डॉ. नामवर सिंह : एक छात्र की स्मृति
साल 1978 में दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में शोध-छात्र के रूप में दाख़िला लेने से पहले भी मुझे डॉ. नामवर सिंह को देखने और सुनने के कुछ मौक़े मिल चुके थे। मैंने पहली बार इलाहाबाद में उन्हें देखा और सुना था। उन दिनों मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम. ए. कर रहा था। याद नहीं, पहला साल था या दूसरा। एक ही सेमिनार में अज्ञेय, विजय देव नारायण शाही, डॉ. रघुवंश सहित अनेक हस्तियाँ मौजूद थीं। लेकिन नामवर सिंह पूरे सेमिनार में छाए रहे। जब नामवर सिंह बोल रहे थे तो सभाकक्ष में बैठा हर एक व्यक्ति उनके एक-एक शब्द को ध्यान से सुन रहा था।
स्मृति शेष : अब ना होगा कोई और नामवर
श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की थी क्षमता
मैंने कई ओजस्वी राजनीतिक वक्ता, शायर-कवि, गायक या संगीतकार द्वारा अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते देखा था। लेकिन मेरे जीवन में वह पहला मौक़ा था, जब मैं हिन्दी के एक लेखक, वह भी गुरू-गंभीर आलोचक को देख रहा था, जिसमें अपने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की बौद्धिक क्षमता और बोलने का बेमिसाल कौशल था।
नामवर सिंह 90 के हो गए हैं और थोड़े से कुछ ज़्यादा अकेले भी
- संयोग देखिए, एम. ए. के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध छात्रवृत्ति की किल्लत के चलते मुझे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रवेश-परीक्षा में बैठना पड़ा। साल 1978 की एम.फ़िल.-पीएचडी प्रवेश परीक्षा (भारतीय भाषा केंद्र) में, मैं प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण हो गया। उस वक़्त तक डॉ. नामवर सिंह हिन्दी के किंदवतीय आलोचक और प्रोफ़ेसर बन चुके थे। उनकी प्रसिद्धि हिन्दी की सरहदें तोड़कर सभी क्षेत्रों में फैल रही थी।
समाजविज्ञान और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के विद्वान भी नामवर सिंह को गंभीरता से सुनते थे। हमें वाक़ई गर्व होता था कि ऐसे विद्वान की अगुवाई में चल रहे भारतीय भाषा संस्थान में हमें दाख़िला मिला है।
मेरे अध्ययन के दिनों में जेएनयू का माहौल आज के मुक़ाबले काफ़ी अंग्रेजीदां था। छात्रों की संख्या भी कम थी। अधिकांश छात्र हॉस्टलों में ही रहते थे। तब अपने-अपने क्षेत्र के जाने-माने विद्वान और विख्यात लोग हमारे विश्वविद्यालय के कुलपति हुआ करते थे। हमें के. आर. नारायणन साहब को भी अपने कुलपति के रूप में देखने का सौभाग्य मिला। बाद में वह देश के उप राष्ट्रपति और राष्ट्रपति बने।
- जेएनयू में समाज विज्ञान अध्ययन और इंटरनेशनल अध्ययन का बोलबाला था। विदेशी भाषाओं के अध्ययन के साथ भाषा संस्थान (स्कूल आफ लैंग्वेजेज) में ही भारतीय भाषा अध्ययन केंद्र (सेंटर फ़ॉर इंडियन लैंग्वेजेज) नाम से हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई शुरू हुई थी। नामवर जी ही उसके संचालक थे। उनकी नियुक्ति यशस्वी कुलपति पार्थसारथी साहब के ही जमाने में हो गई थी। अपनी मेहनत, दृढ़ संकल्प और विद्वता के बल पर उन्होंने अंग्रेजीदां माहौल वाले एक इलीट कैंपस में हिन्दी और उर्दू के अध्ययन और छात्र-शिक्षकों की सम्मानजनक पहचान बनाई।
दो ही लोग पहनते थे धोती-कुर्ता
मेरे अध्ययन के दिनों पूरे कैंपस में नियमित रूप से धोती-कुर्ता पहनने वाले सिर्फ़ दो ही व्यक्ति दिखते थे। एक तो डॉ. नामवर सिंह और दूसरे थे घनश्याम मिश्र। घनश्याम जी भारतीय भाषा केंद्र में ही छात्र थे। जहाँ तक याद है, घनश्याम जी यूपी के सुल्तानपुर जिले के रहने वाले थे। घनश्याम जी जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके देवी प्रसाद त्रिपाठी (एनसीपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद डीपी त्रिपाठी) के क़रीबी भी थे। घनश्याम जी से डीपी त्रिपाठी ने ही मुझे पहली बार मिलवाया था। ख़ैर, जेएनयू में उन दिनों सिर्फ़ नामवर जी और मिश्र जी ही धोती-कुर्ता धारी थे। इसलिए कैंपस में जब ये लोग चलते थे तो सबकी निगाहें इन पर फौरन चली जाती थीं।
नामवर जी का लिबास देखकर कोई अनजान आदमी उन्हें ‘अनाधुनिक’ समझने की भी भूल कर सकता था। लेकिन उनसे बातचीत में उतरते ही हर किसी का भ्रम तत्काल दूर हो जाता, चाहे वह देश या विदेश का कोई समाजविज्ञानी हो, कूटनीतिज्ञ, राजनेता हो या बड़ा नौकरशाह।
भारतीय के साथ विदेशी साहित्य, विचारधारा और दर्शन के गंभीर अध्ययन के बल पर नामवर जी ने अपनी प्रतिभा और विद्वता का विस्तार किया था। इस मायने में वह अपने समकालीन तमाम हिन्दी लेखकों और शिक्षकों में बिल्कुल विशिष्ट नज़र आते हैं।
- एम.फ़िल. के पहले सेमेस्टर में या ख़ास अवसरों पर नामवर जी के व्याख्यानों को सुनना मेरे लिए एक नया अनुभव था। वह जिस किसी विषय पर बोलते, लगता था कि ज्ञान का सुरीला संगीत बज रहा है। उनकी कक्षा खत्म होने पर हमें कोफ्त होती! ओह, समय अभी क्यों खत्म हो गया!
साल 1978 में कुछ ही महीने बाद भारतीय भाषा केंद्र के एक विवादास्पद फ़ैसले के चलते मुझे विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा। अगले साल, फिर मैंने दाख़िले की अर्जी डाली और दाख़िला मिल गया। साल् 1979 में जेएनयू में मेरी वापसी हुई। जहाँ तक याद आ रहा है, डॉ. नामवर सिंह ने एम. फ़िल. के दिनों में हमें साहित्योतिहास और आलोचना विषय पढ़ाया था।
साहित्य और समाज को लेकर आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने में डॉ. सिंह का एक-एक व्याख्यान हम छात्रों के लिए बेहद महत्वपूर्ण था। कोई शोध-छात्र उनका एक भी व्याख्यान छोड़ना नहीं चाहता था। इसके लिए हम लोग सुबह का नाश्ता या दिन का खाना भी छोड़ सकते थे।
समय के बेहद पाबंद थे डॉ. सिंह
डॉ. सिंह समय के बेहद पाबंद थे। बिल्कुल तय समय पर उनकी क्लास शुरू हो जाती थी। देर से आने वाले छात्र अक्सर ही बाहर रह जाते थे। पर मैंने कुछेक बार धृष्टता भी की। देर से आने के बावजूद मैं क्लास में घुसकर पीछे से बैठ जाता। वह सिर्फ़ घूरकर रह जाते। लेकिन उनका घूरना भी काफ़ी कुछ कह देता।
डॉ. नामवर सिंह से कुछेक मुद्दों पर छात्र-जीवन में अपनी असहमति और विक्षोभ के बावजूद यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह अपने विषय के योग्यतम शिक्षक थे।
छात्र जीवन में असहज रहे रिश्ते
डॉ. सिंह से अपनी कुछ असहमतियों और विक्षोभ की चर्चा मैंने कुछ साल पहले 'समयांतर' पत्रिका में प्रकाशित एक लेख - 'जनेवि : एक अयोग्य छात्र के नोट्स' में विस्तार से की है। छात्र जीवन में उनसे अपने असहज रिश्तों के बावजूद वह बाद के दिनों में जब कभी मिले, उनके सम्मान में मेरा सिर हमेशा झुक जाता। मैं जानता था, मैं उनका पसंदीदा छात्र कभी नहीं रहा। पर कई मौक़ों पर उन्होंने मेरे कुछेक कामों की प्रशंसा भी की।
- इस वक़्त दो ऐसे मौक़े याद आ रहे हैं। पहला, नागपुर विश्वविद्यालय में आयोजित एक नेशनल सेमिनार (संभवतः 1992 या 93) में ‘राहुल सांकृत्यायन और इतिहास दृष्टि’ विषय पर मेरे व्याख्यान के बाद जब वह अध्यक्षीय भाषण देने उठे तो उन्होंने मेरा उल्लेख अपने 'सुयोग्य शिष्य' के रूप में किया! दूसरा मौक़ा था, पटना में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तक 'योद्धा महापंडित' के लोकार्पण (साल 1994) में उन्होंने मेरी पुस्तक के एक ख़ास अध्याय की तारीफ़ की। उस समारोह की अध्यक्षता डॉ. कमला सांकृत्यायन कर रही थीं।
92 वर्षीय नामवर जी पिछले कुछ समय से अस्वस्थ थे। एम्स में उनका इलाज चल रहा था। वह अब हमारे बीच नहीं हैं। हिन्दी के विख्यात आलोचक और विद्वान शिक्षक डॉ. नामवर सिंह को सलाम और सादर श्रद्धांजलि!