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क्यों डॉक्टरों पर बार बार हो रहे हैं हमले

क्यों डॉक्टरों पर बार बार हो रहे हैं हमले

राजनीति की फ़ैक्ट्री में वैमनस्यता और लम्पटवादिता की फसल लगातार बढ़ रही है। लेकिन आख़िर समाज इसे क्यों समर्थन दे रहा है। 

तीन साल पहले किए गए एक आंकलन के अनुसार भारत में हर 15 परिवारों का एक सदस्य किसी न किसी चुनाव-प्रक्रिया में सीधे या परोक्ष रूप से संलग्न रहता है, यानी चुनाव लड़ता है या “लड़ाता” है। मतलब देश में 1.70 करोड़ लोग राजनीति की फ़ैक्ट्री में हैं और यह कोई उत्पादन नहीं करती। ये अपने को प्रत्याशी बनाने या जीतने की प्रक्रिया में मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने को अधिक सबल, सक्षम और “ज़रूरत पर” साथ में खड़ा होने वाला बताने के लिए बचे हुए समय में क्या करते हैं, अगर इसका विश्लेषण हो जाये तो यह भी समझ में आ जाएगा कि डॉक्टर, दलित, कमजोर, अल्पसंख्यक, कम संख्या में पुलिस और गाहे-ब-गाहे पत्रकारों पर हमले क्यों हो रहे हैं और हाल के वर्षों में यह हमले बढ़े क्यों हैं।  

आबादी घनत्व के हिसाब से भारत दुनिया में 31 वें स्थान पर है। लिहाज़ा मानव विकास सूचकांक में अभी भी वह 130वें स्थान पर कराह रहा है। देश के 416 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले पूरी दुनिया का औसत 58 है जबकि अमेरिका का 34 और ऑस्ट्रेलिया का मात्र 3.20 है। राज्यों में सर्वाधिक आबादी घनत्व वाले तीन राज्य हैं - बिहार 1104, उत्तर प्रदेश 828 और पश्चिम बंगाल 1029। 

संसाधनों की बेहद कमी, भ्रष्टाचार और सामान्य व्यावहारिक मूल्यों को तो छोड़िये, सैकड़ों साल से प्रचलित क़ानूनों को तोड़ने को ही शक्ति व प्रभुता का प्रतीक मानना इस समस्या की जड़ में है। दुर्भाग्यवश समाज को भी इनमें से किसी से भी परहेज नहीं है।

अगर स्थानीय सभासद या ग्राम-प्रधान (मुखिया) वोट देने वाली जाति, समूह या मोहल्ले को अपने ही चुनाव-क्षेत्र के अन्य मोहल्लों के मुक़ाबले तीन घंटे अधिक पानी दिला देता है या सरकारी गोदाम से कुछ कम ब्लैक के पैसे दे कर खाद दिला देता है,  तो लोगों को इसमें ऐतराज नहीं होता है।

अगर स्थानीय विधायक अपने वोटर के 14 साल के बेटे को, जो बग़ैर लाइसेंस कार चलाते हुए सड़क पर चल रहे किसी बूढ़े व्यक्ति को घायल करने के आरोप में पकड़ कर थाने लाया गया है, कुछ “ले-देकर” मामला रफ़ा-दफ़ा करवा देता है तो यह उसकी शक्ति-सम्पन्नता, प्रभुत्व या “संकट के समय साथ खड़े रहने की” योग्यता मानी जायेगी और पूरा इलाक़ा उसे वोट देगा। अगर अपने मोहल्ले के किसी घायल वृद्ध को वह “भावी प्रत्याशी” मदद के नाम पर सरकारी अस्पताल ले जाए और वहाँ डॉक्टर रोगियों की संख्या के कारण उसे तत्काल नहीं देख पाएगा तो यह “भावी प्रत्याशी” उस पर अपने चार गुर्गों के साथ हमला कर देगा। थोड़ी देर में मीडिया डॉक्टरों की लापरवाही को लेकर अस्पताल के सामने से “लाइव” देते हुए जार-जार रोयेगा, ग़ुस्सा करेगा और उस प्रत्याशी की बाइट लेगा। इससे दोहरा फायदा होगा - मोहल्ले में रूतबे से वोट पक्का और “फ़्री में इमेज बिल्डिंग।’’

हमारा प्रजातंत्र हाल के दौर में सड़ांध की चरम स्थिति पर आ पहुँचा है। लम्पटवादिता से सामाजिक पहचान और स्वीकार्यता राजनीति की फ़ैक्ट्री में लगे लोगों की “प्रोफ़ेशनल स्किल” बन चुकी है।

कभी एम्स जा कर देखें तो 90 प्रतिशत मरीज व उनके रिश्तेदार बिहार के होते हैं। ये स्थानीय विधायक/मुखिया से चिट्ठी लिखवाकर या फ़ोन करवा कर सांसद महोदय के यहाँ आते हैं और फिर सिफ़ारिश पर अस्पताल में इलाज के लिए दबाव डलवाते हैं। अगर सांसद बाहुबली भी है तो डॉक्टर की ख़ैर नहीं क्योंकि वे बिहार में ये सब आसानी से कर के बच जाते हैं। 
आख़िर इन दलालनुमा उभरते नेताओं का धंधा क्यों चलता है? इसका कारण संसाधनों पर दबाव, लोगों का विश्वास सिस्टम पर कम, दबाव पैदा करने पर ज़्यादा होना है। कोलकाता के एनआरएस हॉस्पिटल या हाल में दिल्ली के एम्स का मामला ले लें। अगर मरीज के परिजनों को डॉक्टरों की प्रोफ़ेशनल निष्ठा पर शक है भी, तो क्या हमला उसका इलाज है? अगर इसके सामाजिक मनोविज्ञान पर जायेंगे तो पता चलेगा जो भाव हाईवे पर ट्रकों को रोक कर गो वंश मिलने पर किसी पहलू ख़ान को मारने में होता है या जो भाव किसी बाहुबली या जातिवादी नेता की पार्टी के सत्ता में आने के बाद उस वर्ग का होता है, जो पार्टी का झंडा लगा कर किसी महिला को सरे राह उठवा लेता है, वही डॉक्टर को अस्पताल में पीटने के पीछे भी होता है।

अगर राज्य के मुख्यमंत्री को चौराहे पर गाली देने वाले यादव सिपाही को कोई लालू यादव या अखिलेश अगले चुनाव में टिकट देने के लिए उपयुक्त समझते हैं तो बहुत से ऐसे सिपाही गाली दे कर सस्पेंड होने को तैयार हो जायेंगे।

अल्पसंख्यकों को सरेआम धमकी देने वाले को अगर भारतीय जनता पार्टी टिकट देगी तो समाज का बड़ा तबक़ा लम्पटवादी हरक़तें करेगा। मेरठ का माँस-निर्यातक और स्थानीय अल्पसंख्यकों के एक वर्ग के मकबूल “नेता” ने, जब उस डेनमार्क के कार्टूनिस्ट जिसने पैगम्बर मोहम्मद साहेब का अक्स बनाया था, मारने वाले को 51 करोड़ रुपये के ईनाम का ऐलान किया तो अगले साल के चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को उसके “टैलेंट” का पता चला और विधायक बन कर उसने अपनी पार्टी का विलय बसपा में कर लिया।

अगले चुनाव में उसे अजित सिंह की पार्टी ने टिकट दिया और 2014 में मायावती ने फिर से उसे लोकसभा का टिकट देकर नवाजा। बसपा ने इसी “टैलेंट” की कद्र करते हुए उसके बेटे को भी राजनीति में पहचान दी। 

उधर, मुज़फ़्फ़रपुर दंगों के मुख्य आरोपी में भारतीय जनता पार्टी को भी वही “टैलेंट” दिखा। ज़ाहिर है कि अगर एक तरफ़ 51 करोड़ का ईनाम देने की घोषणा करने वाले माँस-निर्यातक में उसके वोटरों को धर्म का रहनुमा दिखा और उसे विधायक बनाया तो इधर बीजेपी का प्रत्याशी भी प्रजातंत्र के मंदिर (विधानसभा) में क़ानून बनाने लगा। दंगे में नाम आने भर की देर थी। तमाम हिंदू संगठनों ने इस व्यक्ति को “हिन्दू ह्रदय सम्राट” की पदवी से विभूषित किया और बीजेपी ने टिकट देकर।  

विधायक बनने पर इस “नेता” ने मुज़फ़्फ़रनगर का नाम “लक्ष्मीनगर” रखने की माँग उठाई। आज विधायक बन कर वह “ज़ेड प्लस” सिक्योरिटी ले कर कहीं भी जाता है तो तमाम बेरोज़गारी के मारे युवाओं को “सम्मान” से जीने का नया “मंत्र” मिल जाता है।

राजनीति की फ़ैक्ट्री में वैमनस्यता और लम्पटवादिता की फसल लगातार पैदावार बढ़ा रही है। यह ग़लती न तो केवल राजनीतिक दलों के नेताओं की है न ही “नेताओं की नयी पौध की”, जो डॉक्टर को मार कर या पुलिस वाले को सत्ता के नाम पर डरा कर या भ्रष्टाचारी से समझौता कर समाज में “रॉबिनहुड” इमेज बनाते हैं। समस्या उस आम सोच की है जो अपने बेटे को बग़ैर लाइसेंस गाड़ी चलाकर एक्सीडेंट करने के बाद भी थाने से कुछ ले-दे कर छुड़वा देने वाले छुटभैये “नेता-दलाल” को भी मान्यता देती है और फिर वोट भी। जब तक समाज का यह भाव रहेगा, राजनीति की फ़ैक्ट्री से यही माल निकलेगा और डॉक्टर पिटता रहेगा और लम्पट प्रजातंत्र के मंदिर को अपवित्र करते रहेंगे।

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