्सनल लॉ कानूनों में भेदभाव और असमानता से निपटने के लिए मौजूदा फैमिली लॉ में संशोधन का सुझाव दिया था। उसने कहा था कि तमाम कानून के बीच में मतभेदों को पूरी तरह से दूर करने के लिए जरूरी है कि फैमिली लॉ में बदलाव हो। इसने इन पर्सनल लॉ कानूनों की व्याख्या और आवेदन में अस्पष्टता को सीमित करने के लिए इनके कुछ पहलुओं के कोडिफिकेशन का भी सुझाव दिया है। यानी उन कानूनों को कोड रूप में पेश कर दिया जाए। लॉ कमीशन ने सुझाव दिया कि ऐसे कानूनों की जरूरत है जो जेंडरों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते हों और पूरी तरह तटस्थ हों। खासकर नाजायज बच्चों के प्रति कानून जरा भी भेदभाव वाले न हों।
आयोग ने घर में महिला की भूमिका और योगदान को पहचानने की जरूरत पर जोर दिया था। लॉ कमीशन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि महिला को शादी के बाद अर्जित संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए, चाहे उसमें उसका वित्तीय योगदान हो या नहीं हो।
आयोग ने कुछ महत्वपूर्ण कानूनों जैसे एडल्ट्री (व्यभिचार) कानून, मुस्लिम बहुविवाह और पारसी तलाक के कुछ पहलुओं में अपनी सिफारिशें सुरक्षित रखी थीं। क्योंकि इनमें से कुछ कानून सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं।
लॉ कमीशन की खास सिफारिशों में कहा गया है कि धर्म की परवाह किए बिना फैमिली लॉ में कुछ संशोधन जरूरी हैं। उसकी उल्लेखनीय सिफारिशों में शादी का रजिस्ट्रेशन आवश्यक करने पर जोर दिया गया था। उसने सुझाया है कि जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रेशन एक्ट में संशोधन कर इसे लागू किया जा सकता है।
विवाह की उम्र पर नजरिया
लॉ कमीशन ने कहा कि विवाह की उम्र एक समान करने की जरूरत है। मौजूदा कानून कहता है कि लड़की की विवाह की उम्र कम से कम 18 साल और युवकी की शादी की कम से कम उम्र 21 साल होना चाहिए। लॉ कमीशन इसे लड़कियों के प्रति भेदभाव के रूप में देखता है। आयोग ने कहा कि ऐसा कानून सिर्फ इस रुढ़िवादी बात को बढ़ा रहा है कि पति के मुकाबले पत्नी कम उम्र की होना चाहिए। यह सही नहीं है।तलाक पर सुझावआयोग का मानना है कि जिस विवाह को बचाया नहीं जा सकता और किसी तरह के समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है तो तलाक को फौरन एक वैध आधार मिलना चाहिए और उसकी प्रक्रिया भी तेज हो। ताकि महिलाओं को संभावित क्रूरता और झूठे आरोपों से बचाया जा सके, जो इस प्रक्रिया के दौरान उन्हें सहना पड़ता है।
तलाक के बाद संपत्ति को लेकर भी लॉ कमीशन ने अपना रुख साफ किया है। पति-पत्नी को विवाह के बाद अर्जित संपत्ति का समान रूप से अधिकार होना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि रिलेशनशिप खत्म होने पर पूरी संपत्ति बांटी जाए। ऐसे मामलों को अदालत पर छोड़ा जाना चाहिए। अदालत तय करेगी कि किसको क्या मिलेगा।
वैवाहिक अधिकार
इसी तरह वैवाहिक अधिकारों को लेकर अंग्रेजों के समय के कानूनों को खत्म करने की बात भी लॉ कमीशन ने कही थी। उसका कहना था कि पत्नियों द्वारा मेटिनेंस के दावों को नाकाम करने के लिए ऐसे कानूनों के प्रावधान का सहारा लिया जा रहा है, जिन्हें खत्म किया जाना चाहिए।
क्या है कॉमन सिविल कोडः समान नागरिक संहिता की बात भारत के संविधान में कही गई है। संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता को अनिवार्य करता है। यह अनुच्छेद कहता है कि राज्य भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुनिश्चित करेगा। यहां राज्य से मतलब भारत की सरकार, भारत की संसद और सभी राज्यों की सरकारों से है। इसका मतलब यह है कि राज्य और केंद्र सरकार दोनों ही समान नागरिक संहिता का क़ानून ला सकते हैं।
समान नागरिक संहिता से मतलब है कि शादी, तलाक़, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में देश के सभी लोगों के लिए एक समान क़ानून होंगे चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों। ताज़ा सूरत-ए-हाल यह है कि इन सभी मामलों के लिए अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग क़ानून हैं और समान नागरिक संहिता के बन जाने से ये सभी अलग-अलग पर्सनल लॉ ख़त्म हो जाएंगे।
इन पर्सनल लॉ में हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, भारतीय तलाक़ अधिनियम, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम शामिल हैं। मुसलिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध नहीं किया गया है और यह उनकी धार्मिक पुस्तकों पर आधारित है।समान नागरिक संहिता का समर्थन करने वाले नेताओं का कहना है कि इसके लागू हो जाने के बाद देश में सभी लोगों पर उनके धर्म, लिंग से हटकर एक समान कानून लागू होगा। लेकिन ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने समान नागरिक संहिता को असंवैधानिक और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बताया है।