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TRP का दुष्चक्र-3: कैसे बदला टीवी न्यूज़ का चाल-चरित्र?

TRP का दुष्चक्र-3: कैसे बदला टीवी न्यूज़ का चाल-चरित्र?

टीआरपी का ही दबाव था कि पहले पहल अपराध पर आधारित ख़बरों और कार्यक्रमों की बाढ़ आई। उन्हें मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। सनसनी पर जोर दिया गया। नाटकीयता आई और फिर टीवी का चरित्र ही बदल गया।

न्यूज़ चैनलों का पहला मक़सद मार्केट में अव्वल बनकर अपना वर्चस्व कायम करना और उसके बल पर मुनाफ़ा बढ़ाना है। दूसरा मक़सद है टीआरपी की होड़ में आगे रहकर राजनीति और दूसरे हल्कों में अपनी पैठ बनाते हुए अन्य लाभ उठाना। इसलिए टीआरपी की होड़ में अव्वल बने रहना उनके लिए बेहद ज़रूरी है।

ध्यान रहे, टीआरपी गिरने से केवल विज्ञापन ही कम नहीं होते, बल्कि बाज़ार के साथ-साथ हर क्षेत्र में चैनल का रुतबा भी कम होता जाता है। इसके उलट जो चैनल रेटिंग में ऊपर उठता है उसका रुतबा बढ़ जाता है। हाल में जब ‘आजतक’ पहले नंबर से फिसला और ‘रिपब्लिक भारत’ नंबर वन बन गया तो यही हुआ। ‘आजतक’ में लगातार पिछड़ने के बाद स्यापा पसर गया तो ‘रिपब्लिक भारत’ उसे चिढ़ा-चिढ़ाकर जश्न मनाता दिखा।

कहने का मतलब यह है कि रुतबा पाने या कायम रखने के लिए भी न्यूज़ चैनल टीआरपी की जंग में अपना सब कुछ झोंक देते हैं। वे हर हथकंडा आज़माने के लिए तैयार हो जाते हैं और इसका सबसे पहला प्रभाव पड़ता है न्यूज़ कंटेंट पर (जैसे आज तक पहले के मुक़ाबले और भी हिंदुत्ववादी बनने लगा है)। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार के रिश्तों को समझा जाए। 

टेलीविज़न में जब तक बाज़ार ने घुसपैठ नहीं की थी तब तक कंटेंट में वे चीज़ें नहीं दिखाई देती थीं या बहुत कम दिखाई देती थीं, जिनकी शिकायत आज सब लोग करते हैं। उन पर एक संपादकीय नियंत्रण होता था और वह ध्यान रखता था कि कंटेंट स्तरीय हो और उसकी प्रस्तुति में भौंडापन क़तई न आए। अस्सी और नब्बे के दशक का दूरदर्शन देख लीजिए। यह शालीनता आपको बराबर दिखेगी। 

लेकिन विज्ञापनदाता आए तो अपने साथ टीआरपी भी लेकर आ गए। यह जानना उनकी ज़रूरत हो गई कि कौन से प्रोग्राम ज़्यादा देखे जा रहे हैं ताकि अपने विज्ञापन उन्हीं को दिए जाएँ। उनका मक़सद ही यही था कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उनके विज्ञापन देखें ताकि उनके उत्पादों की माँग बढ़े। 

लिहाज़ा, 1986 में आईएमआरबी नामक मार्केटिंग एजेंसी ने रेटिंग प्रणाली शुरू कर दी। उधर, दूरदर्शन ने भी 1988 में डार्ट का गठन करके अपने कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने का सिलसिला शुरू कर दिया। बस क्या था, लोकप्रिय कार्यक्रम ही सफलता की कसौटी बन गए। फिर लोकप्रियता के फॉर्मूले बनने लगे और उनके आधार पर कार्यक्रमों का निर्माण शुरू हो गया। 

सबसे पहले इसका असर मनोरंजन के कार्यक्रमों पर पड़ा। उनकी दिशा बदल गई। वे साहित्यिक कृतियों से हटकर सोप ओपेरा की तरफ़ चले गए। इनमें वे तमाम मसाले आज़माए जाने लगे तो बॉक्स ऑफ़िस पर हिट रहने के लिए बंबइया फ़िल्मों में आज़माए जाते थे। 

खाड़ी युद्ध का टेलीविज़न पर सीधा प्रसारण भारतीय टीवी इंडस्ट्री के लिए एक निर्णायक मोड़ था। सैटेलाइट के ज़रिए समाचारों के प्रसारण के लिए इसने वातावरण बना दिया। केबल के ज़रिए टेलीवज़न संपन्न लोगों के घरों में पहुँचने लगा। लोग सीएनएन और बीबीसी देखने लगे।

लेकिन टीवी न्यूज़ काफ़ी समय तक बची रही। शायद इसलिए कि उसे बाज़ार के लिए उस तरह से खोला नहीं गया था। दूरदर्शन ने कुछ प्रायवेट प्रोड्यूसर को स्लॉट बेचे मगर कार्यक्रमों के लिए सख़्त दिशा-निर्देश भी रखे। इसीलिए शुरुआती दौर में न्यूज़लाइन, परख, आजतक (बीस मिनट की बुलेटिन) न्यूज़ टुनाइट, फर्स्ट एडिशन, फ़िलहाल जैसे न्यूज़ आधारित शो बनते रहे, जिनमें खरी पत्रकारिता देखी जा सकती थी।

इस बीच 1993 में इनटैम और 1998 में टैम नाम से मार्केटिंग रिसर्च की एजेंसियाँ आँकड़े देने लगीं और उन्होंने रेटिंग के ज़रिए टीवी कंटेंट पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया था। मगर न्यूज़ पर उनका प्रभाव सन् 2000 के बाद ही दिखना शुरू हुआ। जैसे-जैसे न्यूज़ चैनलों की संख्या बढ़नी शुरू हुई, प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी और उसी के साथ टीआरपी में आगे रहने के लिए फॉर्मूलों की खोज भी तेज़ होती चली गई।

टीवी कार्यक्रमों में अंधविश्वास

एक-दो साल तक तो फिर भी चैनलों ने संयम रखा। उन्होंने अच्छी पत्रकारिता भी दिखाई। मुक़ाबला कंटेंट का हो रहा था, हालाँकि ये निर्दोष नहीं था, मगर आज की तुलना करेंगे तो वह किसी और दुनिया का टेलीविज़न लगेगा। बहरहाल, एक तरफ़ ज़ी न्यूज़ ने काल, कपाल, महाकाल जैसे अँधविश्वासों और अपराधों पर आधारित कार्यक्रमों का सहारा लिया तो स्टार न्यूज़ फ़ॉक्स न्यूज़ के पैटर्न पर चलते हुए ख़बरों को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने लगा।

हर हफ़्ते आने वाली टीआरपी चैनलों को नए-नए फ़ार्मूले देने लगी। जो सामग्री हिट होने लगती, वही फॉर्मूले का रूप ले लेती, ट्रेंड बन जाती। पाँच सी यानी क्राइम, क्रिकेट, सेलेब्रिटी, कंट्रोवर्सी और सिनेमा का फॉर्मूला यहीं से उपजा। धीरे-धीरे टीवी न्यूज़ पत्रकारिता से हटकर मनोरंजन की तरफ़ बढ़ती चली गई।

दरअसल, बाज़ार ने मीडिया को फील गुड का कंसेप्ट दे दिया। वह चाहता था कि दर्शकों को ऐसी चीज़ें न दिखाई जाएँ जिनसे उनका खरीदारी वाला मूड बिगड़े। इस बीच मध्यवर्ग का मिजाज़ भी बदल चुका था। वह उपभोक्ता वर्ग में तब्दील हो गया था और जन सरोकारों से उसका नाता टूट गया था। वह ख़बरों को उपभोग करने वाली वस्तुओं के रूप में देखना चाहता था। बाज़ार की भी उससे यही अपेक्षा थी इसलिए टीआरपी के माध्यम से मीडिया के ज़रिए यह काम किया।

पहले पहल अपराध पर आधारित ख़बरों और कार्यक्रमों की बाढ़ आई। उन्हें मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा। ज़ी न्यूज़ और स्टार का सनसनी इसकी मिसाल बना। फिर आज तक पर जुर्म और वारदात आए। इन सबमें एंकर नाटकीयता के साथ कार्यक्रमों को प्रस्तुत करते थे। यह बीमारी तमाम चैनलों में फैल गई। 

संतों के प्रवचनों-ज्योतिष की बाढ़

यही दौर था जब चैनलों ने रियलिटी शो का काम हाथ में ले लिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की गुड़िया के लिए ज़ी टीवी ने स्टूडियो में अदालत लगा दी और फिर हरियाणा में बोरवेल में गिरे बंटी को निकालने का लाइव कवरेज करके ट्रेंड सेट कर दिया।

इसी के साथ-साथ ज्योतिष और तथाकथित साधु-संतों के प्रवचनों की भी बाढ़ आ गई। ज़ाहिर है कि अनपढ़ों की भारी आबादी वाले देश में ये बिकाऊ माल था और इनके आधार पर चैनलों को भर-भर के टीआरपी मिलने लगी। इनका संबंध टीआरपी से तो था ही, कमाई से भी था क्योंकि ये ज्योतिषी और साधु-संत चैनलों को पैसे देते थे। इस ट्रेंड से एनडीटीवी जैसे इक्का-दुक्का चैनल ही बच सके, मगर टीआरपी के मोर्चे पर उन्हें इसका भारी नुक़सान भी उठाना पड़ा। 

कुछ प्रवृत्तियाँ न्यूज़ चैनलों पर स्थायी रूप से काबिज़ हो गईं तो कुछ आईं और चली गईं। स्थायी रूप से काबिज़ होने वाली प्रवृत्तियों में उपरोक्त दोनों हैं। क्रिकेट, सिनेमा, और कंट्रोवर्सी को भी इनमें जोड़ा जा सकता है। लेकिन कुछ प्रवृत्तियाँ आईं और चली गईं। जैसे एक समय अंधविश्वासों और मिथकों पर आधारित झूठी-सच्ची कहानियों का दौर चल पड़ा था।

भूत-प्रेत, सूनी हवेलियाँ, चमत्कार, दुनिया ख़त्म होने की घोषणाएँ, दूसरे ग्रहों से आने वाले जीव-जंतु, अवैज्ञानिक जानकारियों से भरी कहानियों का एक लंबा दौर चला। तमाम चैनल देश भर में इसी तरह की चीज़ें तलाशने और उन्हें नाटकीय रूप देकर प्रस्तुत करने मे जुट गए।

इसी दौर में आजतक पर बिना ड्राइवर की कार चली और मध्यप्रदेश का कुंजीलाल ने तमाम न्यूज़ चैनलों को बेवकूफ बनाया।

एक चैनल ने तीस सेकंड के वीडियो से कैसे दिन भर खेला जा सकता है इसका फार्मूला ईजाद किया। नतीजा यह हुआ कि तमाम चैनल ऐसे फूटेज की तलाश में जुट गए। कुछ ने यू-ट्यूब का सहारा लिया तो कुछ ने इधर-उधर होने वाली मारपीट, दुर्घटनाओं के वीडियो पर खेलना शुरू कर दिया।

यह फॉर्मूला अपना आकर्षण खोता इसके पहले मिथकीय पात्रों और स्थानों की खोज शुरू हो गई। किसी चैनल ने स्वर्ग की सीढ़ी खोल ली तो किसी ने पांडवकालीन लाक्षागृह और सीता वाटिका। इनकी प्रस्तुति में भी नाटकीयता भर दी गई। एंकर कभी उड़नतश्तरी पर बैठे नज़र आने लगे तो कभी स्वीमिंग सूट पहनकर अंतरिक्ष यात्रा की तैयारी करने लगे। 

वीडियो में देखिए, टीवी चैनलों ने कैसे किया टीआरपी घोटाला

स्टिंग ऑपरेशन का दौर

इसी के आसपास स्टिंग ऑपरेशन का सिलसिला शुरू हुआ। दरअसल, इसकी शुरुआत तहलका कांड से शुरू हुई। तहलका कांड ने न्यूज़ चैनलों को इसकी ताक़त का एहसास करवा दिया था। उन्हें लगा कि इसकी धमक काफी ज़ोर से सुनाई देती है। लोकप्रियता तो मिलती ही है, चैनल का खौफ़ भी बढ़ जाता है। 

शुरू में इसने छप्पर फाड़ के टीआरपी भी दिलाई। लेकिन जब स्टिंग ऑपरेशन ज़्यादा होने लगे और उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो गई तो फिर दर्शक मिलने मुश्किल होने लगे। ज़ाहिर है कि चैनलों ने भी इससे हाथ झाड़ लिए। 

इस बीच स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम सास बहू आर साज़िश ने नया ट्रेंड स्थापित कर दिया। टीवी धारावाहिकों के टुकड़ों से बना ये कार्यक्रम स्टार और बाद में एबीपी न्यूज़ की टीआरपी का बड़ा ज़रिया बन गया था। अगर इस कार्यक्रम की टीआरपी को हटा दिया जाता तो यह चैनल बहुत नीचे खिसक जाता। ज़ाहिर है कि इसका मुक़ाबला करने के लिए दूसरे चैनलों ने भी इसी तरह के कार्यक्रम शुरू कर दिए जो आज तक चल रहे हैं।   

इन तमाम फॉर्मूलों का असर यह हुआ कि चैनलों में पत्रकारिता बंद हो गई। चैनलों ने फील्ड रिपोर्टिंग पर ध्यान देना बंद कर दिया। राजनीतिक रिपोर्टिंग तो हाशिए पर ही धकेल दी गई। अच्छे-अच्छे रिपोर्टर या तो बाहर हो गए या फिर वे भी प्रस्तोता बनकर वही सब करने लगे। ख़बरें डेस्क पर आधारित हो गईं।

टीवी पत्रकारिता बाइट जर्नलिज्म में पहले ही तब्दील हो चुकी थी, मगर न्यूज़ एजेंसी के द्वारा उसकी सप्लाई शुरू हो जाने से वह भी थम गई। चैनलों को अर्थशास्त्र के लिहाज़ से भी यह जम रहा था। न हर्र लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आ रहा था। मोटी सैलरी वाले वरिष्ठ पत्रकारों की छुट्टी करके नौसिखियों के भरोसे चैनल चलाने का दौर शुरू हो गया। ज़ाहिर है कि कंटेंट को तो बरबाद होना ही था। 

यूपीए-दो के अंतिम वर्षों में चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग और विचार-विमर्श की वापसी हुई। हर चैनल पर प्राइम टाइम में बहस होने लगी। शुरुआत में ये शालीन रहीं और गंभीर भी, मगर धीरे-धीरे कुतर्कों, चीख-चिल्लाहटों, मार-पीट, गाली-गलौच से भरती चली गईं। अब ये बहसें भी ड्रामा, एक्शन से भर गईं और विचारों की जगह मनोरंजन प्रधान हो गईं। 

टेलीविज़न न्यूज़ का महापतन!

टेलीविज़न न्यूज़ के महापतन के वर्तमान दौर की शुरुआत लगभग पाँच साल पहले शुरू हुई। ये भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का दौर है और यही एजेंडा अब टीवी में पसर चुका है। इसलिए टीवी का हर कंटेंट अब अंधराष्ट्रवाद, हिंदुत्ववाद और सवर्णवाद से प्रभावित है। ज़ाहिर है कि टीआरपी के लिहाज़ से भी ये हिट फॉर्मूला साबित हो रहा है।

मामला मॉब लिंचिंग, लव जिहाद, तब्लीग़ी जमात का हो, हाथरस, पालघर का हो या चीन-पाकिस्तान का, हर ख़बर, हर चर्चा का इस्तेमाल एजेंडा सेटिंग और उन्माद भड़काकर टीआरपी हासिल करने के लिए किया जाने लगा। ये टीआरपीखोर-सत्तापरस्त ग़ैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता का ऐसा उदाहरण बनने लगा कि पूरी दुनिया में उसके बारे में बात की जाने लगी।  

बेशक़ मौजूदा राजनीति ने एक आतंकित करने वाला वातावरण भी बना दिया है जिसमें अच्छी पत्रकारिता करने वाले निशाने पर हैं। बहुत सारे ऐसे पत्रकारों पर राजद्रोह के केस कर दिए गए हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि उसकी आवाज़ उन्माद भरे शोर में गुम हो जाए।

इस एजेंडे ने पूरे कंटेंट को एकतरफ़ा बना दिया है। एंकर एक पार्टी के प्रवक्ता की तरह पेश आ रहे हैं और सरेआम बेशर्मी के साथ नफ़रत और हिंसा फैला रहे हैं। उन्हें या उनके चैनल को सच या पत्रकारिता से लेना-देना नहीं है। उन्हें न देश की चिंता है और न ही लोकतंत्र की। मीडिया की इसी भूमिका की वज़ह से भी लोकतंत्र का आयतन सिकुड़ता जा रहा है। 

सवाल उठता है कि दो दशकों के महापतन के इस दौर में वे संस्थाएँ क्या कर रही थीं, जिनके कंधों पर इसे रोकने की ज़िम्मेदारी थी 

आत्म नियमन की वकालत करने वाली ये संस्थाएँ चाहे वह नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन हो, ब्राडकॉस्ट एडिटर्स एसोसिएशन हो या फिर पत्रकारों एवं संपादकों की संस्थाएँ, शुरू में आशावाद का दामन थामे हुए कहती रहीं कि सब ठीक हो जाएगा।

दलील दी गई कि अभी भारत में टीवी शैशवकाल में है और बच्चा बड़ा होगा तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि यह बच्चा कुपोषण और ग़लत पैरेंटिंग का शिकार हो रहा है और बड़ा होकर भस्मासुर बन जाएगा। ऐसी चेतावनी देने वाले लोग भी थे, मगर उन पर ध्यान ही नहीं दिया गया। 

आज आलम यह है कि दर्शक दुखी हैं, नाराज़ हैं, लेकिन उनके दिमाग़ों में ऐसा कूड़ा भर दिया गया है कि वे यही सब देख और सराह रहे हैं। एक वर्ग है जिसने इस टीवी से किनारा कर लिया है, मगर उससे इन चैनलों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्हें तो टीआरपी भी मिल रही है और सत्ता का संरक्षण भी। 

(लेखक ने टीआरपी और टेलीविज़न के संबंधों पर डॉक्टरेट की है। इस विषय पर उनकी क़िताब टीआरपी, टेलीविज़न न्यूज़ और बाज़ार काफी चर्चित रही है।)

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