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चिंतन शिविर: अपनी कमजोरियों पर चिंतन करेगी कांग्रेस?

चिंतन शिविर: अपनी कमजोरियों पर चिंतन करेगी कांग्रेस?

लगातार चुनावी शिकस्त खा रही कांग्रेस क्या उदयपुर के चिंतन शिविर के बाद बीजेपी को चुनौती देने के लिए एकजुट होकर लड़ाई लड़ेगी?

आजादी के बाद अपने इतिहास के सबसे चुनौती भरे दौर से गुजर रही देश की सबसे पुरानी और देश पर लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी एक बार एक फिर 'गहन चिंतन’ की मुद्रा में है। 

राजस्थान के ऐतिहासिक शहर उदयपुर में पार्टी का चिंतन शिविर चल रहा है। इस शिविर में पार्टी ने देश भर के अपने 400 से ज्यादा नेताओं को बुलाया है, जो पार्टी की मौजूदा दशा और भविष्य की दिशा पर चिंतन करेंगे। 

नरौरा चिंतन शिविर 

दरअसल कांग्रेस में इस तरह के चिंतन शिविरों की परंपरा रही है, जिसे इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक में शुरू किया था। 1974 में गुजरात के छात्र आंदोलन और उसके बाद जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर शुरू हुए देशव्यापी आंदोलन की चुनौती के मद्देनजर कांग्रेस को चिंतन करने की जरूरत महसूस हुई थी। 1974 में 22 से 24 नवंबर तक उत्तर प्रदेश के नरौरा (बुलंदशहर) में पार्टी का चिंतन शिविर हुआ था। यह कांग्रेस का पहला चिंतन शिविर था, जिसके आयोजन की जिम्मेदारी इंदिरा गांधी ने हेमवती नंदन बहुगुणा को सौंपी थी। बहुगुणा उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। 

वह शिविर किसी पांच सितारा होटल या रिजॉर्ट में नहीं बल्कि खुले मैदान में तंबू लगा कर किया गया था। उसमें सभी बड़े नेताओं के ठहरने का इंतजाम भी उसी स्थान पर किया गया था। कड़ाके की सर्दी में पार्टी के तमाम दिग्गजों ने दो रातें तंबुओं में ही गुजारी थी। 

तीन दिवसीय शिविर के दौरान अलग-अलग कमेटियों ने अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करके प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी सरकार पर लगातार तेज हो रहे विपक्षी दलों के हमलों की काट ढूंढने पर सामूहिक विचार-विमर्श किया था। 

इंदिरा ने लगाया आपातकाल

नरौरा के इस चिंतन शिविर में पार्टी ने संगठन की मजबूती और विपक्षी हमलों के प्रतिकार के लिए 13 बिंदु तय किए थे। यह और बात है कि तमाम चिंतन-मनन के बावजूद इंदिरा गांधी और उनकी सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ गिरता गया और जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्ष का आंदोलन तेज होता गया, जिसे दबाने के लिए इंदिरा गांधी को आपातकाल का सहारा लेना पड़ा। 

1974 के नरौरा शिविर के बाद कांग्रेस का दूसरा चिंतन शिविर 24 साल बाद 1998 में मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में लगा था। उस समय कांग्रेस विपक्ष में थी और उसके सामने नई चुनौती थी।

सोनिया गांधी ने ताजा-ताजा कांग्रेस की कमान संभाली थी और उन्हें खुद को साबित करना था। उस समय तक देश गठबंधन की राजनीति के दौर में प्रवेश कर चुका था और केंद्र में गठबंधन की पांचवीं सरकार चल रही थी। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को स्वीकार नहीं किया और पचमढ़ी शिविर में 'एकला चलो’ की नीति अपनाने का फैसला किया। 

पचमढ़ी शिविर में पारित किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया था कि कांग्रेस देशभर में लोकसभा चुनाव तो अपने दम पर अकेले लड़ेगी, लेकिन पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए स्थानीय राज्य स्तरीय पार्टियों के साथ सम्मानजनक गठबंधन करेगी और खुद को इन राज्यों में मज़बूत करेगी। लेकिन हकीकत यह है कि इन चारों राज्यों में मजबूत होना तो दूर, उलटे कई अन्य राज्यों में भी कांग्रेस हाशिए की पार्टी होकर रह गई है। 

बहरहाल, कांग्रेस ने उस शिविर के बाद 1999 का लोकसभा का चुनाव अकेले ही लड़ा और उसे फिर हार का मुंह देखना पड़ा। 

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शिमला चिंतन शिविर

विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस को एक बार फिर अपने भविष्य की चिंता सताने लगी और उसने फिर चिंतन शिविर आयोजित करने का फैसला किया। उसका तीसरा चिंतन शिविर 2003 में शिमला में हुआ, जो अब तक का सबसे महत्वपूर्ण शिविर माना जाता है। उसी शिविर में कांग्रेस ने 'एकला चलो’ का रास्ता छोड़ कर गठबंधन की राजनीति को स्वीकार किया था।

दरअसल 1996 में केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद जब कांग्रेस 1998 और 1999 के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो उसके नेताओं में सत्ता में वापसी की छटपटाहट बढ़ने लगी थी। 1998 में 24 छोटे-बड़े दलों के गठबंधन के बूते प्रधानमंत्री बनने के बाद 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी और मज़बूत होकर उभरे थे। उस समय कांग्रेस के नेताओं को लगने लगा था कि अब अगर कांग्रेस ने भी गठबंधन राजनीति को नहीं अपनाया तो पार्टी कभी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी।

लिहाज़ा कांग्रेस ने नीति बदली। इसका उसे फायदा भी हुआ और उसने 2004 में सत्ता में वापसी की। हालांकि हकीकत यह है कि 2004 में एक-दो राज्यों में हुए गठबंधन को छोड़ दें तो कांग्रेस लगभग अकेले ही लड़ी थी और चुनाव के बाद भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की अगुवाई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का गठन हुआ था, जो एक दशक बाद 2014 का चुनाव आते-आते काफी हद तक बिखर गया था। 

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जयपुर चिंतन शिविर

सच्चाई यह भी है कि 2003 के शिमला शिविर के बाद कांग्रेस का कोई प्रभावी चिंतन शिविर नहीं हुआ। वैसे जनवरी 2013 में जयपुर में चिंतन शिविर हुआ था। उसमें चिंतन तो बिल्कुल नहीं हुआ, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार का कीर्तन भरपूर हुआ। उस शिविर में इस बात पर कोई चर्चा ही नहीं हुई थी कि 2014 के चुनाव में दस साल की सत्ता विरोधी लहर को कैसे निष्प्रभावी बनाया जाए। इस बात पर भी कोई चर्चा नहीं हुई कि यूपीए को किस तरह मजबूत किया जाए या कैसे उसका विस्तार किया जाए। वहां इस मुद्दे पर भी कोई विमर्श नहीं हुआ कि देश में चारों तरफ उठ रही मोदी नाम की गूंज का कैसे मुकाबला किया जाए। 

आरएसएस-भाजपा और कॉरपोरेट मीडिया द्वारा प्रायोजित अन्ना हजारे और रामदेव के कथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से सरकार के खिलाफ बने माहौल और महंगाई के सवाल पर भी उस शिविर में कोई चिंतन नहीं हुआ। जयपुर शिविर की एकमात्र उल्लेखनीय बात यह रही कि उसमें राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने का फैसला हुआ था। 

बहरहाल सवाल है कि पचमढ़ी से लेकर शिमला और फिर जयपुर से लेकर उदयपुर के बीच क्या बदला है?

कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए आठ साल हो गए हैं। इन आठ सालों के दौरान ऐसे अनगिनत मुद्दे उसके सामने रहे हैं, जिनको लेकर वह सड़क से लेकर संसद तक मौजूदा सरकार को घेर सकती थी। लेकिन न तो उसने अकेले ऐसा किया और न ही अन्य विपक्षी दलों को एकजुट करके सरकार के खिलाफ कोई व्यापक आंदोलन या संघर्ष का कार्यक्रम चलाने की इच्छा दिखाई। पिछले आठ सालों के दौरान उसने सिर्फ एक बार मई 2018 में विपक्षी दलों की बैठक आयोजित की थी। वह बैठक भी उसने स्वेच्छा से नहीं बल्कि शरद पवार और शरद यादव के दबाव बनाने पर बुलाई थी। 

लेकिन 14 दलों की उस बैठक में भी सिर्फ फोटो सेशन के अलावा कुछ उल्लेखनीय नहीं हुआ था।

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गठबंधन की राजनीति

दरअसल गठबंधन की राजनीति को लेकर कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह आमतौर पर उन्हीं राज्यों में गठबंधन करने की इच्छुक रहती है जहां वह संगठनात्मक तौर पर बहुत कमजोर है और उसका जनाधार छीज चुका है- मसलन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक महाराष्ट्र आदि राज्यों में। जिन राज्यों में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां सीमित प्रभाव क्षेत्र वाली छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन में उसकी कोई रुचि नहीं होती। 

कांग्रेस को अपनी इस प्रवृत्ति का अक्सर खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। इस सिलसिले में मिसाल के तौर पर गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव को याद किया जा सकता है। अगर उस चुनाव में उसने शरद पवार की एनसीपी, बसपा और भारतीय ट्राइबल पार्टी के साथ ठीक-ठाक गठबंधन कर लिया होता तो वह गुजरात में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की अपनी हसरत पूरी कर सकती थी। गुजरात जैसी गलती उसने बाद में मध्य प्रदेश भी दोहराई थी।

दरअसल, देश की राजनीति में गठबंधन का युग शुरू हुए तीन दशक से ज्यादा का समय हो चुका है और उसमें दस साल तक कांग्रेस खुद भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है, इसके बावजूद पिछले आठ वर्षों के दौरान जीर्ण-शीर्ण हो चुकी कांग्रेस का नेतृत्व और उसके सलाहकार अभी भी इस जमीनी हकीकत को हजम नही कर पा रहे हैं कि केंद्र में उसके अकेले राज करने के दिन अब लद चुके हैं। वे इस बारे में उस भाजपा से भी सीखने को तैयार नहीं हैं, जिसने पिछले तीन दशक में अपने प्रभाव क्षेत्र का व्यापक विस्तार कर लेने के बावजूद गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है। 

चुनाव में सीटों का बंटवारा हो या सत्ता में साझेदारी, किसी भी मामले में वह अपने गठबंधन के साझेदारों के प्रति उदारता दिखाने में पीछे नहीं रहती है। अपनी इसी उदारता और राजनीतिक समझदारी के बूते ही अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में दो दर्जन से भी ज्यादा दलों के गठबंधन के साथ छह वर्षों तक उसकी सरकार चलती रही।

पिछले दो चुनाव में पूर्ण बहुमत मिल जाने के बावजूद बीजेपी ने अपने गठबंधन के सहयोगियों को सत्ता में साझीदार बनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया।

इसलिए कांग्रेस के इस चिंतन शिविर की सार्थकता इसी में है कि इसमें नेतृत्व का कीर्तन करने के बजाय पार्टी संगठन को मजबूत और गतिशील बनाने, अपनी कमजोरियों को समझते हुए अन्य विपक्षी दलों के साथ खुले मन से गठबंधन करने, अच्छे उम्मीदवार चुनने, सोशल मीडिया नेटवर्क को प्रभावी बनाने, लोक लुभावन नारे गढ़ने जैसे व्यावहारिक एजेंडे पर चिंतन हो और उस चिंतन में से जो निष्कर्ष निकले उस पर पूरी क्षमता के साथ अमल हो। 

अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर ऐसे एक नहीं, कितने ही चिंतन शिविर कर लीजिए। उनसे जीत का रास्ता तो निकलने से रहा।

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