महुआ मोइत्रा की टिप्पणी एक ख़तरनाक संकेत!
क्या भारत एक बड़े ख़तरे की तरफ़ बढ़ रहा है? क्या मोदी सरकार की नीतियाँ और सरकार चलाने का तरीक़ा संघीय ढाँचे में तनाव पैदा कर रहा है? क्या केंद्र और राज्यों के बीच दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं? क्या ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों को लग रहा है कि उनके साथ केंद्र सरकार पक्षपातपूर्ण बर्ताव कर रही है? और क्या ऐसे राज्यों को ये लग रहा है कि मोदी सरकार हिंदुत्व को उनके ऊपर थोपने की कोशिश कर रही है? ये वो सवाल हैं जो आज की ध्रुवीकृत राजनीति में मज़बूती से पूछे जा रहे हैं और ये विवेचना भी होनी चाहिये कि केंद्र और राज्यों के बीच बढ़ते तनावों का असर भविष्य में क्या पड़ सकता है।
पिछले दिनों तीन ऐसी घटनायें हुई हैं जो ख़तरनाक हैं और जिस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। ये तीनों घटनायें उन राज्यों से जुड़ी हैं जहां बीजेपी की सरकार नहीं है। पहली घटना तमिलनाडु की है। डीएमके नेता ए राजा ने एक सार्वजनिक मंच से कहा कि मोदी सरकार उनके राज्य को पेरियार के रास्ते पर जाने को मजबूर न करे, हमारे नेता (स्टालिन) अन्नादुरई के रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने ये कहा कि राज्य को और स्वायत्तता दीजिये। हमें अलग देश के बारे में सोचने के लिये मजबूर न करें। राजा ने जब ये बात कही तब मंच पर मुख्यमंत्री स्टालिन मौजूद थे। इसलिये इस बयान को एक नेता का निजी बयान कह कर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। और न ही हल्के में लेने की ग़लती करनी चाहिये। तमिलनाडु की राजनीतिक पृष्ठभूमि उत्तर भारत की राजनीतिक ज़मीन से काफ़ी अलग है। सांस्कृतिक रूप से वो अपने को अलग देखते हैं। उत्तर और दक्षिण के बीच टकराव भी होता रहा है।
तमिलनाडु में आज़ादी के पहले से ही अलग देश का विचार काफ़ी पुष्ट रहा है। ई वी रामास्वामी पेरियार एक जमाने में कांग्रेस के नेता थे। लेकिन गांधी जी की नीतियों से मतभेद की वजह से वो कांग्रेस से अलग हुये और अपनी अलग पार्टी भी बनायी और आत्म सम्मान आंदोलन भी शुरू किया था। ये आंदोलन मूलतः ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करता था और दलितों और पिछड़ों को सम्मान देने की वकालत करता था। उनके एजेंडे में हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान विचार का विरोध भी शामिल था। 1923 में पेरियार ने हिंदी के विरोध में बड़ा आंदोलन भी किया था। पेरियार दक्षिण के राज्यों का एक संघ बनाने के पक्ष में थे। आज़ादी के बाद भी वो स्वतंत्र द्रविणनाड की माँग करते रहे। अन्नादुरई ने 1948 में पेरियार का साथ छोड़कर डीएमके का गठन किया और देश की मुख्यधारा में शामिल हो गये। राजा के कहने का अर्थ साफ़ है कि वो अन्नादुरई के रास्ते पर चल रहे हैं लेकिन अगर मोदी सरकार ने उन्हें पर्याप्त स्वायत्तता नहीं दी तो फिर वो पेरियार के रास्ते पर जा अलग देश की माँग कर सकते हैं।
तमिलनाडु से इतर पंजाब में भी आज़ादी के पहले से ही सिक्खों के लिए स्वतंत्र देश की माँग उठती रही है। जब मुस्लिम लीग ने इस्लाम के नाम पर भारत से अलग पाकिस्तान की बात की तो सिक्खों के नेता मास्टर तारा सिंह ने भी कहा था कि अगर धर्म के नाम पर पाकिस्तान की माँग मानी जायेगी तो फिर सिक्खों का भी एक अलग मुल्क बनना चाहिये।
आज़ादी के बाद जरनैल सिंह भिंडरावाले की अगुवाई में सत्तर अस्सी के दशक में खालिस्तान बनाने के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दिया गया और बड़े पैमाने पर जान और माल का नुक़सान हुआ। आतंकवादियों को ख़त्म करने के लिये सिक्खों के पवित्र धर्म स्थल स्वर्ण मंदिर में सेना घुसी थी। इससे स्वर्ण मंदिर को काफ़ी क्षति पहुंची थी। इंदिरा गांधी और तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या आतंकवाद का नतीजा थी। पंजाब में पिछले पचीस सालों से शांति है।
खालिस्तान की वकालत करने वालों को कोई नहीं सुन रहा था लेकिन आम आदमी पार्टी की सरकार आने के बाद से एक बार फिर से खालिस्तानी सक्रिय हो गये हैं। ऐसे में संगरूर लोकसभा सीट के चुनाव में खालिस्तान समर्थक नेता सिमरनजीत सिंह मान की अप्रत्याशित जीत एक बड़ी ख़तरे की घंटी है।
यह लोकसभा सीट भगवंत मान के मुख्यमंत्री बनने के बाद ख़ाली हुई थी। सबसे हैरान करने वाली बात ये है कि इस सीट पर पंजाब के पहले से स्थापित राजनीतिक दल अकाली दल, कांग्रेस, और बीजेपी तीसरे, चौथे और पाँचवें नंबर पर रहे। आप दूसरे नंबर पर रही। बाक़ी पार्टियों की ज़मानत जब्त हो गई। स्थापित दलों की ये बुरी गत शुभ संकेत नहीं है। पंजाब पर आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस और अकालियों के बीच सत्ता का हस्तांतरण चलता रहा।
2017 में आप प्रमुख विपक्षी पार्टी बनी लेकिन कांग्रेस और अकाली की मौजूदगी बनी रही। 2022 विधानसभा चुनावों में अकाली दल का पूरी तरह से साफ़ हो जाना और कांग्रेस का कमजोर होना, इस बात का प्रमाण है कि पंजाब के लोगों का विश्वास मुख्यधारा की पार्टियों से उठता जा रहा है। और ये चिंता की बात है कि कहीं खालिस्तानी इस का फ़ायदा उठाकर पंजाब को एक बार फिर पृथकतावाद के रास्ते पर न ढकेल दें। किसान आंदोलन को जिस तरह से केंद्र सरकार और बीजेपी ने डिसक्रेडिट करने और उसे खालिस्तान से जोड़ने की कोशिश की, वो पंजाब के लिये शुभ समाचार नहीं है। सरकार की ऐसी हरकतों से ही समाज में एलीनेशन बढ़ता है। और मोदी सरकार ने वो ग़लती की है।
इसी तरह तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को काली पर की गई उनकी टिप्पणी के कारण जो घेरने की कोशिश बीजेपी ने की, वो भी उचित नहीं है। हालाँकि महुआ की टिप्पणी से तृणमूल ने खुद को अलग कर लिया लेकिन महुआ ने आगे जो कहा उसको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। महुआ ने कहा कि उत्तर भारत का हिंदुत्व हम पर थोपने का प्रयास न किया जाये। एक बंगाली टीवी चैनल को दिये इंटरव्यू में महुआ ने कहा,
“
ममता की विश्वासपात्र सिपाही हूँ और बीजेपी के आक्रामक उत्तर भारतीय हिंदुत्व से लगातार लड़ती रहूँगी।
महुआ मोइत्रा, टीएमसी नेता
उत्तर भारतीय हिंदुत्व शब्द का प्रयोग पहली बार किसी नेता ने किया है। लेकिन ये संदेश अगर पूरे देश में फैल गया, ख़ासतौर पर उन राज्यों में जहां क्षेत्रीय अस्मिता बहुत मज़बूत है, और वो अपनी अस्मिता को बचाने के लिये पूरी तरह से सजग हैं, तो न केवल बीजेपी को नुक़सान होगा बल्कि देश को भी उसका बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है।
भारत कई संस्कृतियों का एक संगम है। यहाँ भारत नाम का एक अखिल भारतीय विचार है तो तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयाली, बंगाली, उड़िया, असमिया, पंजाबी, गुजराती, मराठी, कश्मीरी अस्मिताएँ बेहद सशक्त और समृद्ध हैं। उनकी सांस्कृतिक चेतना अखिल भारतीय चेतना में समाहित हैं लेकिन अगर उन्हें ये लगने लगे कि उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है और ज़बरन उन पर कुछ थोपा जा रहा है तो वो ज़ोरदार विरोध कर सकती हैं। ऐसे में सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो क्षेत्रीय अस्मिताओं का सम्मान करे, उनकी चेतना और वेदना को समझने का प्रयास करे। अन्यथा देश को भारी नुक़सान हो सकता है। ऐसे में ए राजा के बयान, महुआ की टिप्पणी और संगरूर के चुनावी नतीजों का गंभीरता से विश्लेषण करना होगा और इस बात का ध्यान रखना होगा कि कहीं ऐसा न हो कि ‘भावनाएँ आहत होने के इस दौर’ में सही में किसी क्षेत्रीय अस्मिता की भावनाएँ आहत न हो जाएँ।