'तुम्हें प्यार करते हुए': मुँह में गुड़ की तरह घुलता प्रेम-रस
हम बहुत विकट समय में पहुँच गए हैं। यह समय जो नफ़रतों और हिंसा से भरा हुआ है और जिसमें प्रेम एक वर्जित तथा बेहद ख़तरनाक़ शब्द जान पड़ता है। हर तरफ़ प्रेम के दुश्मन दिखलाई पड़ते हैं। माथे पर तिलक लगाए, गले में भगवा गमछा डाले घृणा से सराबोर ये लोग प्रेम को किसी तरह से बर्दाश्त करने, बख्शने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरे धर्मों, जातियों के युवक-युवतियों से प्रेम करने पर तो उन्हें आपत्ति है ही, सधर्मियों-सजातियों से प्रेम संबंध बनाने पर भी वे लाठी-भाले लेकर उन पर टूट पड़ते हैं।
तमाम तरह की कुंठाओं से ग्रस्त ये आपराधिक गिरोह राजनीतिक दलों के लिए एक ऐसा मानस तैयार करने के अभियान का हिस्सा है, जिससे वे सत्ता की फ़सल काट सकें। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज को तुष्ट करने वाले इस हिंसक गठजोड़ ने प्रेम को एक ऐसे शब्द से जोड़ दिया है जो वैसे तो दूसरे पवित्र अर्थ रखता है मगर इस्लामोफोबिया से ग्रस्त समाज उसे धार्मिक संकट के तौर पर देखता है। लव जिहाद नामक यह शब्द-युग्म प्रेम विरोधी भावनाओं की चरम अभिव्यक्ति बन गया है।
ज़ाहिर है कि जब प्रेम करना तो दूर प्रेम की बात करना भी कठिन हो रहा हो तो प्रेम की कविताएँ लिखना और भी मुश्किल काम है। बाहर चल रही प्रेम-विरोधी इस उथल-पुथल से अप्रभावित रहते हुए प्रेम के बारे में सोचना और उन्हें शब्दों में ढालना एक दुष्कर चुनौती से कम नहीं है। ऐसे समय में अनुभूतियाँ सुन्न पड़ जाती हैं और शब्द गूँगे हो जाते हैं। लेकिन शायद कई बार कुछ लोगों के साथ इसका उल्टा भी घटित होता है, प्रेम की उदात्त भावनाएँ और भी ज़ोर मारने लगती हैं, जैसा कि सुपरिचित कवि पवन करण के साथ हुआ है। उनका ताज़ा कविता संग्रह 'तुम्हें प्यार करते हुए' में इसे देखा और महसूस किया जा सकता है।
यह कविता संग्रह कई मायनों में विशिष्ट है। अव्वल तो ये हिंदी में प्रचलित प्रेम कविताओं की विषयवस्तु और छंद से हटकर है। पवन की प्रेम कविताओं में स्त्री न तो कमतर है और न ही केवल भोग की वस्तु। वह बराबर की साझीदार है और किसी भी तरह से प्रेम और प्रेमी पर उसका अधिकार कम नहीं दिखता। यही नहीं, वह अधिक अभिमानिनी है और प्रेम में ज़्यादा सक्रिय और डूबी हुई भी। यह शायद इसलिए भी संभव हुआ है कि कवि के अंदर एक स्त्री है और कवि परकाया प्रवेश के ज़रिए उसे उसके उसी रूप में प्रस्तुत करने से हिचकिचाता नहीं है। अपने पहले के कविता संग्रहों में भी वह इस कला का परिचय दे चुका है। वह प्रेमिका के अंदर प्रवेश करते हुए कल्पना करता है और प्रेम संवाद का दूसरा पक्ष रचता है।
मैं जानती हूँ कि तुमने मेरे साथ
इसके पहले कितना जानलेवा इंतज़ार
किया मेरा, पर यह और भी अच्छा होता
कि मेरे और उसके सखियापे से
चिढ़ने की जगह
इसे भी मेरे बराबर प्रेम करते
ये प्रेम कविताएँ उस परंपरा को एक-दूसरे स्तर पर भी खारिज़ करती हैं। तुम्हें प्यार करते हुए में प्यार वायवीय या काल्पनिक ही नहीं है, वह वास्तविक है और उसमें मांसलता भी उतनी ही है जितनी स्वस्थ प्रेम में होती है और होनी चाहिए। साँसों की लड़खड़ाहट ऐसी ही कविता है-
एक दूसरे के मुँह में
जब हम गुड़ की तरह घुल रहे होते
हमारी साँसें भी घुल रही होतीं एक दूसरे में
प्यार के हाथ जब हमें परात में
आटे सा माड़ रहे होते
पानी में थप थप करतीं
हमारी साँसें भी साथ साथ मड़ जातीं
कविताएँ ऐसे बहुत से दृश्य रचती हैं जिनमें प्रेमी-प्रेमिका के बीच की प्रेम क्रीड़ाओं को चित्रित किया गया है। आप चाहें तो इन्हें प्रेम-लीलाएँ कह सकते हैं। इनमें आपसी बातचीत की अंतरंगता अद्भुत है और वह एक नए तरह का छंद रचती चलती है। छेड़छाड़, ठिठोलियाँ, मान-मनौव्वल और ढेर सारी स्मृतियों का आपसी संवाद, चाहे वह वस्तुओं के साथ हो या व्यक्तियों के साथ, प्रेम के अव्यक्त रूपों को उद्घाटित करता हुआ जान पड़ता है।
इन कविताओं में एक मादक गंध महसूस की जा सकती है। प्रेम की मादकता इनमें इस कदर पगी हुई है कि पाठक उसके असर से बचा नहीं रह सकता। लेकिन ये कहीं से अश्लील नहीं होतीं, वे मांसल प्रेम के वर्णन में एक सीमा पर जाकर रुक जाती हैं, वह भी ये बताए बिना कि यही सीमा है। हालाँकि अश्लीलता तो देखने-पढ़ने वाले के दिमाग़ में होती है, मगर अश्लीलता की संकीर्ण परिभाषा में बँधे पाठक भी बगैर परेशान हुए इन कविताओं का आनंद ले सकते हैं और प्रेम की मादकता को महसूस कर सकते हैं। उनकी कविता काली मिर्च को ले लीजिए-
इनसे काला जादू हो सकता है
मैंने ये तो नहीं सुना
मगर तुमने एक बार
मेरी पीठ की तिलों को
अपनी जीभ से सहलाते हुए उन्हें
काली मिर्च जैसा ज़रूर बताया था
तुम्हें याद है कि नहीं
मेरे कहे के जवाब में वह बोली
मेरे स्वाद में डूबे हुए तुमने
प्यार करते हुए मुझसे
क्या-क्या नहीं कहा
पर तुम्हारी यह काली मिर्च
ठहरकर रह गई मेरी याद में।
इस कविता संग्रह की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें छोटे-छोटे जीवनानुभवों में छिपे प्रेम को सहज-सरल ढंग से शब्दों में बाँधा गया है। प्रेम इसमें एक निर्मल नदी की तरह स्वाभाविक ढंग से बहता हुआ लगता है। कवि को मालूम है कि छोटी-छोटी बातों में कितना प्रेम छिपा होता है और जिसे अकसर लोग, यहाँ तक कि प्रेमीजन भी महत्वहीन मानकर उपेक्षा कर देते हैं।
वास्तव में यह कविता संग्रह किस्से-कहानियों और फ़िल्मों में गढ़े गए प्रेम के आख्यान के बरक्स नया नरैटिव गढ़ता है। इसमें प्रेम के ऐसे कई नए बिंब हैं, नए चित्र हैं, नए रंग हैं जो बिल्कुल अनदेखे, अनचीन्हे थे, लेकिन जिनकी पहचान करना बहुत ज़रूरी था।