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कंटेंट के बजाए टीआरपी पर फ़ोकस, धंधेबाज़ी पर उतरा मीडिया

कंटेंट के बजाए टीआरपी पर फ़ोकस, धंधेबाज़ी पर उतरा मीडिया

सच बात तो ये है कि ये घोटाला बहुत बड़े घोटाले का एक छोटा सा हिस्सा भर है। वास्तव में टीआरपी यानी रेटिंग सिस्टम अपने आप में एक घोटाला है और इस घोटाले ने पूरे मीडिया को भ्रष्ट करने में भूमिका निभाई है। 

मुंबई पुलिस ने टीआरपीखोरों के घोटाले का जो भंडाफोड़ किया है, वह पूरी तसवीर का एक महत्वपूर्ण मगर छोटा सा पहलू है। ये कोई नया पहलू भी नहीं है क्योंकि इस तरह के भंडाफोड़ पहले भी होते रहे हैं, जिनमें चैनलों द्वारा टीआरपी मापने के लिए इस्तेमाल होने वाले पीपल्स मीटरों का पता करके अपनी टीआरपी बढ़ाने का हथकंडा आज़माया गया। इसलिए इस पर इतना चौंकने या उत्तेजित होने की ज़रूरत नहीं है। ये काम टीआरपी-वॉर में उलझे चैनलों के लिए छोड़ दीजिए। 

सच बात तो ये है कि ये घोटाला बहुत बड़े घोटाले का एक छोटा सा हिस्सा भर है। वास्तव में टीआरपी यानी रेटिंग सिस्टम अपने आप में एक घोटाला है और इस घोटाले ने पूरे मीडिया को भ्रष्ट करने में भूमिका निभाई है। 

इसने उसके चाल-चरित्र को बदलने में ज़बरदस्त भूमिका निभाई है। टीआरपी ने ये काम भारत में ही नहीं किया है बल्कि दुनिया में जहाँ-जहाँ भी वह है, वहां भी यही किया है। 

हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि मीडिया को जन-विरोधी और लोकतंत्र विरोधी बनाने वाली ये रेटिंग प्रणाली क्यों आई, कैसे आई। इस बड़ी पिक्चर का एक बड़ा हिस्सा वह राजनीति भी है जिसने मीडिया को अपने हक़ में इस्तेमाल करने के लिए उसे प्रोपेगेंडा मशीनरी में तब्दील करने का काम किया। आज के समय में वह बाज़ार के बाद सबसे बड़े फिल्टर या सेंसर का काम कर रही है। इसीलिए एक ख़ास तरह की राजनीति के पक्ष में सहमति का निर्माण मीडिया का सबसे बड़ा, बल्कि एकमात्र एजेंडा बन गया है। 

समाज विज्ञानी थियोडोर अडोर्नो की एक मशहूर किताब है कल्चर इंडस्ट्री। इसमें वे लिखते हैं कि हर अर्थव्यवस्था अपने लिए एक सांस्कृतिक उद्योग का निर्माण करती है। इस उद्योग का मक़सद होता है उस अर्थव्यवस्था की स्वीकृति के लिए वातावरण तैयार करना, अवाम को मानसिक तौर पर उसके अनुरूप ढालना। 

मीडिया भी इस सांस्कृतिक उद्योग का एक प्रभावशाली हथियार होता है। हमारा मीडिया भी बरसों से यही कर रहा है लेकिन आर्थिक उदारवाद के साथ उसकी इस भूमिका का विस्तार होता चला गया। आज वह शासक वर्ग के हित में बनाई गई अर्थव्यवस्था के पक्ष में प्रचार-प्रसार और उसकी रक्षा के लिए मुस्तैदी के साथ तैनात है। 

देखिए, टीआरपी चोरी पर चर्चा- 

उत्पाद में बदला मीडिया कंटेंट

उदारवाद के साथ आए बाज़ारवाद ने ख़बरों और दूसरे मीडिया कंटेंट को उत्पादों में तब्दील कर दिया यानी वे उपभोग करने वाली वस्तुएं हो गईं। ज़ाहिर है कि ख़बरें बाज़ार के लिए बनने लगीं। माँग एवं आपूर्ति का नियम लागू हो गया। जिन चीज़ों की ज़्यादा खपत हो सकती थी उनका उत्पादन अधिक किया जाने लगा। मीडिया अब लोकतंत्र और जन-सरोकारों से हटने लगा और पूरी तरह धंधेबाज़ी पर उतर आया। 

इसी बाज़ार के लिए रेटिंग प्रणाली की ज़रूरत पड़ी। मार्केटिंग रिसर्च एजेंसियाँ विज्ञापनदाताओं को बताने लगीं कि वे अपने उपभोक्ताओं तक कैसे पहुँचें। बस फिर क्या था, रेडियो और टीवी फँसते चले गए टीआरपी के दुष्चक्र में।

ध्यान रहे पत्र-पत्रिकाएं पहले से प्रसार संख्या के जाल में फँसे हुए थे। हालाँकि उनके आँकड़े हर हफ्ते नहीं आते इसलिए उन पर ये दबाव कम रहता है, मगर वे इस दबाव से पूरी तरह मुक्त भी नहीं हैं।  

अब इस परिप्रेक्ष्य के साथ आज के मीडिया परिवेश को देखिए तो चीज़ें बहुत ही स्पष्ट हो जाएंगी। टीआरपी ने टीवी चैनलों के सामने शर्त रख दी है कि जो जितना देखा जाएगा और जितनी देर तक देखा जाएगा उसे ही सबसे ज़्यादा और अच्छी दरों पर विज्ञापन मिलेंगे। यानी चैनलों को दर्शक संख्या बढ़ानी होगी और इसी के लिए सारे धतकरम शुरू हो गए। 

परमपिता बाज़ार के देवदूत चैनल टीआरपी को खुश करने के लिए शीर्षासन करने लगे। क्या मालिक, क्या संपादक और क्या पत्रकार, सबको चाहे-अनचाहे ऐसे हथकंडे सोचने के लिए बाध्य कर दिया गया जो दर्शकों को खींचकर लाए। ज़ाहिर है कि पत्रकारिता क्या समाज, देश और लोकतंत्र सब को भाड़ में झोंक दिया गया। 

अच्छा संपादक वही माना जाने लगा जो टीआरपी बढ़ाए, भले ही पत्रकारिता को गटर में फेंक दे। 

राजनीति ने किया मीडिया का इस्तेमाल 

आज हम जिस मीडिया युग में खड़े हैं, उसकी संक्षेप में यही कहानी है। पिछले लगभग साढ़े तीन दशकों में न्यूज़ चैनलों के पतन का ये सिलसिला हमें लेकर यहाँ आ पहुँचा है। मगर इस कहानी का एक और बड़ा खलनायक है और वह है राजनीति। राजनीति उसे अपने लिए इस्तेमाल करने के लिए लगातार दबाव डालती रही और वह उसके सामने नतमस्तक होता चला गया। पिछले छह वर्षों में उसने पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर दिया है। अब उसमें उतना भी स्पेस नहीं बचने दिया गया है जिसमें लोकतंत्र और उसका वॉच डॉग कहा जाने वाला मीडिया साँस भी ले सके।   

आज के पतन के लिए अगर हम कुछ एंकरों और चैनलों के मालिकों को दोषी मानकर सारा ठीकरा उन पर फोड़ते हैं तो हम खुद को धोखा देते हैं। एंकर बदल जाएंगे तो चीज़ें ठीक हो जाएंगी, ऐसा नहीं है। कुछ मालिक अगर मुनाफ़ाखोरी कम करने की सोच भी लें तो भी कुछ नहीं होगा। आज अगर एसपी सिंह, राजेंद्र माथुर या प्रभाष जोशी होते तो या तो यही कर रहे होते या कहीं हाशिए में फेंक दिए गए होते जैसे कि बहुत से पत्रकार फेंक दिए गए हैं। 

ये धरा अच्छे पत्रकारों से अभी भी विहीन नहीं है। ये बाज़ार और ये सरकार न होती तो न अर्नब गोस्वामी होते और न दिन-रात ऊल-जुलूल बकने वाले उनके ब्रांड के दूसरे पत्रकार।

राजनीति का बदलना ज़रूरी

वास्तव में ये समझने की ज़रूरत है कि जब तक राजनीति नहीं बदलेगी, अर्थनीति नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं बदलेगा। चैनलों को उन्माद के दौरे पड़ते रहेंगे, वे झूठ, अर्धसत्य या फर्ज़ी ख़बरें दिखाते रहेंगे। एक मीडिया-निरक्षर समाज की मंडी में इसी तरह की चीज़ें बेचकर मुनाफ़ाखोरी की जा सकती है, सत्ता की चाकरी बजाई जा सकती है।

मीडिया से ख़ुश है सरकार 

इसीलिए मौजूदा माहौल में आत्म-नियमन का विचार हास्यास्पद लगता है। सभी एक सख़्त एवं स्वतंत्र नियामक की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं। लेकिन ये सरकार तो इसी मीडिया से खुश है और ऐसे किसी भी क़दम को रोकने के लिए कटिबद्ध है। वह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कह रही है कि तब्लीग़ी मामले की मीडिया कवरेज में उसे कोई कमी नहीं दिखी।   

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